"शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ" एक किताब, जो बच्चों का भविष्य बना देगी
Book Review : "शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ" एक किताब, जो बच्चों का भविष्य बना देगी
Book Review : आज देश में बेरोजगारी दर बढ़ते ही जा रही है। इसे देख आपको लगता नही कि इसका कारण कहीं न कहीं बच्चों पर जबरदस्ती गृहकार्य और अंग्रेजी लादी हुई हमारी यह प्रौढ़ हो चुकी शिक्षा व्यवस्था है। एक ही ढर्रे पर चलती जा रही शिक्षा व्यवस्था, विद्यार्थियों को विभिन्न अवसर प्रदान करने में अक्षम है। हमारी शिक्षा व्यवस्था डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, चार्टर्ड अकाउंटेंट, शिक्षक तैयार करने तक ही सीमित रह गई है। बच्चों को चित्रकार, कलाकार, कथाकार, कलमकार, किसान, प्लम्बर, मैकेनिक, खिलाड़ी बनाने के बारे हम सोचते तक नही। देश अब सरकारी और प्राइवेट स्कूल वाले बच्चों के रूप में दो भागों में बंट रहा है। हम सरकारी स्कूलों को समस्या के तौर पर देखने लगे हैं पर सरकारी शिक्षकों की समस्याएं हमें नही दिखती। चर्चित उपन्यास 'फिर वही सवाल' के लेखक दिनेश कर्नाटक शिक्षा में बदलावों की इन्हीं चुनौतियों पर बात करने के लिए अपनी नई किताब 'शिक्षा में बदलाव की चुनौतियां' लेकर हमारे सामने आए हैं।
बड़ा ही प्रभावी है किताब का आवरण चित्र
काव्यांश प्रकाशन से छपकर आई इस किताब का आवरण चित्र डॉ मनोज रांगड़ और विनोद उप्रेती द्वारा तैयार किया गया है। खिड़की के अंदर से बाहर झांकते बच्चे के इस चित्र में हमें बच्चों द्वारा अपने भविष्य को लेकर संजोयी गई बहुत सी उम्मीदें दिखती हैं। पिछला आवरण चित्र बच्चों के लिए 'कुछ कर के सीखना' सन्देश देता महसूस होता है। अनुक्रम से मालूम चलता है कि यह किताब शिक्षा के सवालों पर आधारित 29 लेखों का संग्रह है। लेखों के अलग-अलग विषय पर केंद्रित होने की वजह से आप किताब का जो पन्ना खोल कर पढ़ते हैं, उसी में रम जाते हैं।
किताब के लिए लेखक ने अपना पूरा शिक्षकीय अनुभव लुटा दिया है
पहले लेख 'शिक्षा के स्वरूप का सवाल था जे. कृष्णमूर्ति' के जरिए लेखक ने हमारे देश में शिक्षा के स्वरूप पर चर्चा छेड़ी है। लेख की भाषा सरल है और जे. कृष्णमूर्ति के विचार पढ़ने के बाद हम काफी हद तक यह समझने में सफल हो जाते हैं कि आज बच्चों में सृजनशीलता की भावना को प्रेरित किया जाना आवश्यक है। 'क्या हम अपने विद्यार्थियों को जानते हैं' लेख में लेखक ने बड़ी ही खूबसूरती से बैंकों और 'प्रथम' संस्था से मिली सीख को विद्यार्थियों पर आजमाने की सलाह दी है। लेखक अपने शिक्षकीय अनुभव के बारे में बताते हैं जो बड़ा ही रोचक लगता है। इस लेख में लेखक ने अपने विद्यार्थियों के बारे में जो आंकड़े जुटाए हैं, वैसे आंकड़े शायद ही बहुत अधिक शिक्षक जुटाने की जहमत उठाते हों।
देश की मौजूदा परिस्थितियों को समझने के लिए यह लेख पढ़ा जाना बेहद जरूरी है। इसकी कुछ पंक्तियां- 'जहां 9वीं कक्षा तक सभी बच्चे आपस में घुल मिलकर रहते थे। वहीं 10वीं में मुस्लिम बच्चे एक साथ बैठने लगते थे'। 'अर्थात 39 बच्चे ऐसी बदतर स्थितियों में रह रहे थे जिनके रहते पढ़ाई में ध्यान देने की बात करना उनके साथ नाइंसाफी होगी'। लेख के अंत में लेखक साल 1932 में गिजूभाई द्वारा किए गए प्रयोगों को भी याद करते हैं।
देश में दो तरह की दुनियाओं का निर्माण हो रहा है
अगले लेख में लेखक ने अपने स्कूली दिनों और आज के दिनों में पब्लिक स्कूलों और सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के बारे में लिखा है। इनके बच्चों के बीच बढ़ रहे अंतर को हम 'इससे देश में दो तरह की दुनियाओं का निर्माण हो रहा है। उस अनिवार्य संघर्ष की पृष्ठभूमि बनती जा रही है, जिससे हम देश के कई हिस्सों में जूझ रहे हैं.' पंक्ति से समझ सकते हैं। 'जानने और समझने की चुनौती' लेख में लेखक एम्स, आईआईटी का हवाला देते हुए लिखते हैं कि 'हमारे देश में जिन सेवाओ को हमारे हुक्मरान जिम्मेदारी से चलाना चाहते हैं, वे पूरी मुस्तैदी से चल रही हैं और अच्छा काम कर रही हैं'। जब तक पाठक इसे समझते हैं तब तक सरकारी स्कूलों में स्कूल बस की व्यवस्था वाला प्रश्न पाठकों के सामने शिक्षा व्यवस्था का पूरा चेहरा ही बेनकाब करता दिखता है। साथ ही साथ लेखक ने स्कूलों में अंग्रेज़ी पढ़ाए जाने पर भी कुछ महत्वपूर्ण लोगों के कथनों के सहारे अपने विचार व्यक्त किए हैं।
किताब पढ़ते अब आपके मन में यह विचार जरूर आने लगेगा कि स्कूलों में अपना जीवन रमा देने वाले लेखक जैसे शिक्षकों से ही अगर शिक्षा व्यवस्था की नीतियां बनवानी शुरू कर दी जाएं तो देश के स्कूलों की हालत बदलते देर नही लगेगी।
किताब में शिक्षा से जुड़े हम महत्वपूर्ण विचार शामिल हैं
इस किताब में लेखक ने शिक्षा से जुड़े लगभग सभी महत्वपूर्ण विषय सम्मिलित कर लिए हैं, अगला लेख ट्युशन पर है। इसकी शुरुआती पंक्तियां ही एक ऐसा सच हमारे सामने ले आती हैं, जिससे परिचित होने के बाद भी आमजन कुछ नही करता। 'देखते ही देखते हमारे देश में बच्चों को पढ़ाना एक महंगा काम बन गया है। जिस रकम से आम लोग अपने जीवन को बेहतर बना सकते थे ,उसे 'शिक्षा के व्यापारी' बड़ी धूर्तता से उनसे छीन ले रहे हैं'।
किताब की हर पंक्ति बड़ी महत्वपूर्ण है और शिक्षा को लेकर आंख खोलने वाले विचार हमारे सामने रखती रहती है। 'बच्चे इसलिए नहीं पढ़ते क्योंकि उन्हें अपने मां-बाप पढ़ते हुए नहीं दिखाई देते' इसका प्रमाण है। पृष्ठ 64 और किताब में कई अन्य जगह भी लेखक ने सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की समस्या लिखी हैं, जिन्हें समझना बेहद जरूरी है। 'उन दिनों घर में किताबों की तादाद बढ़ने पर सिर्फ किताबों की वजह से छत पर एक कमरा बनवाया ताकि वे वहां सुरक्षित रहें' पंक्ति लेखक के किताबों के प्रति शौक को दर्शाने के साथ, पाठकों के मन में भी किताबों के प्रति रुचि को जगाती है। लेखक किताब में शिक्षा के सुधार पर कई बार राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 का हवाला देते हैं।
शिक्षक बच्चों की पिटाई क्यों करते हैं
लेखों को आगे पढ़ते, मनुष्य मारपीट क्यों करता है! जैसे प्रश्न का जवाब बड़ा ही स्पष्ट दिखाई देता है। 'एक ऐसा तैयार जवाब जिसके लिए न तो दिमाग पर जोर देने की जरूरत होती है, न किसी तरह का उपाय करने की'। इस जवाब को शिक्षक द्वारा बच्चों की पिटाई से जोड़कर लेखक बच्चों की पिटाई पर पाठकों को एक शिक्षक की मानसिकता समझाने में कामयाब रहे हैं।
प्राइवेट स्कूलों का जाल हो या अंग्रेजी की विवशता, किताब सब समझाती है
'अगर देशभर के प्राइवेट स्कूलों द्वारा अभिभावकों से ली गई फीस के औचित्य की जांच की जाए तो या देश का सबसे बड़ा घोटाला या संगठित लूट होगी' पंक्ति से लेखक ने इस विषय की गम्भीरता की तरफ इशारा किया है। स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था को मेट्रो को तरह मजबूत करने का उदाहरण पढ़ने में नया और प्रभावी जान पड़ता है। अंग्रेजी थोपने को लेकर किताब के एक लेख में लिखी पंक्ति 'हकीकत तो यह है भाषा व्यवहार तथा जरूरत से सीखी जाती है. हमारे पर्यटन केंद्रों के अनपढ़ गाइड तथा वेटर इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं'। अंग्रेजी थोपने के हिमायती लोगों की आंखें खोल सकती हैं। किताब शिक्षा के क्षेत्र की हर समस्याओं, चुनौतियों से पाठकों को अवगत कराने में कामयाब रही है।
किताब में लिखे सुझाव बच्चों का भविष्य बना सकते हैं
जैसे फिल्मों में एक न एक सीन बहुत जबरदस्त होता है, ठीक वैसा ही इस किताब के अंतिम भाग 'शिक्षा प्रश्नोत्तरी' से पहले का लेख "शिक्षा पर 'प्रथम' की चौंकाने वाली रिपोर्ट" भी है। इस लेख को पढ़ आप शिक्षा क्षेत्र में चल रहे 'खेल' को समझने लगेंगे। एनसीआरटी के हालिया सर्वे में एक बात सामने आई है कि स्कूली छात्रों में चिंता का मुख्य कारण परीक्षाएं और परिणाम हैं। यदि किताब ध्यान से पढ़ी जाए और इसमें लिखे सुझावों को स्कूली शिक्षा में लागू किया जाए तो हम स्कूली छात्रों का बचपन और भविष्य खराब करने के दोषी बनने से बच सकते हैं।