कोरोना योद्धाओं की असल कहानी, ड्यूटी करते मर जाओ या फिर जेल जाओ
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
कोविड 19 ऐसी पहली महामारी है, जिसमें फ्रंटलाइन वर्कर्स यानी चिकित्साकर्मी हाशिये पर हैं और सरकारें आगे हैं। दुनियाभर में इससे सम्बंधित नीतियों का निर्धारण सरकारें और प्रशासनिक अधिकारी कर रहे हैं और चिकित्साकर्मी बस सर झुकाए काम किए जा रहे हैं। इनमें से अधिकतर ऐसे हैं, जिन्हें न तो कोई छुट्टी मिल रही है, न वेतन और न ही पर्याप्त सुरक्षा उपकरण।
अपने अधिकारों के लिए या फिर कोविड 19 से सम्बंधित सरकारी बदइंतजामी से सम्बंधित आवाज उठाने पर इन्हें नौकरी से निकाला जा रहा है, पुलिस और सेना द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है या फिर जेल में डाला जा रहा है। दूसरी तरफ इन्ही चिकित्साकर्मियों ऐसा पूरी दुनिया में किया जा रहा है।
हमारे प्रधानमंत्री को तो बार-बार टीवी के परदे पर अवतरित होने का एक नायाब मौका मिल गया, कोरोना वायरस से संबंधित पहले राष्ट्रीय संबोधन में उन्होंने पांच मिनट के लिए महामारी में भी जरूरी सेवाएं देने वाले लोगों को धन्यवाद देने के लिए थाली बजाने का हुक्म दिया था। लोगों ने भी जी भर के थालियां बजा डालीं। इसके कुछ दिनों बाद प्रधानमंत्री के आह्वान पर लोगों ने शाम को मोमबत्तियां जला डालीं।
भारतीय सेना ने तो अस्पतालों जैसे शांत और संवेद नशील क्षेत्र में बैंड भी शिद्दत से बजाया और आसमान से फूल भी बरसा दिए। अनेक देशों में यह सब आजमाया गया, पर अंतर केवल इतना था कि भारत में सरकार का हुक्म था और दूसरे देशों में जनता की पहल। लेकिन जिनके लिए थालियां बजाई गयीं, मोमबत्तियां जलाई गईं, वही स्वास्थ्य कर्मी इस महामारी के दौर में सबसे उपेक्षित हैं और उनकी सुध लेने का समय अधिकतर देशों की सरकारों के पास नहीं है।
भारत से पीपीई किट का भरपूर निर्यात किया जा रहा है, लेकिन यहां के ही बहुत सारे अस्पतालों में चिकित्साकर्मियों के पास पर्याप्त किट नहीं हैं। ठीक ऐसी ही हालत मिस्र की भी है। वहां अस्पतालों में चिकित्साकर्मियों के पास पर्याप्त किट नहीं हैं और जो हैं भी उनसे कोई बचाव नहीं होता। अनेक बार शिकायत दर्ज कराने के बाद सरकार ने कहा है कि उन्हें इन्हीं हालातों में काम करना पड़ेगा। अब इनके पास दो ही रास्ते हैं, ड्यूटी करते हुए संक्रमित हो जाना या फिर शिकायत करने पर जेल जाना।
मार्च से जून के बीच कम से कम 9 चिकित्साकर्मियों को केवल शिकायत करने के कारण जेल में बंद किया जा चुका है। सरकार जो कारण बताती है, उसके अनुसार ये सभी फेकन्यूज़ फैला रहे थे। मिस्र में मार्च से अब तक 110 से अधिक डॉक्टरों की मौत कोविड 19 के कारण हो चुकी है और नर्सों और दूसरे स्वास्थ्यकर्मियों की मृत्यु का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
एमनेस्टी इन्टरनेशनल की कुछ दिनों पहले प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, इस संस्था द्वारा 63 देशों में अध्ययन का निष्कर्ष है कि हरेक देश में स्वास्थ्यकर्मियों को पर्याप्त सुरक्षा उपकरण नहीं दिए गए हैं, जबकि इनमें से अधिकतर देश इसका निर्यात कर रहे हैं, या दूसरे देशों को इसका उपहार दे रहे हैं। ऐसे देशों में भारत, ब्राज़ील और मिस्र भी सम्मिलित हैं। कई अस्पतालों में एक बार उपयोग किये जाने वाले सुरक्षा उपकरणों को धोकर और सुखाकर वापस बारबार उपयोग में लाया जा रहा है। इसमें भारत का उदाहरण भी शामिल है, कोलकाता में रेनकोट का उपयोग सुरक्षा उपकरण के तौर पर किया जा रहा था।
अनेक देशों में सुरक्षा उपकरणों की कमी की तरफ सरकार का ध्यान खींचने के लिए इस हेल्थ इमरजेंसी के दौर में भी स्वास्थ्य कर्मियों को हड़ताल, भूख हड़ताल या फिर आन्दोलनों का सहारा लेना पद रहा है। एमनेस्टी इन्टरनेशनल के अनुसार दुनिया भर में सुरक्षा उपकरणों के बिना ड्यूटी करते डॉक्टरों में से 3000 से अधिक को अपनी जान गंवानी पडी है। इसमें सबसे अधिक 584 मौतें रूस में और 540 इंग्लैंड में दर्ज की गईं हैं, इसके बाद अमेरिका, ब्राज़ील, मेक्सिको, इटली और मिस्र का स्थान है। रिपोर्ट के अनुसार सुरक्षा उपकरणों के अभाव में मरते डॉक्टरों का मामला केवल मानवाधिकार का मसला नहीं है, बल्कि यह जन-स्वास्थ्य तंत्र को भी प्रभावित करता है।
रूस में जनता के बीच या फिर सोशल मीडिया के माध्यम से सरकारी दावों की पोल खोलते सभी स्वास्थ्यकर्मियों पर फेकन्यूज़ के नाम पर कार्यवाही की जा रही है। वहां स्वास्थ्यकर्मियों के संगठन, अलायन्स ऑफ़ डॉक्टर्स, के दो अधिकारियों को पीपीई किट की कमी उजागर करने के कारण जेल में बंद कर दिया गया है। एक अन्य अधिकारी को गाँव में पीपीई किट बांटे समय पुलिस द्वारा पीटा गया और हवालात में बंद कर दिया गया। यही सबकुछ अमेरिका, भारत, इटली, ब्राज़ील और मेक्सिको जैसे देशों में भी किया जा रहा है।
भारत सरकार का ऐसा रवैया कोई नया नहीं है। याद कीजिये नोटबंदी का दौर, जब काम के बोझ से अनेक बैंककर्मी बीमार पड़ गए थे, कुछ मर भी गए थे, कुछ ने नौकरी छोड़ दी थी, और कुछ ने आवाज उठाई तो उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया था। अब वही दौर वापस आ गया है, इस बार परेशान बैंककर्मी नहीं बल्कि स्वास्थ्य कर्मी हैं।
मेनस्ट्रीम मीडिया दिनभर पाकिस्तान की समस्याएं तो बता देता है, पर खबरों पर सरकारी नियंत्रण का ऐसा असर है कि यहाँ के स्वास्थ्य कर्मियों की समस्याएं कभी बताई नहीं जातीं। देश में जनता तो भूख, प्यास, बेरोजगारी, और रोग से मर ही रही है, अब तो डॉक्टर, नर्सें और दूसरे स्वास्थ्यकर्मीं भी सुरक्षा उपकरण के अभाव में कोरोना की चपेट में आकर मर रहे हैं।
केरल स्थित युनाइटेड नर्सेज एसोसिएशन, जिसके देशभर में 3।8 लाख सदस्य हैं, ने कुछ महीने पहले सर्वोच्च न्यायालय में अपनी मांगों को लेकर याचिका दायर की है। याचिका के अनुसार केंद्र सरकार ने कोविड 19 से निपटने के लिए स्वास्थ्य कर्मियों के लिए कोई भी राष्ट्रीय प्रबंधन मसविदा (national management protocol for COVID 19) नहीं तैयार किया है, जबकि देश भर के स्वास्थ्यकर्मी लगातार अत्यधिक खतरे में काम कर रहे हैं। विशेषकर नर्सों को संक्रमण के खतरे के साथ ही, लम्बे समय तक काम, मानसिक तनाव, थकान, पेशेगत परेशानियां, सामाजिक भेदभाव और शारीरिक और मानसिक हिंसा का सामना करना पड़ रहा है।
इस याचिका में व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों की अनुपलब्धता या फिर मानक से नीचे के उपकरण, कोविड 19 की जांच के उपकरण की कमी, संक्रमण वाले रोगों की रोकथाम के लिए प्रशिक्षण का अभाव, आइसोलेशन वार्ड में बुनियादी सुविधाओं की कमी के बारे में भी कहा गया है। याचिका के अनुसार नर्सों को कोई ट्रांसपोर्ट की सुविधा नहीं मिलती, ओवरटाइम के लिए भेदभाव किया जाता है, कम्पंसेटरी छुट्टी का कोई प्रावधान नहीं है, यानि लगातार सामान्य समय से अधिक ड्यूटी कने के बाद भी छुट्टियों के पैसे काटे जाते हैं और इस दौर में गर्भवती या नवजात शिशुओं वाली नर्स को भी लगातार ड्यूटी करनी पड़ रही है। इस याचिका में मांग की गई है कि कोविड 19 के समय कार्यरत सभी स्वास्थ्य कर्मियों को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत व्यक्तिगत दुर्घटना के दायरे में शामिल किया जाए।
पिछले 8 अप्रैल को नई दिल्ली के एम्स के रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन, जिसके 2500 से अधिक सदस्य हैं, ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अवगत कराया था कि जो भी डॉक्टर या स्वास्थ्यकर्मी व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों की कमी के बारे में बताता है, उसे प्रताड़ित किया जा रहा है। इस एसोसिएशन के सेक्रेटरी जनरल डॉ श्रीनिवास राजकुमार के अनुसार अब तक कम से कम 10 डोक्टरों को या तो पुलिस ने धमकी दी है, या फिर उनका तबादला कर दिया गया है, या इस्तीफ़ा देने पर मजबूर किया गया है।
कोलकाता के डॉ इन्द्रनील खान ने जब सोशल मीडिया पर रेनकोट पहनकर काम करते स्वास्थ्यकर्मियों के बारे में पोस्ट किया तो स्थानीय पुलिस उनसे 16 घंटे पूछताछ करती रही। कश्मीर के हालत सबको पता हैं, पर कोई भी आधिकारिक खबर नहीं आती, क्योकि स्थानीय प्रशासन की तरफ से सभी स्वास्थ्य कर्मियों को सख्त आदेश दिए गए हैं कि वे मीडिया या सोशल मीडिया पर किसी भी कमी को उजागर करने की जुर्रत न करें।
कुछ दिनों पहले मुंबई का वोखार्द्ट अस्पताल बंद कर दिया गया क्योंकि वहां के 26 नर्सें और 3 डॉक्टर कोविड 19 की चपेट में आ गए। अप्रैल में दिल्ली सरकार के दिल्ली कैंसर इंस्टिट्यूट को भी बंद कर दिया गया क्योंकि वहां के 2 डॉक्टर और 16 नर्सें इस महामारी का शिकार हो गयीं। इसके अतिरिक्त दिल्ली में ही महाराज अग्रसेन अस्पताल, गंगा राम अस्पताल, एम्स और सफदरजंग अस्पतालों के 40 से अधिक स्वास्थ्य कर्मी कोविड 19 की चपेट में आ चुके हैं। इनमें से अधिकतर को संक्रमण केवल इस कारण से हुआ है कि उनके पास पर्याप्त और मानक-अनुरूप व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण नहीं थे।
हाल में ही बिहार की राजधानी पटना में कोविड 19 की टेस्टिंग कुछ दिनों तक रोकनी पडी थी क्योंकि टेस्टिंग सेंटर में बड़ी संख्या में कर्मचारी कोविड 19 से संक्रमित हो गए थे। हाल में ही हैदराबाद के एक अस्पताल के एक डॉक्टर ने सोशल मीडिया पर पीपीई किट की कमी से सम्बंधित पोस्ट डाली थी, दूसरे दिन ही बीच सड़क पर पुलिस वालों ने उस डॉक्टर को गाडी से खिंच कर डंडों से पीटा था।
पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी ऐसी ही स्थिति है। कुछ दिनों पहले वहां एक नर्स और एक डॉक्टर की मौत कोविड 19 से हो गई। इसके बाद से 50 से अधिक स्वास्थ्य कर्मी इसकी चपेट में आ चुके हैं। सिंध प्रांत में जब डॉक्टर व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों की मांग को लेकर आन्दोलन कर रहे थे तब पुलिस ने उनपर डंडे बरसाए और 53 डॉक्टरों को जेल में बंद कर दिया।
दुनियाभर में डॉक्टर और दूसरे स्वास्थ्यकर्मी बिना वेतन और बिना पर्याप्त सुरक्षा उपकरणों के बाद भी लगातार काम करने के कारण अपना स्वास्थ्य खराब कर रहे हैं और मानसिक तौर पर कमजोर हो रहे हैं। कोविड 19 के दौर में अब तक भारत समेत तमाम देशों में स्वास्थ्यकर्मी बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। विडम्बना यह है कि सरकारें इस दौर में स्वास्थ्यकर्मियों को सुविधाविहीन योद्धा बनाकर इनके लिए तालियाँ बजवा रही है।