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विमर्श

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है | "Mat Kaho Aakash Mein Kohra Ghana Hai.."

Janjwar Desk
20 Feb 2022 11:20 PM IST
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है | Mat Kaho Aakash Mein Kohra Ghana Hai..
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कोहरा का बनना और इसका हमारे परिवेश में विस्तार एक प्राकृतिक प्रतिक्रिया है| कुछ दिनों के बाद जब प्राकृतिक परिस्थितियाँ बदलती हैं, इसका अंत हो जाता है| प्राकृतिक कोहरा बहुत घना भी हो सकता है, हमारी दृष्टि को धुंधला कर सकता है या हमारे सामने एक अपारदर्शी दीवार खडी कर सकता है

महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट

कोहरा का बनना और इसका हमारे परिवेश में विस्तार एक प्राकृतिक प्रतिक्रिया है| कुछ दिनों के बाद जब प्राकृतिक परिस्थितियाँ बदलती हैं, इसका अंत हो जाता है| प्राकृतिक कोहरा बहुत घना भी हो सकता है, हमारी दृष्टि को धुंधला कर सकता है या हमारे सामने एक अपारदर्शी दीवार खडी कर सकता है – यह कभी स्थाई नहीं होता| इसके विपरीत हमारे समाज पर पड़ा कोहरा बिलकुल पारदर्शी है, पर स्थाई है| इतना पारदर्शी है कि आप इसके आरपार बिलकुल स्पष्ट देश सकते हैं, बशर्ते आप देखना चाहें| पारदर्शी कोहरा के पार देखिये, सिंहासन पर जो राजा है वह नंगा है और उसके इर्दगिर्द जो मंत्री-संतरी की जमात है वह हत्यारों और अपराधियों का गिरोह है| राजा भूखी जनता को जब पांच किलो अनाज देता है, अरबपतियों की संपत्ति 10 प्रतिशत बढ़ जाती है| अपराधियों की परिभाषा बदल दी गयी है, अब बेरोजगार और भूखे अपराधी करार दिए गए हैं और परम्परागत अपराधी अब सत्ता साझा कर रहे हैं| पारदर्शी कोहरे के पार लोकतंत्र को मार दिया गया और हम भगवा झंडा उठाये हुजूम द्वारा जय श्री राम के कर्णभेदी नारे पर तालियाँ पीटते रहे| पता नहीं कैसा कोहरा है कि मीडिया की शक्ल बिलकुल सत्ता से मिलने लगी है|

कोहरा पर हिंदी और दूसरी भाषाओं में भी बहुत सारी कवितायें लिखी गईं हैं – कुछ हमारे परिवेश में कुछ दिनों के लिए फैलने वाले कोहरे का वर्णन करती हैं और कुछ हमारे समाज में फैले स्थाई कोहरे का| दुष्यंत कुमार की एक चर्चित कविता है, मत कहो आकाश में कुहरा घना है – जिसमें उन्होंने कहा है, रक्त वर्षों से नसों में खौलता है, आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है|

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है/दुष्यंत कुमार

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है|

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,

क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है|

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,

हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है|

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,

बात इतनी है कि कोई पुल बना है|

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,

आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है|

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,

शौक से डूबे जिसे भी डूबना है|

दोस्तों! अब मंच पर सुविधा नहीं है,

आजकल नेपथ्य में संभावना है|

जर्मन भाषा के लेखक हर्मन हेस की एक कविता का अनुवाद प्रतिभा उपाध्याय ने किया है और इसका शीर्षक रखा है, कोहरे में| इस कविता में कोहरे को एकाकीपन से जोड़ा गया है - मित्रों से भरा संसार था मेरा, जब रोशन था मेरा जीवन, अब जब कोहरा छा रहा है, कोई दिखाई नहीं देता|

कोहरे में/हर्मन हेस/प्रतिभा उपाध्याय

अनूठा है कोहरे में भटकना!

अकेला है हर झाड़ और पत्थर,

कोई पेड़ नहीं देखता किसी दूसरे को,

हर कोई अकेला है|

मित्रों से भरा संसार था मेरा,

जब रोशन था मेरा जीवन,

अब जब कोहरा छा रहा है,

कोई दिखाई नहीं देता|

सच में, कोई नहीं है समझदार,

नहीं जानता है अन्धेरे को,

अन्धेरा अपरिहार्य और निस्तब्ध है

यह उसे सबसे अलग करता है|

अनूठा है कोहरे में भटकना,

एकाकी होना ही जीवन है,

नहीं जानता कोई आदमी दूसरे को,

हर कोई अकेला है|

बिना रानी गुप्ता की कविता, कोहरा हंस रहा है, में कोहरे के प्रभावों का विस्तार से वर्णन है|

कोहरा हंस रहा है/बीना रानी गुप्ता

कोहरा नहीं छंटा

काम नही मिला

चूल्हा नहीं जला

रोटी नहीं पकी

भूख नहीं मिटी

रमुआ रो रहा है

सुनो, कोहरा हँस रहा है..

खांसी से अम्मां बेहाल

गठिया से नानी का बुरा हाल

रूआंसी पिंकी हाथ मल रही है

धूप की चाह प्रार्थना में ढल रही है

दमा का मरीज मर रहा है

सुनो, कोहरा हँस रहा है..

उमड़ पड़ा धुंध का सागर

रिक्त हुई वायु की गागर

मचाया ठिठुरन ने धमाल

तांडव मचा रहा काल

ड्राइवर को कुछ नहीं दिख रहा है

वाहन वाहन से भिड़ रहा है

मौत की कहानी लिख रहा है

सुनो! कोहरा हँस रहा है|

राजेश जोशी की कविता, बच्चे काम पर जा रहे हैं, की शुरुआत तो प्राकृतिक कोहरे से की है पर अंत तक समाज में फैले पारदर्शी स्थाई कोहरे के पार बाल श्रमिकों पर पैनी निगाह डालते हैं|

बच्चे काम पर जा रहे हैं/राजेश जोशी

कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह

भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना

लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह

काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?

क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें

क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं

सारी रंग बिरंगी किताबों को

क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने

क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं

सारे मदरसों की इमारतें

क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन

खत्‍म हो गए हैं एकाएक

तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?

कितना भयानक होता अगर ऐसा होता

भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह

कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए

बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे

काम पर जा रहे हैं|

पुष्पिता की कविता, कोहरा, में कोहरे का विस्तार से वर्णन है - सुलगती लकड़ी के ताप से, आदमी जला देना चाहता है कोहरे की चादर|

कोहरा/पुष्पिता

कोहरा

धुँआई अँधेरा

हवाओं में घुला

अपने में

हवाएँ घोलता

रोशनी को सोखता

कि मौत-सी

लगामहीन तेज भागती कारें

थहा-थहा कर

आंधरों की तरह बढ़ाती हैं

अपने पहिये के पाँव

अंधे की लाठी की तरह

गाड़ियों की हेडलाइट

देखते हुए भी

नहीं देख पाती है कुछ|

कोहरे में डूबे हुए शहर की

रोशनी भी डूब जाती है कोहरे में

सूर्यदेव भी

थहा-थहा कर

ढूँढते हैं अपनी पृथ्वी।

धरती पर

अपनी रोशनी के पाँव

धरने के लिए

ठंडक|

कोहरे की चादर भीतर

सुलगाती है अपना अलाव

सुलगती लकड़ी के ताप से

आदमी जला देना चाहता है

कोहरे की चादर|

पक्षी

कोहरे में भीगते हुए भी

फुलाए रखते हैं

अपने भीतरिया पंख

कोहरे का करते हैं तिरस्कार

पंखों की कोमल गर्माहट से

कोहरा

छीन लेता है

पक्षियों की चहचहाहट का

मादक कोलाहल

स्तब्ध गूँजों और अंधों की तरह

सिकुड़े हुए सिमटे मौन की तरह|

वे खोजते हैं

कोहरे के ऊपर का आकाश

और अपने लिए सूर्य रश्मियाँ

क्योंकि रोशनी के कण

आँखों की भूख के लिए

उजले दाने हैं

जिससे ढूँढ़ते हैं

सुनहरी बालियाँ

पके खेतों की|

कोहरे की ठण्ड में

लोग तापते हैं

लगातार

रगड़-रगड़ कर अपनी ही हथेलियाँ

अलाव की तरह|

हथेलियों की आँच से

सेंकते हैं अपना चेहरा

कोहरे के विरुद्ध|

इस लेख के लेखक ने अपनी कविता, कोहरा पारदर्शी है, में हमारे समाज में जों स्थाई कोहरा फैला है उसी का वर्णन किया है|

कोहरा पारदर्शी है/महेंद्र पाण्डेय

प्रकृति का कोहरा तो कब का छंट चुका है

पर, समाज घिरा है कोहरे से

सब साफ़ दिख रहा है

कुछ नम भी नहीं हो रहा है

मालूम है मुझे तुम यही कहोगे

अब दूर तक साफ़ दिख रहा है

आसमान नीला है

सामने बृक्ष-विहीन पहाड़ खड़ा है

नदी का पानी बदबूदार है

और, धूप का विस्तार है

मालूम है मुझे, तुम भी देख रहे हो

पर कभी नहीं कहोगे

लोकतंत्र मर चुका है

सिंहासन पर बैठा राजा नंगा है

हत्यारे और अपराधी

मंत्री-संतरी बन बैठे हैं

आर्डर-आर्डर करने वाले

हुजूर-हुजूर करते हुए संसद में बैठे हैं

अब ह्त्या करने वाला क़ानून बनाता है

और, उसी ह्त्या की खबर लिखने वाला

देशद्रोही और आतंकवादी करार दिया जाता है

अनजान बनने की कोशिश मत करो

मालूम है मुझे

तुम भी देख रहे हो

पुलिस जल्लाद हो गयी है

जांच एजेंसिया अपनी जांच कर लें

तो सबसे बड़ी अपराधी घोषित हो जायेंगीं

देखो, मीडिया और सत्ता का चेहरा

एक हो चला है, और

दोनों के दाँतों पर खून के धब्बे हैं

और भी बहुत कुछ है कहने को

पर क्या फायदा

हवा में फैला कोहरा तो छंट गया है

पर, तुम्हारे दिमाग पर फैला कोहरा

घातक है, विषैला है

अमानवीय भी है

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