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वरिष्ठ संपादक श्रवण गर्ग की टिप्पणी
Nithari Serial Killings : निठारी कांड के दोनों ‘खलनायक’ फाँसी के फन्दे से बचकर जेल से बाहर आ गए हैं। अभी यह साफ़ होना बाक़ी है कि मुख्य पात्र मोनिंदर सिंह पंढेर और उसका सहयोगी नौकर सुरेंद्र कोली क्या नोएडा में सेक्टर-31 की उसी कुख्यात डी-5 नंबर की किलेनुमा कोठी पर ही वापस पहुँचने वाले हैं जहां नृशंस बलात्कारों और हत्याकांडों को अंजाम दिया गया था या किसी और जगह को दहशत की निठारी बनाने का इरादा रखते हैं!
निठारी की उस बदनाम कोठी में हुए नृशंस बलात्कारों और हत्याकांडों की कथाओं के दिसंबर 2006 में प्रकाश में आने के तत्काल बाद मैंने उस स्थान की अहमदाबाद से दिल्ली पहुँचकर यात्रा की थी। किलेनुमा कोठी को सामने और बाईं तरफ़ से ठीक से देखा था और उसमें व्याप्त ख़ौफ़नाक सन्नाटे से पैदा होती दहशत और एक अजीब सी बदबू को सड़क पर खड़े होकर भी महसूस किया था। दोनों अपराधियों की उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा रिहाई की खबर के साथ ही नोएडा की उस विशाल कोठी की तस्वीर अंधेरा बनकर आँखों के सामने छा गई थी।
उ.प्र. में उस समय मुलायम सिंह यादव की हुकूमत थी। याद पड़ता है कि कोठी के आसपास से लापता हुए बच्चे-बच्चियों की हड्डियों और कंकालों की दिल दहला देने वाली बरामदगी के बावजूद मुलायम सिंह सरकार के एक ज़िम्मेदार मंत्री ने तब प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि ऐसी (निठारी जैसी) छोटी-मोटी घटनाएँ तो होती रहतीं हैं। मंत्रीजी के लिए ऐसा बयान दिया जाना शायद ज़रूरी भी था। दो-तीन महीनों बाद ही राज्य विधानसभा के चुनाव होने वाले थे।
मंत्री बहुत समझदार जीव होते हैं। मंत्री बनना कोई आसान काम भी नहीं होता। इस पद तक पहुँचने के पहले सभी तरह के विरोधियों को राजनीतिक कंकालों में तब्दील करना पड़ता है। मंत्री जी को यक़ीन रहा होगा कि चुनाव-प्रचार के शोर-शराबे में निठारी की सारी चीखें दफन हो जाएंगी। वैसा ही हुआ भी। मुलायम सिंह के बाद मायावती की सरकार मई 2007 में सत्ता में आ गई। उच्च न्यायालय के फ़ैसले के बाद अखिलेश यादव या मायावती द्वारा व्यक्त की गई किसी प्रतिक्रिया की जानकारी नहीं है। मामला काफ़ी बड़ा है, कोई प्रतिक्रिया तो अवश्य ही दी गई होगी।
निठारी कांड के प्रकाश में आने और पंढेर, कोली की गिरफ़्तारियों बाद वकीलों के बीच बहस छिड़ गई थी कि आरोपियों का मुक़दमा लड़ा जा सकता है या नहीं! बहुत सारे वकीलों की उस समय दलील थी कि सुबूतों के आधार पर जब तक दोषी नहीं करार दिया जाता उन्हें अपने क़ानूनी बचाव का पूरा अधिकार है। ऐसा अधिकार सद्दाम हुसैन को भी हासिल था।
19 बच्चों और बालिकाओं को दुष्कर्म के बाद मार डालने और उनके शवों के टुकड़े-टुकड़े कर पास के नाले में फेंक देने जैसे नृशंस अपराध को लेकर चले लंबे मुक़दमे के बाद दिए गए फ़ैसले में उच्च न्यायालय ने ठोस सुबूतों के अभाव में दोनों आरोपियों को बरी कर दिया। दिल्ली का बहुचर्चित निर्भया कांड तो निठारी के छह साल बाद दिसंबर 2012 में हुआ था, उसमें सज़ाएँ भी हो गईं पर निठारी ने देश और सत्ता की आत्मा को समान रूप से नहीं हिलाया। दोनों ही घटनाओं के समय केंद्र में सरकार यूपीए की थी।
निठारी के दोषियों की रिहाई के लिए उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने जाँच एजेंसियों द्वारा जनता के भरोसे के साथ किए गए विश्वासघात को ज़िम्मेदार ठहराया। फ़ैसले में कहा गया कि मासूम बच्चों और महिलाओं को अमानवीय तरीक़े से मारा गया और जाँच एजेंसियों द्वारा सुबूत जुटाने के बुनियादी मानदंडों का उल्लंघन हुआ। पंढेर और कोली की ओर से पेश हुए मुंबई और अन्य स्थानों के बड़े वकीलों ने अभियुक्तों की गिरफ़्तारी से लगाकर सीबीआई की अदालत द्वारा दी गई फाँसी की सज़ा तक के घटनाक्रम के दौरान चली जाँच के तथ्यों को चुनौती दी थी। (ग़ाज़ियाबाद स्थित सीबीआई की अदालत ने कोली को 12 और पंढेर को दो मामलों में फाँसी की सज़ा सुनाई थी।)
निठारी कांड के समय मैं अहमदाबाद में कार्यरत था। हत्याकांड ने देश के साथ-साथ गुजरात को भी विचलित कर दिया था। मेरी जिज्ञासा दिल्ली पहुँचकर निठारी की पीड़ा महसूस करने की थी। जनवरी 2007 के पहले सप्ताह में अहमदाबाद से दिल्ली पहुँचते ही निठारी की सड़क पकड़ी। निठारी पहुँचकर जो महसूस किया वह आत्मा को झकझोरने वाला था। नोएडा के सेक्टर 31 की उस भव्य कोठी के सामने खड़े होकर चारों ओर नज़र दौड़ाने पर महसूस किया कि कंकालों में तब्दील किए जाने से पहले असहाय बच्चे-बच्चियां किस तरह की यातनाओं से गुज़रे होंगे। कोठी इतनी बड़ी है कि कोई चीख बाहर नहीं पहुँच सकती।
दिल्ली से वापस अहमदाबाद पहुँचकर मैंने एक आलेख लिखा, 'हर जगह मौजूद है निठारी और मोनिंदर’ आलेख में लिखा था :'निठारी एक गांव नहीं एक अंतहीन सिलसिला है जिसका कोई सिरा हमारी नीयत और मर्ज़ी के ख़िलाफ़ पकड़ में आ गया है। हमें डर है अगर हमने सिरे को ईमानदारी के साथ पकड़े रखा तो हर शख़्स और गाँव निठारी से जुड़ता नज़र आएगा। न जाने कितने स्थानों पर गेती-फावड़े चलेंगे और कितने कंकाल नज़र आएँगे। भजन-कीर्तन और राजनीति में गहरे तक धँसा हुआ देश तब शायद इतने सारे कंकालों को देख नहीं पाए!’
उक्त आलेख हिन्दी से अनूदित होकर ‘दिव्य भास्कर’ गुजराती दैनिक में भी प्रकाशित हुआ था, जिसका मैं तब संपादक था। मुझे अनुमान नहीं था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उस आलेख को पढ़ा होगा। जनवरी के दूसरे सप्ताह में अहमदाबाद में ‘वाइब्रेंट गुजरात ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट 2007’ का आयोजन चल रहा था जिसमें देश के बड़े-बड़े उद्योगपति उपस्थित थे। मैंने (शायद) मुकेश अंबानी को वहीं बोलते हुए सुना था कि : ‘नरेंद्र भाई हम तो आपको प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाहते हैं।’
समारोह की समाप्ति के बाद मोदी लोगों की भीड़ से घिरे खड़े थे और वापस लौटने की तैयारी में थे। मुझे देखा तो कार में बैठते-बैठते अचानक रुक गए और पास आकर बोले, 'मैंने आपका निठारी वाला आर्टिकल पढ़ा है। बहुत अच्छा लिखा है। मैं आपका लिखा हर आर्टिकल पढ़ता हूँ। ऐसे ही लिखते रहिए।’
निठारी के बाद के 17 सालों में साबरमती, यमुना और गंगा में काफ़ी पानी बह चुका है। निठारी भी होते रहते हैं और अपराधी भी बरी होते रहते हैं। मैं भी लगातार लिखता रहता हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ नरेंद्र मोदी जनवरी 2007 के अहमदाबाद की तरह ही मुझे कहीं देख लेंगे तो क्या फिर से कहेंगे कि मेरे लिखे को वे अभी भी पढ़ते हैं, मैं अच्छा लिखता हूँ और मुझे ऐसे ही लिखते रहना चाहिए?
(श्रवण गर्ग के इस लेख को shravangarg1717.blogspot.com पर भी पढ़ा जा सकता है।)