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दलित लेखक डॉ. शरणकुमार लिंबाले को 'सनातन' उपन्यास के लिए मिला प्रतिष्ठित 'सरस्वती सम्मान'

Janjwar Desk
30 March 2021 5:31 PM IST
दलित लेखक डॉ. शरणकुमार लिंबाले को सनातन उपन्यास के लिए मिला प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान
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डॉ. लिंबाले बहु प्रतिभा संपन्न साहित्यकार हैं, उन्होंने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों के लिए शोधपरक लेखन किया है, उनकी 40 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.....

जनज्वार डेस्क। के.के.बिरला फाउंडेशन ने मशहूर मराठी दलित लेखक डॉ. शरण कुमार लिंबाले को साल 2020 के 'सरस्वती सम्मान' के लिए चुना गया है। यह सम्मान साल 1991 से दिया जा रहा है। प्रतिवर्ष यह सम्मान किसी भारतीय नागरिक की ऐसी उत्कृष्ट साहित्यिक कृति के लिए दिया जाता है जो भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित किसी भी भारतीय भाषा में सम्मान वर्ष से ठीक पहले दस वर्ष की अवधि में प्रकाशित हुई हो। इस सम्मान में पंद्रह लाख रुपये की पुरस्कार राशि के साथ-साथ प्रशस्ति व प्रतीक चिह्न भेंट किया जाता है।

डॉ. शरणकुमार लिंबाले का जन्म 1 जून, 1956 जिला सोलापुर के हन्नूर गांव में हुआ। डॉ. शरणकुमार लिंबाले विख्यात एवं विशिष्ट मराठी उपन्यासकार हैं। शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर से मराठी भाषणा में एम.ए. करने के पश्चात उन्होंने यहीं से मराठी दलित साहित्य और अमेरिकन ब्लैक साहित्य एक तुलनात्मक अध्ययन विषय पर पी.एचडी. की उपाधि प्राप्त की। डॉ. लिंबाले यशवंतराव चव्हाण, महाराष्ट्र विद्यापीठ, नासिक के प्रकाशन विभाग में सहायक संपादक के पद पर कार्य करते हुए इसी विश्वविद्यालयसे प्रोफेसर एवं निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए।

डॉ. लिंबाले बहु प्रतिभा संपन्न साहित्यकार हैं। उन्होंने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों के लिए शोधपरक लेखन किया है। उनकी 40 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। लेकिन उनकी आत्मकथा 'अक्करमासी' के लिए उन्हें राष्ट्रीय पहचान प्राप्त है। इस पुस्तक का अन्य कई भाषाओं एवं अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है। उनको महाराष्ट्र सरकार द्वारा कई बार सम्मानित किया जा चुका है।

डॉ. लिंबाले को उनके मराठी उपन्यास सनातन के लिए साल 2020 के सरस्वती सम्मान विभूषित किया जा रहा है। लिंबाले का उपन्यास मुगल और ब्रिटिश कालखंड के इतिहास पर नये रूप में प्रकाश डालता है। यह संपूर्ण कालखंड राजा-महाराजाओं की लड़ाइयों और संधियों का कालखंड रहा। इस कालखंड का सामाजिक इतिहास इस उपन्यास ने उजागर किया है। मुस्लिम-हिंदू और हिंदू समाज व्यवस्था, ईसाई-धर्म और हिंदू धर्म में उत्पन्न संघर्ष, इस काल में दलित आदिवासियों द्वारा किया गया धर्मांतरण बावजूद दलितों की अनसुलझी समस्याएं सनातन में सूक्ष्मता से चित्रित हुई हैं। अंग्रेजों ने अपनी सेना में निचली जाति के लोगों को भर्ती किया और उनका उपयोग देशी सत्ताओं के खिलाफ किया।

अंग्रेजों ने केवल राजा-रजवाड़ों के साथ ही छल-कपट और जुल्म नहीं किया, अपितु दलित-आदिवासियों का भी शोषण किया। 'मजदूर' के रूप में दुनियाभार में अपने उपनिवेशों में उन्हें भेजा। रेलवे की पटरियां बिछाने, गन्ने के खेतों, चाय-बागानों में काम करने के लिए हिंदुस्तान के सस्ते मजदूर बाहर भेजकर उनसे जबरन कठोर मेहनत का काम करवाया गया। मजदूरों का पारिवारिक जीवन बर्बाद हो गया।

मुगल और ब्रिटिश काल में दलित और आदिवासियों का जो शोषण हुआ, उसको इतिहास में दर्ज नहीं किया गया। इतना ही नहीं, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी दलितों और आदिवासियों ने जो भाग लिया उसका भी कोई उल्लेख नहीं किया गया। शरणकुमार लिंबाले के सनातन उपन्यास में नकारा गया इतिहास ब्यौरेवार रूप में प्रस्तुत किया गया है। सनातन उपन्यास मुस्लिम और अंग्रेजों के शासन काल के सामाजिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

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