गांधी ने 75 साल पहले फिलीस्तीन-इजराइल युद्ध पर जो कहा, आज वही हो रहा है सच साबित
गांधी ने 75 साल पहले फिलीस्तीन-इजराइल युद्ध पर जो कहा, आज वही हो रहा है सच साबित
यहूदी और फिलिस्तीन पर महात्मा गांधी के विचार
Israel Hamas War : वर्ष 1946 के मध्य में गांधी अपने प्रिय आरामगाह पंचगनी पहुंचे तो 14 जुलाई 1946 को 'यहूदी और फिलिस्तीन' शीर्षक से संपादकीय लिखा: “यहूदियों और अरबों के बीच के विवाद पर सार्वजनिक तौर पर कुछ कहने से अब तक में बचता रहा हूं, और इसके कारण हैं. कारण यह नहीं है कि मेरी इस मामले में दिलचस्पी नहीं है बल्कि कारण यह है कि मुझे लगता रहा है कि इस बारे में मेरी जानकारी पर्याप्त नहीं है. ऐसे ही कारण से मैं कई अंतरराष्ट्रीय सवालों पर अपनी बात कहने से बचता हूं. वैसे ही मेरे पास जान जलाने को कुछ कम तो है नहीं! लेकिन एक अखबार में छपी चार पंक्तियों की खबर ने मुझे अपनी चुप्पी तोड़ने पर मजबूर कर दिया और वह भी तब जब एक मित्र ने उसकी तरफ मेरा ध्यान खींचते हुए, मुझे वह कतरन भेजी... मैं मानता हूं कि संसार ने यहूदियों के साथ बहुत क्रूर जुल्म किया है. जहां तक मैं जानता हूं, यूरोप के बहुत सारे हिस्सों में यहूदी बस्तियों को 'घेटो' कहा जाता है. उनके साथ जैसा निर्दयतापूर्ण बरताव हुआ, वह नहीं हुआ होता तो इनके फिलिस्तीन लौटने का कोई सवाल ही कभी पैदा नहीं होता. अपनी विशिष्ट प्रतिभा और देन के कारण सारी दुनिया ही उनका घर होती.
"लेकिन उनकी बहुत बड़ी गलती यह हुई कि उन्होंने फिलिस्तीन पर खुद को जबरन थोप दिया- पहले अमेरिका और ब्रिटेन की मदद से, और अब नंगे आतंकवाद की ताकत से! उनकी विश्व नागरिकता उनको संसार के किसी भी देश का सम्मानित नागरिक बना सकती थी. उनकी कुशलता, उनकी बहुमुखी प्रतिभा और सूझबूझ से काम करने की उनकी महान क्षमता का स्वागत कौन नहीं करता! ईसाई समाज के माथे पर यह काला धब्बा है कि उसने 'न्यू टेस्टामेंट' का गलत अध्ययन और उसकी गलत व्याख्या करके यहूदी समाज को निशाना बनाया कि एक यहूदी कोई गलती करता है तो सारे यहूदी समाज को उसका अपराधी माना जाएगा. यदि आइंस्टाइन जैसा एक यहूदी कोई महान आविष्कार करता है याकि कोई संगीतकार अश्रुतपूर्व संगीत रचता है तो उसे एक व्यक्ति की उपलब्धि माना जाएगा, नहीं कि उसका श्रेय उनके समुदाय को भी दिया जाएगा.
"किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि यहूदियों को जैसी तकलीफदेह स्थिति में डाल दिया गया है, उस कारण मेरी सहानुभूति उनके साथ है. लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि प्रतिकूल परिस्थितियां हमें शांति का पाठ भी तो पढ़ाती है। जहां उनका सहज स्वागत नहीं है वैसी जगह जाने और वहां के लोगों पर को अमरीकी दौलत व ब्रिटिश हथियारों के बल पर थोप देने की जरूरत थी?
फिलिस्तीनी धरती पर अपनी जबरन उपस्थिति को मजबूत बनाने के लिए आतंकवादी उपायों का भी सहारा लेना यहूदियों को कसे सुहाया। उनका गुरुओं ने, यहूदी जीसस ने, जिन्होंने खुशी-खुशी कांटों का ताज पहना था, इन सबने अहिंसा का जो अचूक हथियार दिया है, यदि क्षत-विक्षत संसार के सामने यहूदियों ने उसका इस्तेमाल किया होता तो सारी दुनिया उनके मामले को अपना मामला बना लेती. यहूदियों ने संसार को जो नायाब देनें दी हैं उनमें अहिंसा की यह देन सबसे नायाब है. वे इसका इस्तेमाल करते तो यह दोहरी ईशकृपा होती. ऐसा होता तो सही अर्थों में जिसे आनंद और समृद्धि कहते हैं वह उन्हें प्राप्त होती और कराहती मानवता को चंदन का लेप मिल जाता."
5 मई 1947 को 'रायटर' के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कंपबेल ने गांधी का ध्यान फिर से इस तरफ खींचा: “फिलिस्तीनी समस्या का आप क्या उपाय देखते है गांधी: "यह ऐसी समस्या बन गई है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है. अगर मैं यहूदी होता तो मैं उनसे कहता: ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो. ऐसा करके तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे जो वैसे न्याय का एक मामला भर है.
अगर यह मात्र राजनीतिक खींचतान है तब तो मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ हो रहा है. आखिर यहूदियों को फिलिस्तीन की तरह क्यों पड़ जाना चाहिए? यह महान जाति है. इसके पास महान विरासतें हैं. मैं दक्षिण अफ्रीका में बरसों इनके साथ रहा हूं. अगर इसके पीछे उनकी कोई धार्मिक प्यास है तब तो निश्चित ही इस मामले में आतंक की कोई जगह नहीं होनी चाहिए, ... यहूदियों को आगे बढ़कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमरीकी हो, किसी की भी सहायता के बिना, यहोवा के उत्तराधिकारियों को उनसे मिली सीख और उनकी ही विरासत संभालनी चाहिए."
लेकिन किसी को, किसी की विरासत तो संभालनी नहीं थी. सबको संभालनी थी। गांधी सत्ता की यह भूख पहचान रहे थे और इसलिए कैंपबेल से कहते-कहते कह गए। "यह एक ऐसी समस्या बन गई है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है." गांधी ने जो आशंका प्रकट की थी, उसके करीब 25 साल पूरे होने को हैं, लेकिन युद्ध व विराम के बीच पिसते फिलिस्तीनी किसी हल के करीब नहीं पहुंचे हैं. विश्व की महाशक्तियां व दोनों पक्षों के सत्ताधीश पीछे हट जाएं तो येरूशलम की संतानें अपना रास्ता खुद खोज लेंगी, लेकिन सत्य, प्रेम, करुणा के ऐसे रास्ते पर उन्हें कौन चलने देगा?
(गांधी मार्ग से साभार)