समाज में धर्म प्रचारकों की बढ़ती कट्टरता के साथ ही बढ़ रही है नास्तिकों की राजनीतिक सक्रियता
समाज में धर्म प्रचारकों की बढ़ती कट्टरता के साथ ही बढ़ रही है नास्तिकों की राजनीतिक सक्रियता
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Atheist and agnostic people are more politically active. अमेरिका में वर्ष 2020 के चुनावों पर डोनाल्ड ट्रम्प और उनके समर्थक कितने भी प्रश्नचिह्न लगाएं, पर इन चुनावों से जुड़े एक तथ्य – सभी राज्यों में मतदाताओं की रिकॉर्ड संख्या – पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता। पिउ रिसर्च सेंटर के आकलन के अनुसार वर्ष 2020 के चुनावों में 15.8 करोड़ मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया – यह संख्या वर्ष 2016 की तुलना में 2.2 करोड़ अधिक है।
अनुमान है कि इस वर्ष दिसम्बर में अमेरिका में होने वाले मध्यावधी चुनावों में भी कुछ ऐसी ही स्थिति रहेगी। मतदाताओं की रिकॉर्ड संख्या के बारे में बहुत सारे कारण बताये गए हैं पर कुछ सामाजिक और राजनैतिक विश्लेषक इसका मुख्य कारण अमेरिका में नास्तिकों और धर्म से उदासीन लोगों की बढ़ती संख्या बताते हैं। इन विश्लेषकों के अनुसार नास्तिक और धर्म से उदासीन आबादी राजनीति में अधिक सक्रिय हो चली है।
वर्ष 2008 में अमेरिका की कुल आबादी में से नास्तिकों की संख्या 8 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2020 तक बढ़कर 12 प्रतिशत पहुँच गयी। धर्म से उदासीन आबादी का आकलन कठिन है, पर इनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है। नास्तिक और धर्म से उदासीन अधिकतर लोग वामपंथ का समर्थन करते हैं और ऐसे राजनीतिक दलों से जुड़े होते हैं जो अपेक्षाकृत अधिक धर्म-निरपेक्ष होते हैं। वर्ष 2008 में अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी में 3 प्रतिशत नास्तिक थे, जिनकी संख्या बढ़कर अब 4 प्रतिशत तक पहुँच गयी है।
दूसरी तरफ अपेक्षाकृत अधिक धर्मनिरपेक्ष दल डेमोक्रेटिक पार्टी में 20 प्रतिशत से अधिक नास्तिक हैं, यह संख्या वर्ष 2008 की तुलना में 8 प्रतिशत अधिक है। अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी जितना अधिक धर्म का ताना-बाना बुनती है और धार्मिक कट्टरता का प्रचार करती है, नास्तिकों की संख्या उतनी तेजी से बढ़ती है। पिउ रिसर्च सेंटर का आकलन है कि वर्ष 2070 तक अमेरिका में क्रिश्चियन आबादी से अधिक नास्तिकों की संख्या होगी, और यदि ऐसा हुआ तो निश्चित तौर पर अमेरिका में क्रिश्चियन आबादी अल्पमत में होगी।
समाज के धार्मिक पटल पर सार्वजनिक तौर पर धर्म प्रचारकों की कट्टरता बढ़ती जा रही है, इसके साथ ही नास्तिकों की राजनीतिक सक्रियता भी बढ़ती जा रही है। वर्ष 2020 के चुनावों के पहले सभी राजनैतिक सभाओं में से महज 8 प्रतिशत सभा में धर्म प्रचारकों की भागीदारी थी, जबकि 21 प्रतिशत से अधिक सभाओं में नास्तिकों की सक्रिय भागीदारी थी।
कुल 21 प्रतिशत धर्म प्रचारकों ने अपने वाहनों या निजी प्रॉपर्टी से राजनीतिक प्रचार किये, जबकि 27 प्रतिशत नास्तिकों ने ऐसा किया। धर्म प्रचारक कुल 5 प्रतिशत राजनीतिक रैलियों में शरीक हुए, जबकि नास्तिकों ने ऐसा 34 प्रतिशत रैलियों में किया। लगभग सभी नास्तिकों ने राजनैतिक चंदा दिया, जबकि धर्म प्रचारकों में यह संख्या महज 25 प्रतिशत ही थी।
हाल में ही प्रकाशित एक पुस्तक में बताया गया है कि हमारे देश का प्रजातंत्र धार्मिक प्रजातंत्र हो चला है, जिसमें एक धर्म के अधिकतर कट्टर समर्थक प्रजातंत्र के साथ निरंकुश शासन के आनंद में डूबे हैं तो दूसरी तरफ अन्य धर्मों के लोग और अल्पसंख्यक अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक बन कर रह गए हैं। हमारे देश में धर्म का आडम्बर राजनीतिक और उन्मादी समूह का नारा बन गया है, और सारा का सारा विकास एक मंदिर में सिमट कर रह गया है। एक ही नारा देश की संसद से लेकर हत्यारों की जुबान पर गूंजता है – जाहिर है हत्यारे कौन हैं, यह पता लगाना कठिन नहीं है।
इन सबके बीच एक सामाजिक तथ्य तह भी है कि जब धार्मिक कट्टरता प्रबल होती है, तब धर्म से विमुख होने वालों की संख्या तेजी से बढ़ती है। ऐसा हमारे देश में भी हो रहा है और पूरी दुनिया में भी। हमारे देश का संविधान, जिसपर प्रधानमंत्री जी अनेक बार मत्था टेक चुके हैं, स्पष्ट शब्दों में धर्मनिरपेक्षता की वकालत करता है और न्यायालयों में माने न्यायाधीशों में अलग-अलग मामलों में भी इसे स्पष्ट शब्दों में बताया है।
मद्रास उच्च न्यायालय ने इसी वर्ष 10 अगस्त 2021 को अपने एक फैसले में कहा था कि कोई भी धर्म मस्तिष्क को इतना संकुचित नहीं करता कि हम दूसरे धर्मों पर प्रहार करने लगें। जाहिर है दूसरे धर्मों पर प्रहार का हमारे अपने धर्म से कोई वास्ता नहीं होता। इससे पहले भी इसी वर्ष 6 फरवरी को एक आदेश में मद्रास उच्च न्यायालय में कहा था कि, दूसरे धर्मों के प्रति जहर उगलना और किसी विशेष धर्म का नारा लगाते हुए दूसरे धर्म के लोगों पर हिंसा और घृणा भड़काना धर्म के वास्तविक उद्येश्य को ही ख़त्म कर देता है।
आदेश में आगे कहा गया था, आप चीख-चीख कर कहिये की हमारे समाज का बंटाधार पहले भी धार्मिक उन्माद के कारण हुआ था और इस समय फिर से हो रहा है। यह विचारधारा हमेशा घृणा, हिंसा, एक-दूसरे का लहू बहाने और आपसी कडवाहट को बढाने का काम करती है।
हम आस्तिक हो या नास्तिक, यह आजादी तो हमारा संविधान भी देता है – यह टिप्पणी मद्रास उच्च न्यायालय ने 6 सितम्बर 2019 को एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान की थी। इसी याचिका की सुनवाई के दौरान याचिका को निरस्त करते हुए न्यायाधीश एस मणिकुमार और सुब्रमोनियम प्रसाद की खंडपीठ ने याचिकाकर्ता से कहा था कि, संविधान के जिस अनुच्छेद 19 के तहत आपको अपने ईश्वर को मानने का अधिकार है, उसी के तहत दूसरे लोगों को भी अपने ईश्वर को मानने का या ईश्वर को ना मानने का अधिकार है।
इस याचिका को चेन्नई उच्च न्यायालय में एम दिवानारयागम नामक व्यक्ति ने दायर किया था, जिसके तहत कहा गया था कि त्रिची में पेरियार की मूर्ति के ठीक बगल में एक शिलालेख को हटा दिया जाए। इस शिलालेख पर लिखा है, "कोई ईश्वर नहीं है, ईश्वर नहीं है। वास्तव में ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है और मूर्खों ने ईश्वर का आविष्कार किया है। ईश्वर से सम्बंधित प्रवचन देने वाले दुष्ट हैं और जो ईश्वर की आराधना करता है वह सामाजिक नहीं है"। याचिका में कहा गया था कि थनथाई पेरियार की मूर्ति के नीचे लिखा यह शिलालेख पेरियार के दर्शन से अलग है, क्योंकि वे समाज-सुधारक थे और नास्तिक नहीं।
इस याचिका को खारिज करने के साथ ही खंडपीठ ने अपने आदेश में कहा कि, याचिकाकर्ता को पेरियार के विचार और दर्शन को समग्र तौर पर पढ़ने की जरूरत है। पेरियार के अनुसार धर्म और ईश्वर के प्रति विश्वास ही समाज में असमानता का सबसे बड़ा कारण है। पेरियार का दर्शन आत्मसम्मान को समर्पित था और वे सामाजिक बदलाव के रास्ते में जाति और वर्णव्यवस्था और ईश्वर को अड़चन मानते थे। थनथाई पेरियार घोषित तौर पर नास्तिक थे।
पेरियार की जिस मूर्ति पर चर्चा की जा रही थी, उस मूर्ति को उनके जीवनकाल में ही स्थापित किया गया था और उस समारोह में स्वयं पेरियार भी मौजूद थे। इस शिलालेख को स्थापित करने का सुझाव भी उन्होंने ही दिया था, क्योंकि उन्हें अहसास था कि उनकी मृत्यु के बाद लोग उनकी मूर्ति को ही भगवान् समझ कर पूजना शुरू कर देंगे। खंडपीठ ने कहा कि किसी के विचार पर और उसके दर्शन पर कोई अंकुश नहीं लगाया जा सकता है, और देश का संविधान इस विषय पर बिलकुल स्पष्ट है।
हमारे देश में वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 30 लाख व्यक्ति घोषित तौर पर नास्तिक थे, और यह संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है – संभव है अगले जनगणना से इसे हटा दिया जाए। पूरे दुनियाभर में ऐसे ही हालात है और लोग अपने धर्म से और धर्म के साथ ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।। चीन में लगभग आधी आबादी किसी धर्म को नहीं मानती, जबकि अमेरिका में 10 प्रतिशत से अधिक आबादी इसी विचारधारा के साथ है। जापान, चेक गणराज्य, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और आइसलैंड में भी बड़ी आबादी नास्तिक है। दुनिया में नास्तिकों की बढ़ती आबादी देखकर अब कहा जाने लगा है – दुनिया का सबसे नया धर्म, कोई धर्म नहीं यानी नास्तिकता।
ह्यूमनिस्ट्स इंटरनेशनल की तरफ से पिछले वर्ष प्रकाशित एक रिपोर्ट, ह्युमनिस्ट्स ऐट रिस्क – एक्शन रिपोर्ट 2020, के अनुसार दुनियाभर में नास्तिकों और मानवतावादी लोगों पर उनकी स्वतंत्र सोच और विचारों के कारण खतरा बढ़ता जा रहा है। यह खतरा बहुसंख्यकों की हिमायती सरकारों से भी है और सरकारों द्वारा प्रायोजित भीड़ तंत्र द्वारा हिंसा से भी है। इस रिपोर्ट में आठ देशों – कोलंबिया, भारत, इंडोनेशिया, मलेशिया, नाइजीरिया, पाकिस्तान, फिलीपींस और श्री लंका की स्थिति का विस्तार से वर्णन है।
इसमें बताया गया है कि नास्तिकों और मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण इन लोगों का बहिष्कार किया जाता है, और तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें भी इसे बढ़ावा देतीं हैं। केवल बहुसंख्यकों के धर्म की उपेक्षा, मानवाधिकार की आवाज बुलंद करने, लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ बोलने के कारण नास्तिकों और मानवतावादियों को निशाना बनाया जाता है, उनपर हमले कराये जाते हैं और फिर तरह तरह के कानूनों की दुहाई देकर इन्हें सजा दी जाती है।
भारत के बारे में इस रिपोर्ट में कहा गया है कि "भारत सबसे अधिक आबादी वाला लोकतंत्र है, यहाँ धर्म की विविधता है और हाल के वर्षों तक संविधान द्वारा प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता पर सबको गर्व था। भारत में संविधान, क़ानून और राजनैतिक माहौल, विचारों की स्वतंत्रता, धर्म और विवेक का अधिकार देते हैं, और अभिव्यक्ति और समूह निर्माण की स्वतंत्रता भी। पर, कुछ क़ानून और वर्तमान का राजनैतिक माहौल इस आजादी पर अंकुश लगा रहे हैं। यहाँ धार्मिक समूहों के बीच आपसी झड़प और धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा सामान्य हो चला है। नागरिकता (संशोधन) क़ानून लागू होने के बाद से ऐसी हिंसक झड़पें सामान्य हो चलीं हैं और इसमें प्रताड़ित होने वाले या फिर सजा पाने वाले केवल अल्पसंख्यक ही होते हैं। इस क़ानून के तहत मुस्लिमों, नास्तिकों और मानवतावादी प्रवासियों को छोड़कर अन्य सभी शरणार्थी जो पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से आये हैं उनको नागरिकता देने का प्रावधान है।"
"इस क़ानून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की तरफ एक बड़े कदम के तौर पर देखा जा रहा है। भारत में तर्कवाद का इतिहास बहुत पुराना है, पर आज के दौर में तर्कवाद मिट गया है और इसकी जगह आँख बंद कर सरकारी समर्थन हावी हो चला है। वर्ष 2012 के ग्लोबल इंडेक्स ऑफ़ रिलिजन एंड एथिस्म के अनुसार भारत में 81 प्रतिशत आबादी कट्टर धार्मिक है, 13 प्रतिशत नाममात्र के धार्मिक हैं, 3 प्रतिशत घोषित नास्तिक हैं और शेष 3 प्रतिशत आबादी धर्म के प्रति उदासीन है। अब तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की धर्म-निरपेक्षता का सम्मान पूरी दुनिया करती थी, पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने के बाद से सरकार, कार्यपालिका और कुछ हद तक न्यायपालिका तक हिन्दू राष्ट्र की राजनीति करने लगे हैं। सरकारों द्वारा कथित हन्दू राष्ट्रवादी ताकतों को बढ़ावा देने के कारण अल्प्संख्यक खतरे में हैं और इसके साथ ही बगैर धर्म की विचारधारा और मानवतावादी दृष्टिकोण खतरे में है।"
"इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 295 की धारा जो ईशनिंदा से सम्बंधित है, का उपयोग व्यापक तरीके से किया जाने लगा है। वैसे तो यह क़ानून किसी भी धर्म के तिरस्कार से सम्बंधित है, पर अब इसे केवल एक धर्म से ही जोड़ा जाने लगा है। गाय सुरक्षा क़ानून भी एक तरह से ईशनिंदा से सम्बंधित है क्योंकि गाय को पवित्र बताया जाता है। अब इस सुरक्षा क़ानून का मनमाना दुरुपयोग किया जाने लगा है।"
"वर्ष 2013 से 2015 के बीच तीन प्रमुख बुद्धिजीवियों की ह्त्या सरेआम इसलिए कर दी गई क्योंकि वे अंधविश्वास और हिन्दू राष्ट्र की अवधारण के खिलाफ थे। हरेक मामले में सम्बंधित सरकारों ने तुरंत न्याय दिलाने की बात की, पर ह्त्या में हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों की भागीदारी सामने आने पर, हरेक मामले में भरपूर लीपापोती की गई।"
"वर्ष 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा था, विद्यार्थियों को यह पढ़ाया जाए कि हरेक धर्म की मूलभूत बातें एक ही हैं और जो अंतर दिखता है वह केवल तरीकों में है। यदि कुछ क्षेत्रों में मतभेद हैं भी तब भी भाईचारा बनाए रखने की जरूरत है और किसी भी धर्म के प्रति दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। पर, सरकारें इसका ठीक उल्टा कर रही हैं। अल्पसंख्यकों का दर्जा प्राप्त क्रिश्चियन और मुस्लिम स्कूलों के समक्ष हिन्दू स्कूल खड़ा कर रही हैं। पाठ्यपुस्तकों में धर्मनिरपेक्षता की पारंपरिक अवधारणा को बदलकर अब हिन्दू धर्म का प्रचार किया जाने लगा है। यही नहीं, अब तो अनेक संस्थानों, विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाया जाने लगा है।"
"अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान देता है और पिछले कुछ वर्षों के दौरान प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बेतहाशा बृद्धि दर्ज की गई है। पर, अब निष्पक्ष पत्रकारों को नए खतरे झेलने पड़ रहे हैं। निष्पक्ष पत्रकारों के विरुद्ध सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद, अपराध और हेट स्पीच से सम्बंधित कानूनों का सहारा ले रहीं हैं, और यहाँ तक कि न्यायालयों की अवहेलना का भी अभियोग लगा रहीं हैं। सितम्बर 2017 में बेंगलुरु में हिन्दू आतंकवाद और राष्ट्रवाद पर मुखर पत्रकार गौरी लंकेश की ह्त्या कर दी गई। स्पेशल इन्वेस्टिगेटिंग टीम ने 9235 पृष्ठों की रिपोर्ट तैयार तो की, जिसमें हिन्दू अतिवादी और सरकार के करीबी संगठनों से जुड़े अनेक बयान दर्ज हैं, जिन्होंने आगे के लिए अनेक बुद्धिजीवियों की ह्त्या तय की थी, पर सभी आज तक क़ानून के दायरे से बाहर हैं।"
"सरकारों ने इन्टरनेट की सुविधा बंद कर आन्दोलनों को दबाने का एक नया तरीका इजाद कर लिया है। संविधान के विरुद्ध जाकर और धर्म-निरपेक्ष मूल्यों को ताक पर रखकर सरकार ने नागरिकता (सन्शोधन) क़ानून को लागू कर दिया। इसके बाद बड़े पैमाने पर विद्यार्थियों, बुद्धिजीवियों और अल्पसंख्यकों ने आन्दोलन शुरू किया। इस आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने बार-बार इन्टरनेट बंदी का सहारा लिया, जबकि इन्टरनेट सुविधा को सर्वोच्च न्यायालय ने जनता का मौलिक अधिकार घोषित किया है।"
"वर्ष 2014 से सत्ता पर काबिज बीजेपी स्वतंत्र भारत के पूरे इतिहास में सर्वाधिक बुद्धिजीवी विरोधी सरकार है। यह हरेक उस व्यक्ति या संस्था को निशाना बना रही है, जो एक्टिविस्ट है, सिविल सोसाइटी से जुड़ा है, मानवाधिकार की बात करता है, स्वतंत्र और निष्पक्ष विचारधारा का है, या फिर हिन्दुवों के विरुद्ध बात करता है। अल्पसंख्यक अधिकार कार्यकर्ता, आदिवासी और धर्म के आडम्बर के विरुद्ध व्यक्तियों पर केवल सरकार प्रहार ही नहीं करती बल्कि उनकी ह्त्या करने वालों का समर्थन भी करती है, और उन्हें क़ानून के शिकंजे से बचाती भी है। इस सन्दर्भ में आज के भारत की स्थिति पाकिस्तान जैसी ही है। यदि आप स्वतंत्र विचारधारा के हैं, धर्मों के बंधन से नहीं बंधाते तब सरकारी कानूनों, पुलिसिया जुर्म के साथ साथ हिन्दू गुंडों से भी आपको जूझना पड़ेगा।"
इस रिपोर्ट में भारत के कुछ बुद्धिजीवियों के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है। ये हैं, नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पनसरे, एम एम कलबुर्गी और एच फारुख। इस रिपोर्ट में भारत के लिए कुछ सुझाव भी हैं –
• इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 295 समेत वे सभी क़ानून जो ईशनिंदा को अपराध करार देते हैं, को हटा देना चाहिए;
• नागरिकता (संशोधन) क़ानून 2019 में बदलाव कर गैर-धार्मिक, मानवतावादी और नास्तिकों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए;
• भारत सरकार को अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास और समूहों के गठन पर आजादी का सम्मान करना चाहिए;
• विद्यालयों में धर्म-निरपेक्षता पर विस्तृत पाठ शामिल किया जाना चाहिए;
• सरकार द्वारा सिविल सोसाइटीज और मानवाधिकार संगठनों के विरुद्ध फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट 2010 का एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल बंद करना चाहिए;
• मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की हत्या या उनसे मारपीट से सम्बंधित मामलों का शीघ्र निपटारा किया जाना चाहिए, और यह सुनिश्चित किया जाना चाहए कि सभी दोषियों को सजा मिले, उन्हें भी जो हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों से जुड़े हैं; और,
• सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सरकार या इसे जुड़े संगठनों या व्यक्तियों द्वारा लगातार दिए जाने वाले हेट स्पीच की कड़े शब्दों में भर्त्सना की जाए, और ऐसा करने वालों पर उचित कार्यवाही हो।
जाहिर है, धर्म-निरपेक्षता को हमारी सरकारें पूरी तरह भूल चुकी हैं। अब हम जिस न्यू इंडिया में रहते हैं वह पूरी तरह से बदल चुका है। यहाँ मानवाधिकार की बात करने पर आप देशद्रोही बन जाते हैं, अर्बन नक्सल करार दिए जाते हैं या फिर टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्य बना दिए जाते हैं, और ह्त्या करने वाले या फिर इसकी धमकी देने वाले विधायक और सांसद बन जाते हैं। कहा जाता है ईश्वर सत्य है, पर सत्य को ईश्वर हमारी सरकार ही नहीं मानती।