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UP Election 2022: वर्चुअल माध्यम से चुनाव की जंग, छोटे दलों की बढ़ गई चुनौतियां, पिछड़ गए तो होगा नुकसान
UP Election 2022: वर्चुअल माध्यम से चुनाव की जंग, छोटे दलों की बढ़ गई चुनौतियां, पिछड़ गए तो होगा नुकसान
लक्ष्मी नारायण शर्मा की रिपोर्ट
UP Election 2022: आजाद भारत में शायद यह पहला मौका होगा जब चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद भी न रैलियां दिख रही हैं न जनसभाएं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की पूरी प्रक्रिया एकदम नए तरह से आगे बढ़ रही है। कोविड ने जिस तरह से नई-नई और अप्रत्याशित परिस्थितियों से समाज को रूबरू कराया, उसमें से एक परिस्थिति यह भी है। ऐसे दौर में जब चुनाव के प्रचार से लेकर नामांकन तक में वर्चुअल या ऑनलाइन माध्यम के उपयोग पर जोर दिया जा रहा है तो वर्चुअल माध्यम, सोशल मीडिया और इसके प्रभावों पर चर्चा बेहद जरूरी है।
सोशल मीडिया कैम्पेन चुनाव में वोटिंग बिहेवियर पर किस तरह से प्रभाव डालता है, इस पर झांसी नितिन भगौरिया ने शोध किया है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के कैम्पेन में सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर दो राष्ट्रीय दलों की उपस्थिति, पोस्ट्स की तुलनात्मक संख्या और उनका वोटिंग बिहेवियर पर पड़ने वाले प्रभाव का उन्होने अध्ययन किया गया है। इन सब विषयों पर हमने खास बातचीत की झांसी के रहने वाले नितिन भगौरिया से जो चुनाव अभियानों में सोशल मीडिया के उपयोग व उसके प्रभाव पर वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर से पीएचडी कर रहे हैं।
नितिन कहते हैं कि वर्ष 2019 के चुनाव अभियान में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के जन अभियान में न्यू मीडिया की भूमिका पर उन्होंने अध्ययन किया। इसके तहत कांग्रेस और भाजपा के सोशल मीडिया पेज, इंस्ट्राग्राम, फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब प्लेटफार्म्स को अध्ययन में शामिल किया। अध्ययन में सामने आया कि भाजपा सोशल मीडिया पर बहुत अधिक सक्रिय थी। लगभग 14,000 सोशल मीडिया पोस्ट का संग्रह करने में ही डेढ़ साल का समय लग गया। तुलना में सामने आया इन पोस्ट में भाजपा की ओर से 75 प्रतिशत और कांग्रेस की ओर से 25 प्रतिशत पोस्ट किए गए थे।
नितिन कहते हैं कि वर्तमान चुनाव राजनीति के साथ ही शोध का भी विषय है। सोशल मीडिया उन मतदाताओं को प्रभावित करता है जो किसी पार्टी विशेष के पक्ष या विपक्ष में कोई निश्चित लगाव नहीं रखते हैं। सोशल मीडिया ऐसे लोगों के वोटिंग बिहेवियर को प्रभावित करने का काम करता है। जिस दल ने 2019 के लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया पर बेहतर काम किया होगा, वह निश्चित तौर पर 2022 के चुनाव में भी इस प्लेटफार्म पर बेहतर प्रदर्शन करेगा। क्षेत्रीय दलों और प्रत्याशियों के लिए यह स्थिति बड़ी चुनौती साबित होगी।
नितिन के मुताबिक जब रैलियां होती थीं तब भीड़ से दल की लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जाता था। जुलूस निकलते थे। कोविड में वह सब चीजें देखने को नहीं मिलेगी। वोटर को कैसे प्रभावित करे, यह प्रत्याशी के लिए बड़ी चुनौती है। इस समय सब कुछ वर्चुअल है। सोशल मीडिया पर गेट कीपिंग नहीं होने के कारण यह कैम्पेनिंग में प्रभावशाली साबित होता है। दूसरी ओर इंटरनेट की उपलब्धता के मामले में असमानता देखने को मिलेगी ही। जो प्रत्याशी जनता से कनेक्ट नहीं कर पायेगा, लोग उसके बारे में जान ही नहीं पायेंगे। यदि सोशल मीडिया पर वर्चुअल रैली हो रही है और हमारे मतदाता के पास इससे जुड़ने की सुविधा उपलब्ध नहीं है तो यह बड़ा कम्युनिकेशन गैप साबित होगा। मुद्दे, विचारधारा और कार्यक्रम यदि वोटरों तक नहीं पहुंचा सके तो छोटे दलों और प्रत्याशियों को काफी नुकसान होने वाला है।