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विमर्श

आज सच्ची पत्रकारिता उस यतीम कुत्ते की मानिंद जैसे न्यायपालिका में न्याय, अफरशाही में फैसले, धर्म में धार्मिकता और अस्पताल में समुचित इलाज

Janjwar Desk
9 Nov 2020 7:27 AM GMT
आज सच्ची पत्रकारिता उस यतीम कुत्ते की मानिंद जैसे न्यायपालिका में न्याय, अफरशाही में फैसले, धर्म में धार्मिकता और अस्पताल में समुचित इलाज
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पत्रकारिता में सफलता अगर नैतिक बल खो दे तो वह पत्रकारिता नहीं, एक तरह का शिटस्टॉर्म ही है, अर्णब गोस्वामी की रिपोर्टिंग का अंदाज़ सार्वजनिक जगहंसाई का विषय हो गया है...

अर्नब गोस्वामी प्रकरण और पत्रकारिता का रसातल पर पढ़िये वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन की टिप्पणी

वैसे तो मुझ जैसे रिपोर्टर को इस विषय पर इस तरह लिखने का कोई अधिकार नहीं है। मैं बहुत छोटा और सामान्य रिपोर्टर हूँ और मेरी आवाज़ भी मेरे भीतर प्रतिध्वनित होकर लौट आती है, लेकिन पिछले सप्ताह हुई एक घटना पर मेरे बहुत से मित्र मेरे विचार जानने के बहुत उत्सुक हैं और उन्हें लग रहा है कि मैं जाने क्यों चुप हूँ।

दरअसल, न तो मैं बनियान धो रहा था और न ही एसी वाले घर में पंखे के जाले साफ़ कर रहा था। यह दौर ही ऐसा है कि इसमें पत्रकार की बनियान से अधिक पत्रकारिता की आत्मा बजबजा रही है और इसका मैल साफ़ करने वाला साबुन कहीं नज़र नहीं आ रहा। किसी पत्रकार को घर के पंखे के जाले साफ़ करने की फ़ुर्सत होगी; लेकिन हम जैसे ज़मीनी लोगों को तो रोज़ कुआं खोदना पड़ता है और रोज़ पानी पीना होता है। हम पत्रकारों के दिलोदिमाग़ में अर्नब गोस्वामी एक महान सफल पत्रकार हैं और हम उन्हें ऐसे देखते हैं जैसे राजा भोज को गंगू! लेकिन आजकल पत्रकारिता की रूह में तरह-तरह के जाले लगे हैं और उन्हें साफ़ करने वाली भुजाएँ कहीं दिखाई नहीं दे रहीं!

पत्रकारिता का यह दौर बहुत ही झूठा, बनावटी, लफ़्फ़ाज़ और बड़बोला है और इसके नायकों में एक आज के चर्चित पत्रकार और सबसे बड़े सरफ़रोश हैं! लेकिन उन पत्रकारों की किसी को याद नहीं, जो आर्यावर्त के नाना प्रदेशों में मार दिए गए, अकारण जेलों में डाल दिये गए या फिर घटनास्थल पर जाने से रोक दिए गए। एक अंकुरित होती साहसिक पत्रकार चौरीचौरा से राजघाट तक सिर्फ़ यात्रा भर निकाल रही थी, लेकिन सत्ता-भोगी सरकार ने उस तरुणी की पीठ थपथपाने के बजाय उसे जेल में डाल दिया।

अभी बिहार कवरेज पर गई एक नवोदित अकेली दलित पत्रकार को महाअमात्य की रैली में जान बचाना मुश्किल हो गया। एक पत्रकार ने ख़बरों जैसी ख़बर की तो उसके ख़िलाफ़ 100 करोड़ की मानहानि का मुकदमा कर दिया गया। अपनी कोशिशों से आंदोलन जैसा अख़बार निकालने का दुःसाहस करने वाली गर्वीली भारतीय महिला को मौत के घाट उतार दिया गया।

दशकों से भारतीय दक्षिण पंथ की हिमायत करके कांग्रेस के शासन के दौरान मुश्किलें झेलती रही साहसी महिला ने कुछ सच लिखने की कोशिश की तो ट्रॉलरों ने क्या-क्या नहीं किया! लेकिन मैंने इनमें से किसी के समर्थन में न कहीं आवाज़ उठी देखी और न किसी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई कराहता से स्वर ही सुना! पुरुष पत्रकारों के साथ जो होता है, उसका ज़िक्र करना तो व्यर्थ है।

माहौल दोनों तरफ़ इतना प्रदूषित है कि आजतक की मोदी समर्थक कही जाने वाली पत्रकारों के बारे में ट्रॉलर जाने क्या-क्या लिखते हैं। ये वही शिखंडी हैं, जो अन्वय नायक की पत्नी और बेटियों को लेकर यौन कुंठित टिप्पणियों के साथ फ़ोटो ट्रॉल कर रहे हैं और जवाब में भाजपा नेताओं की पत्नियों और बेटियों पर कटाक्ष हो रहे हैं, ये मीडिया का रसातल नहीं तो क्या है?

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक शेर है :

सितम की रस्में बहुत थीं लेकिन, न थी तेरी अंजुमन से पहले।

सज़ा ख़ता-ए- नज़र से पहले, इ'ताब जुर्मे-सुख़न से पहले।

कि हालात तो पहले ही/भी ख़राब थे; लेकिन पानी शायद सिर के ऊपर से नहीं गुजरा था।

आज भी सत्ताबल की आंधी के बीच खड़े कुछ गर्वीले और निर्भीक चेहरे दिपदिपा रहे हैं, जिनके प्रभामंडल के सामने टीवी चैनल और अख़बार निस्तेज होते दिख रहे हैं।

मैंने कुछ साल पहले भारतीय हिन्दी पत्रकारिता के इस दौर के सबसे सजग लोगों में एक व्यक्ति के मुख से सुना था : अर्नब गोस्वामी वह शख़्स है, जिसकी पॉपुलेरिटी उसके अपने टीवी चैनल से कहीं अधिक है; लेकिन कुछ समय पहले रिया चक्रवर्ती प्रकरण के दौरान जिस तरह दीपिका पादुकोण की कार का पीछा करके रिपोर्टिंग हो रही थी और जिस तरह उनका सबसे वरिष्ठ और सम्मानित पत्रकार एयरपोर्ट से पीटूसी (या पीटीसी अ पीस टू कैमरा) कर रहा था, उस घटनाक्रम ने इस साहसी और सफलतम व्यक्ति के विचारों को बदल दिया था।

पत्रकारिता में सफलता अगर नैतिक बल खो दे तो वह पत्रकारिता नहीं, एक तरह का शिटस्टॉर्म ही है। उनकी रिपोर्टिंग का अंदाज़ सार्वजनिक जगहंसाई का विषय हो गया है; लेकिन क्या इससे किसी को जेल हो जानी चाहिए? नहीं न! लेकिन ये शिखर से ज़मीन पर आ गिरना तो है ही, नहीं?

लेकिन अगर 'बाज़ू-ए-क़ातिल दिल में है' तो मामला गड़बड़ है। साहब स्वयं कह चुके हैं : ''सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है, ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल दिल में है!!!"

मेरे लिए यह यकीन करना मुश्किल है कि किसी सत्ता प्रतिष्ठान और विचार प्रतिष्ठान के प्रभावशाली पीआर रूम को न्यूज़रूम या मीडिया माना जाए। भले वह रिपब्लिक का नाम लिए हो या डेमोक्रेटिक होने का लबादा ओढ़े हो। चाहे वह काांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी या बीजेपी आरएसएस या बसपा सपा किसी के लिए करे!

क्या आप नेशनल हेराल्ड, लोकलहर, पीपुल्स डेमोक्रेसी, पांचजन्य, ऑर्गेनाइजर या या या या ऐसे-ऐसे-कैसे-कैसे-जैसे-जैसों को आप अख़बार कहना पसंद करेंगे? ये सब अपने-अपने विचार, राजनीतिक आदि प्रतिष्ठानों के माउथपीस हैं। आप स्वयं परख सकते हैं कि जो पत्रकार आज किसी चैनल में प्रतिष्ठित है और कल किसी राजनीतिक दल में चला गया तो उसकी गर्वीली पत्रकारिता भी दो कौड़ी की हो गई! जैसे अरुण शौरी, एमजे अकबर या या या जैसे जैसे जो जो भी!

झंडेवालान में एक कार्यक्रम में आरएसएस के सम्मानित स्वयंसेवक मदनदास देवी ने कुछ साल पहले एक बातचीत के दौरान ऐसे ही किसी प्रसंग में कुछ साल पहले कहा था, "आटे में नमक चल सकता है, नमक में आटा नहीं!" समय बदला। अप्रत्याशित हुआ, सत्ता मिली और भाजपा के नेता काँग्रेस की उलीकी हुई राहों पर बहुत तेज दौड़ पड़े; लेकिन आप जानते हैं, कभी गर्वीली पत्रकारिता के लाड़ले रहे अर्नब इस दौर में नमक ही नमक की रोटियाँ बेले जा रहे थे। आटा तो वे शायद प्लेथन के लिए भी नहीं ले रहे थे!

स्वनामधन्य पत्रकार राम बहादुर राय को एक कार्यक्रम में बहुत वर्ष पहले सुना था। मेरी डायरी में उस दिन का उनका नोट है : "संतुलन! संतुलन बहुत ही ज़रूरी है। कांटे की तरह। एकदम। जैसे कस्तूरी तोल रहे हो। सोने की दुकान पर सोना भले 24 कैरेट का न मिलता हो; लेकिन खरे और सच्चे पत्रकार के यहां तो मिलना ही चाहिए।" लेकिन वे अब शायद अपनी बात को उसी तरह भूल गए हैं, जैसे चंद्रशेखर के साक्षात्कारों पर लिखी गई अपनी पुस्तक 'रहबरी के सवाल' की उस भूमिका को, जिसे शामिल करने का साहस राम बहादुर राय (वे मेरे लिए बहुत सम्मानित और प्रातःस्मरणीय हैं) की सात पुश्तों में कोई नहीं कर सकता!

उस भूमिका को आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या संघ परिवार का कोई नया रणबांकुरा पढ़ ले और यह पुस्तक राम बहादुर राय के बजाय सिद्धार्थ वरदराजन, राजदीप सरदेसाई, अरुण शौरी, अजीत अंजुम या किसी अन्य ने लिखी हो तो वे उनका घर घेर लें। आगजनी कर दें और तूफान मचा दें! ये पुस्तक उस दौर में छप गई, आज आई होती तो भूमिका वाले पन्ने शायद शामिल करने से पहले अरुण माहेश्वरी और सत्यानंद निरुपम को कई दिन सोचना पड़ता! ये पन्ने छप रहे होते तो इन दोनों महानुभावों को सोते में ही जाने कैसे कैसे ख़याल आ रहे होते! आप भी निश्चित ही सोच रहे होंगे, ...ला ये चंद्रशेखर के साक्षात्कारों की किताब में ऐसा क्या है? और वह भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय छपी साक्षात्कारों की पुस्तक में!

एक बुज़ुर्ग पत्रकार ने कई दशक पहले मुझे प्रसिद्ध लेखक कृश्न चंदर का उपन्यास 'एक गधे की आत्मकथा' दिया और इसके पेज नम्बर छह की पंक्तियाँ पढ़वाईं, 'मेरा दोष यह बताया कि मैं ईंटें कम ढोता था और समाचार-पत्र अधिक पढ़ता था और कहा : मुझे ईंटें ढोने वाला गधा चाहिए. समाचार-पत्र पढ़ने वाला गधा नहीं चाहिए।'

उन बुज़ुर्ग पत्रकार ने अपने गहरे अनुभव से कहा था कि सत्ता प्रतिष्ठानों को कैसे-कैसे गधे चाहिए और फिर इसके बदले में कैसी-कैसी बरसातें हुआ करती हैं! वॉच डॉग की भूमिका को भूल जाना और सत्ता प्रतिष्ठान के इर्द-गिर्द केसर ढोने वाला गधा हो जाना पत्रकारिता के पवित्र कर्म को लज्जित करना है, लेकिन ये लज्जा भी हमारी जमा पूंजी है, जिस पर हम गाहे-बगाहे गाल बजाते रहते हैं।

एक समय था जब भाजपा बियाबान में हुआ करती थी और आरएसएस को अर्नब गोस्वामी जैसे मीडिया के जाज्वल्यमान सितारे भारत के लिए ख़तरा समझा करते थे और हिन्दू हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी पर कांग्रेस के सत्ता प्रतिष्ठानों की बांकी मुस्कुराहटें बटोरने के लिए प्रश्नों की बौछार किया करते थे। उनके ऐसे प्रश्न सोशल मीडिया में वायरल होते ही रहते हैं।

लेकिन हम जितने भी मीडिया वाले हैं, आज जैसे सितमगर कभी नहीं रहे। हम कभी कमसिन भी हुआ करते थे। हम आत्मा से लेकर त्वचा तक पारदर्शी हुआ करते थे। उस समय कोई प्रभाष जोशी हुआ करता था और आरएसएस से प्रतिबद्ध होने के बावजूद राम बहादुर राय जैसा पत्रकार अपनी पुस्तक की भूमिका में यह अंकित करवाकर गर्वित हो सकता था, "अगर आप न्यायमूर्ति जगदीश शरण वर्मा जैसे संस्कारविहीन और गंवार हिन्दू न हों तो आपको समझने में देर नहीं लगेगी कि हिन्दुत्व एक अहिन्दू, अधार्मिक और अभारतीय राजनीतिक अवधारणा है, जिसे सावरकर ने पश्चिम यूरोप के नाज़ीवाद और फासीवाद से विकसित किया है। गोलवलकर ने हिटलर से प्रेरणा ली है... संघ लोकतंत्र को फालतू चीज़ मानता है, यह तथ्य तो देश सतत्तर साल से जानता है।" यह पंक्तियां देश के प्रतिष्ठित पत्रकार, आरएसएस के शलाका पुरुष और इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स की पुस्तक 'रहबरी के सवाल' की भूमिका के 12वें पृष्ठ पर हैं।

दरअसल, वह समय जैसा भी था; इस माटी के पत्रकारों की नसों में खून भले कम हो, लेकिन नीली स्याही झांका करती थी, जो राम बहादुर राय को अपनी भूमिका में प्रभाष जोशी की कलम से यह सब लिखवाकर गर्वानुभूति करवाता था, लेकिन आज मीडिया के लोग भले लकदक जीवन जी रहे हों, उनके फ्लैट भले सागरतटों की लहरों से आलिंगन करते हों या उन्हें प्रतिष्ठित पुरस्कार मिलते हों; लेकिन पत्रकारिता का चेहरा ज़र्द और रूह कोढ़ से ग्रस्त है!

पूरा मीडिया या राजनीतिक समाज भले आज अर्नब का कितना ही नाम लेता हो, प्रसन्न हो या चिंतित, उनकी गिरफ्तारी की प्रशंसा करता हो या निंदा; लेकिन मेरे ख़याल में सच्चे और खरे पत्रकार सदैव ही निष्पक्ष बने रहने की भरसक कोशिश करते हैं। सोशल मीडिया की अपनी पोस्ट तक में। अगर यह कोशिश नहीं है तो आप किसी दल विशेष या विचार प्रतिष्ठान विशेष के पीआर सेक्शन के हिस्से से अधिक कुछ नहीं हैं। आप चाहे पत्रकारिता की कितनी भी आड़ ले लें, आप पत्रकार, अख़बार या चैनल नहीं हैं। आप के नेशनल हेराल्ड और आज के रिपब्लिक हैं! आप पत्रकार नहीं, छद्म पत्रकार हैं!

यह कड़वा सच है कि आज की इस दुनिया में सच्ची पत्रकारिता उसी तरह यतीम कुत्ते की मानिंद है, जैसे न्यायपालिका में न्याय, जैसे अफरशाही में फैसले, जैसे धर्म के क्षेत्र में धार्मिकता और शिक्षा के क्षेत्र में अच्छी शिक्षा या किसी अस्पताल में समुचित इलाज। हमारे देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका से लेकर हर जगह अर्नब गोस्वामी हैं। हर जगह ठाकरे हैं. और हर स्थान पर उनके अन्वय नायक जैसे उनके पीड़ित हैं, और मारे-मारे फिरते परिजन हैं, जिनकी आवाज़ें मीडिया नहीं सुनता और अपराधियों के समर्थन में आवाज़ें चौतरफा गूंज रही हैं। हर जगह उनके दहकते-दहाड़ते चैनल हैं और किसी गरिमावान युवती की कार के पीछे भागते उनके ज़रख़रीद और विवेकहीन कारिंदे हैं, जिन्हें देखकर आज विवेकवान लोग हंसते हुए थकते नहीं हैं।

ब्राह्मणवादी नीतिवानों ने बहुत पहले एक नीतिकथा कही थी, जिसे शायद सुशांत सिंह राजपूत की आत्मा कहीं सुना रही होगी : मूर्ख हितकारक की तुलना में बुद्धिमान शत्रु कहीं अच्छा होता है! ये कहानी एक धूर्त राजा के दरबार में पल रहे मूर्ख बंदर को लेकर है, जिसे रक्षा दायित्व सौंप दिया गया था! इसका एक अंश विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र में भी लिखा है।

यह सब होना ही है; क्योंकि आजकल मीडिया के आदमी को सुकरात से अधिक सीताफल प्रिय है। वह ख़लील जिब्रान को ख़रबूजों का विक्रेता समझता है। उसे ट्रोट्स्की और तरबूज में फ़र्क़ नज़र नहीं आता। उनको क्या कहें, जो मुनाफ़ाख़ोरी के मार्ग के पथिक हैं, वह पतंजलि को ही ब्रांड बनाकर बेच रहे हैं। कपिल, कणाद और जैमिनी अब षड्दर्शन के ऋषि नहीं, बाज़ार के ब्रैंड हैं।

लेकिन यह वही देश है, जो भक्ति आंदोलन के गर्वीले संत पलटू को झोपड़ी में जिंदा जला देता है। नवजागरण के पुरोधा दयानंद सरस्वती को शीशा और ज़हर देकर मौत के घाट उतारता है। आज़ादी की लड़ाई के असाधारण नैतिक बल वाले गांधी की हत्या करता है और इनके अधम और विवेकहीन अनुयायी कालांतर में हत्यारों की विचारशैली के साथ जा खड़े होते हैं!

हो सकता है, अन्वय नायक नामक इंटीरियर डिज़ाइनर झूठा और फ़रेबी हो। उसकी माँ भी वैसी हो. हो सकता है, उसकी पत्नी और बेटी भी वैसी ही हों! हो सकता है, वे पीड़ित हों। सच्चे हों. कुछ भी हो सकता है। हम किसी के बारे में कुछ नहीं कह सकते। अदालत कह सकती है। अदालत में भी कुछ भी हो सकता है; लेकिन अगर शशि थरूर की पत्नी की मौत पर आप बिना किसी सुसाइड-नोट के शशि थरूर को आत्महत्या का दोषी बताने के लिए अभियान छेड़ देते रहे हैं तो अब आपको क्या करना चाहिए? उस नेता को अपने ऊपर लगाए जा रहे आधारहीन आरोपों को रुकवाने के लिए अदालत की शरण में जाना पड़ा।

रिया चक्रवर्ती का प्रकरण भी याद करें. तो आप भारतीय दर्शन को मानते हैं, उसमें भी लिखा है कि आत्मवत सर्वभूतेषु। आप जैसा दूसरों के साथ व्यवहार करते हैं, वही अपने साथ करें। अदालत आपके साथ न्याय करेगी। अदालत को सब पर भरोसा है। आप भी करें; लेकिन अगर आप ठाकरे के लिए अपनी अदालत लगाएंगे तो ठाकरे किसी और की अदालत में क्यों जाएं? वे तो पुश्तैनी अदालतें लगाते रहे हैं और आपने पहले कभी उनकी इन अदालतों का कोई बड़ा विरोध भी नहीं किया।

लेकिन अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का प्रकरण संस्कृत के 'सुंदोपसुन्द न्याय' का सुंदर और अनुपम उदाहरण है। (यहाँ न्याय शब्द इंसाफ़ वाला न्याय नहीं; बल्कि A head note of a desided case है।) इसका सरल सा अर्थ है : बराबर के दो शत्रु एक दूसरे को मार डालते हैं। जैसे सुन्द और उपसुन्द नाम के दो राक्षसों ने एक दूसरे को मार डाला था। वे दोनों तिलोत्तमा अप्सरा के लिए मर मिटे थे। इस मामले में तिलोत्तमा कौन है, बताने की आवश्यकता नहीं है! रूपसी तिलोत्तमा!

लेकिन हर युग में एक मात्स्य न्याय चलता है। एक बलवान स्टूडियो में बैठकर दहाड़ते हुए दूसरे को भक्षण कर डालने का भय दिखाता है तो दूसरा सांड की मुद्रा में फनफनाते बछड़े को विष कृमि न्याय की राह दिखाकर अपना काम करके मुस्कुराता है। पहले जब तक अर्नब और उनका चैनल उनके लिए अनुकूल थे, तब तक उनका अपराध क्षम्य था; लेकिन अगर गुनहगार अपना कृत्य भूलकर एहसानफरामोश होने लगे तो वही अपराध गुरुतर हो जाता है...? माननीय ठाकरे साहब को ये सफ़ाई देनी चाहिए कि जिज़ समय देवतुल्य देवेंद्र फडणवीस पत्रकारिता के सूर-शशि अर्नब को बचा रही थी तो सार्वजनिक रूप से इसकी आलोचना क्यों नहीं की?

अस्तु!

राजनेताओं की रिपोर्टिंग करना और बात है, मीडिया में होना अलग बात है। मीडिया की मंडी का सबसे ताक़तवर कारोबारी ये क्यों भूल जाता है कि सियासत के कौए की एक ही आँख होती है और वही दोनों तरफ फिरती रहती है! देखने वाला भ्रम में रहता है कि इसकी दो आँखें हैं! वस्तुतः अर्नब गोस्वामी और उनके प्रतिष्ठित पैरोकार इसी विभ्रम के शिकार हैं।

मुझे नहीं पता, अर्नब गोस्वामी कैसा चैनल चलाते हैं और हिन्दी के दूसरे लोग कैसा; लेकिन हर दिन जो लोग मिल रहे हैं, वे कह रहे हैं : आजकल शिटस्टॉर्म जनर्लिज़्म के अग्रदूत को प्रताड़ित किया जा रहा है. यह वाक़ई निंदनीय है।

वैसे इंटीरियर डिज़ाइनर परिवार की करुण पुकार न्यायालय से पहले स्वयं रिपब्लिक को सुननी चाहिए थी। इस परिवार की पीड़ा को सर्वोच्च प्राथमिकता से सुनना चाहिए, न कि इस परिवार की महिलाओं के प्रति अशोभनीय दुष्प्रचार करना चाहिए। जैसा कि अर्नब समर्थक और कई सम्मानित समझे जाने वाले पत्रकार भी जाने किस विवशता में कर रहे हैं!

और पुलिस गिरफ़्तार करने आये तो ससम्मान और गर्व से गिरफ़्तार होना चाहिए। पत्रकार अगर हो और सच्चे हो तो भय कैसा? बल्कि जमानत की अर्जी भी न लगानी चाहिए; लेकिन रिपब्लिक के महानायक ने तो एक बूढ़ी सुहागरात की क़ानूनदां ख़ुमारी को अदालत में लाकर बेनूर कर दिया।

वैसे हम पत्रकार वॉच डॉग (नॉन-जर्नलिस्ट निःसंकोच कह सकते हैं : होते तो डॉग ही हैं) भी कहलाते हैं, लेकिन फ़ैज़ ने 'कुत्ते' नज़्म में क्या ख़ूब लिखा है :

ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें।

ये आक़ाओं की हड्डियां तक चबा लें।

कोई इनको एहसासे-ज़िल्लत दिला दे

कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे!

और अंत में :

सत्य के लिए कभी किसी से नहीं डरना। गुरु से भी नहीं। मंत्र से भी नहीं। लोक से भी नहीं। वेद से भी नहीं। (इसमें ये भी जोड़ लें : और ठाकरे से भी नहीं, मोदी से भी नहीं, राहुल-सोनिया से भी नहीं! मारते हो तो मार दो! ट्रॉल करते हो तो करो! सेक्स स्कैंडल लाते हो तो लाओ! वॉट्सऐप या मैसेंजर चैट वायरल करते हो तो करो, देशद्रोही कहते हो तो कहो! पीटते हो तो पीटो! बुलडोज़र लाकर घर ढहाते हो तो ढाओ!!!)- हजारी प्रसाद द्विवेदी, "बाणभट्ट की आत्मकथा" में...

(वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन दैनिक भास्कर उदयपुर में संपादक हैं, उनकी यह टिप्पणी उनके एफबी से।)

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