सत्ता और पूंजीपतियों के शह पर चलने वाले मेनस्ट्रीम मीडिया से अधिक हिंसक और देशद्रोही और कोई नहीं
श्रद्धा वाकर हत्याकांड ने दहलाकर रख दिया था पूरे समाज को
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
We are heading towards a barbaric society and violence is a new normal. हम आज के दौर में ऐसे समाज में हैं जहां फ्रीज का उपयोग मानव शव के टुकड़े रखने में किया जाने लगा है और महंगी एसयूवी हत्या का एक औजार बन गयी है। कारों के बोनट पर लटका कर कई किलोमीटर कार भगाई जाती है। अब तो बलात्कार और फिर हत्या एक सामान्य सी घटना हो चली है, जिसके साचार रोज पढ़ने को मिलते हैं। हमारे समाज में सोशल मीडिया पर सहायता की गुहार लगाने पर कोई नहीं आता, फ़ोन करने पर पुलिस भी से पर नहीं पहुँचती जबकि एक हिंसक पोस्ट पर सैकड़ों की भीड़ मिनटों में पहुँच कर बीच सड़क पर किसी की भी ह्त्या कर देती है।
हमारे प्रधानमंत्री जी बड़े गर्व से देश को प्रजातंत्र की माँ बताते हैं, पर प्रजातंत्र तो दूर है, हम तो समाज के तौर भी असफल हो चुके हैं। सत्ता को भले ही देश विकास करता हुआ दिख रहा हो, पर समाज तो लगातार कबीलाई दौर की तरफ जा रहा है, जहां कबीले के सरदार के मुंह से निकला हरेक शब्द क़ानून था।
समाज में बढ़ती हिंसा का सबसे बड़ा कारण है, समाज को लगातार बांटने की साजिश। समाज में जितने अधिक वर्ग होंगे, हिंसा उतनी ही अधिक होगी। यही आज देश में हो रहा है – सत्ता हमें धर्म, सम्प्रदाय, न्याय, लिंग, शिक्षा, रोजगार, व्यवसाय, संसाधनों पर अधिकार और आर्थिक हैसियत के आधार पर विभाजित कर रही है। सरकार जितना सबका साथ सबका विकास का नारा लगाती है, समाज में उतने ही नए वर्ग उभर जाते हैं। वर्गों में बंटे समाज में हरेक वर्ग दूसरे को अपने दुश्मन के तौर पर स्वाभाविक तौर पर देखता है – यदि यह स्वाभाविक नहीं होता तब सत्ता विभाजन की खाई को और गहरी करती है।
जब आप वर्ग हिंसा को जायज मानते हैं और उसका हिस्सा भी बनते हैं तब आप प्राकृतिक तौर पर हिंसक बन जाते हैं और फिर यह हिंसा केवल सामाजिक वर्ग युद्ध में ही नहीं बल्कि हरेक आचरण में समा जाती है। दशकों पहले हत्याएं केवल डकैत या फिर आपसी रजिश के कारण लोग करते थे, पर अब तो हम इतने हत्यारे हो चुके हैं कि जिसकी हत्या करते हैं उसके बारे में पता भी नहीं होता कि उसने किया क्या है।
समाज के तौर पर हम इस कदर हिंसक हो चुके हैं कि वह हमारी भाषा में समा चुका है। पहले हिंसक भाषा केवल अपराधियों की होती थी और कम से कम लिखने में तो अघोषित तौर पर वर्जित थी। पर, आज के दौर में तो यह सत्ता की और राजनीति की राजभाषा बन चुकी है। सत्ता के शीर्ष से लेकर सत्ता के अदने समर्थक तक बेधड़क हिंसक भाषा का उपयोग माइक और कैमरे के सामने करने लगे हैं। मारपीट, बदला लेना, अर्बन नक्सल, आतंकवादी, उग्रवादी, टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे शब्द तो विशेषण, उपमा और अलंकार जैसे प्रयोग किये जाने लगे हैं।
इस मामले में सत्ता में बैठे पुरुषों और महिलाओं का भेद मिट गया है। धर्म के तथाकथित ठेकेदार तो हाथों में हथियार उठाये सीधे-सीधे ह्त्या की बात भी बड़े गर्व से करते हैं। समाज इन्हीं लोगों को अपना आदर्श मानता है, जाहिर है हिंसा समाज को एक आवश्यक कार्यवाही लगाने लगी है। सोशल मीडिया ने हिंसा को एक नया आयाम दिया है – जिन शब्दों को कागज़ पर लिखने से समाज संकोच करता था, वही सारे शब्द सोशल मीडिया पर लोगों ने बेधड़क और बिना संकोच लिखना शुरू कर दिया है।
इन सबके साथ ही फिल्मों, विशेष तौर पर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर चलने वाली फिल्मों ने भी हिंसा का खूब महिमामंडन किया है, और हिंसा और हत्या के नए तरीके सुझाए हैं। हरेक घर में अपनी पहुँच बनाने वाले टीवी समाचार चैनल तो समाज में हिंसा फैला कर और नफ़रत फैला कर अपना कारोबार आगे बढ़ा रहे हैं। हम भले ही हिंसा के लिए सोशल मीडिया को अधिक दोषी मानते हों, पर सच तो यह है कि सत्ता और पूंजीपतियों के शह पर चलने वाले मेनस्ट्रीम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से अधिक हिंसक और सही अर्थों में देशद्रोही और कोई नहीं है।
जब समाज में उपेक्षित और शोषित लोगों की संख्या बढ़ती है तब भी हिंसा जीवन का एक अंग बन जाता है। आज समाज में दो स्पष्ट वर्ग हैं – एक सत्ता समर्थक और दूसरा शेष आबादी का। सत्ता समर्थक बेधड़क हिंसा इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें क़ानून व्यवस्था की चिंता नहीं है। शेष आबादी हरेक आजादी और अधिकार से वंचित समुदाय है, जिसका सत्ता और समाज हरेक कदम पर शोषण करता है। ऐसे समुदाय में हिंसा सत्ता समर्थकों से अपनी आजादी और अधिकार वापस पाने के लिए की जाती है।
हिंसा विचारों और व्यवहार में शामिल हो जाती है और धीरे-धीरे जीवन का अभिन्न अंग बन जाती है। एक समय ऐसा भी आता है जब हम हिंसा करते हैं, और पता भी नहीं चलता। हमारा समाज ऐसे ही दौर में पहुँच गया है। दुखद यह है कि सत्ता ही हिंसा को हवा दे रही है क्योंकि उसका अस्तित्व ही जनता के वोटों पर नहीं बल्कि हिंसा पर ही टिका है। समाज में जितनी हिंसा फ़ैल रही है, सत्ता उतना ही विकास का शोर मचाती है। सत्ता का सामाजिक हिंसा पर प्रभाव समझना हो तो चुनावों के दौर का आकलन कीजिये – नेताओं के भाषणों में हिंसा की पराकाष्ठा रहती है और इसके असर से समाज में हिंसा बढ़ जाती है।