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विमर्श

रक्षाबंधन पर बहनों की रक्षा का संकल्प, पर पैतृक संपत्ति में उनको हिस्सा न देकर क्यों करते कमजोर?

Janjwar Desk
21 Aug 2021 10:01 AM IST
रक्षाबंधन पर बहनों की रक्षा का संकल्प, पर पैतृक संपत्ति में उनको हिस्सा न देकर क्यों करते कमजोर?
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रक्षाबंधन पर बहनों की रक्षा का संकल्प लेकिन पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने में आनाकानी (प्रतीकात्मक तस्वीर)

भारत में राखी के भावनात्मक त्यौहार पर गर्व से कलाई आगे करते भाई की छवि में बहनों के रक्षक ही नहीं, उनका हक छीनने वाले भी दिखते हैं..

पूर्व आईपीएस वीएन राय की टिप्पणी

जनज्वार। रक्षाबंधन के दिन, जब भारत में भाई अपनी बहनों की रक्षा के प्रति बेहद सजग होते हैं, पुलिस को भी संतुष्ट होना चाहिए कि स्त्रियाँ अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित होंगी जबकि ऐसा नहीं होता। बल्कि, उलटे, भारी आवागमन को देखते हुये उस दिन विशेष सुरक्षा इंतजाम करने पड़ते हैं। यानी, नये सिरे से यह मुद्दा उठता है कि स्त्री की सुरक्षा धार्मिक परम्पराओं से संभव है या क़ानूनी समानता से।

अफगानिस्तान के नये शासक तालिबान बंदूकों के जोर पर वहां औरतों पर तथाकथित कठोरतम इस्लामी नियम-कायदे लाद रहे हैं, लेकिन स्त्रियाँ पहले से कई गुना असुरक्षित महसूस कर रही हैं।

किसी समाज में पुलिस व्यवस्था स्त्रियों और पुरुषों के लिए भिन्न क्यों होनी चाहिये ? सीधा सा उत्तर होगा, इसलिये, क्योंकि स्त्रियाँ ज्यादा असुरक्षित हैं लिहाजा उन्हें अधिक सुरक्षा चाहिये। लेकिन, इसके लिए क्या उन्हें अधिक अवसर नहीं चाहिये जिससे उनमें अधिक आत्मविश्वास पैदा हो ? भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को आगामी एनडीए परीक्षा में बैठने की अनुमति देकर उनका फ़ौज के कॉम्बैट विंग में बतौर अफसर शामिल होने का रास्ता खोल दिया है। जबकि, तालिबान के रूप में भारत के पड़ोस में एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था सत्ता में आयी है जिसका इतिहास अफगानी औरतों को निजता और स्वतंत्रता से वंचित करने का रहा है।

भारत में राखी के भावनात्मक त्यौहार पर गर्व से कलाई आगे करते भाई की छवि में बहनों के रक्षक ही नहीं, उनका हक छीनने वाले भी दिखते हैं। दरअसल, एक ओर वे बहन की रक्षा का संकल्प नया कर रहे होते हैं और दूसरी ओर उन्होंने बहन का पैतृक दाय हड़प कर लिया होता है। यह विरोधाभास पितृसत्ता के लिये नया नहीं है। अगर कोई बहन की ओर बुरी नजर डाले तो ऐसे भी भाई कम नहीं हैं जो मरने मारने पर उतारू हो जायेंगे। लेकिन अगर भूले से भी कभी वही बहन उनसे पैतृक हिस्से का जिक्र छेड़ दे तो बहन भाई का रिश्ता खतम; तू मेरी बहन नहीं और मैं तेरा भाई नहीं।

भाई यह नहीं सोचते कि इस तरह वे बहनों को हर तरह से कमजोर कर रहे होते हैं। उनके हिसाब से बहन को उसकी शादी पर तिलक-दहेज़ चढ़ाने से पैतृक दाय की भरपाई हो जाती है। यदि भाइयों से पूछा जाये कि क्या वे भी पैतृक हिस्सा भूल कर बदले में अपनी शादी के समय तिलक-दहेज़ लेना चाहेंगे तो शायद कोई भी तैयार नहीं होगा। एक मासूम सा तर्क यह भी होता है कि बहन को तो ससुराल में पति के हिस्से में से मिलना ही है, फिर दोहरा दाय क्यों? लेकिन सच्चाई यह है कि जिसे अपनों से ही अपना क़ानूनी हक़ नहीं मिला, उसे दूसरों के भरोसे छोड़ने या लम्बी क़ानूनी लड़ाई के हवाले करने का हश्र जुआ खेलने जैसा ही तो होगा।

ऐसे में तमाम बहनों को हताशा में यह भी कहते सुना जाता है कि उन्हें पैतृक दाय चाहिए ही नहीं क्योंकि उन्हें उसकी जरूरत नहीं। सोचिये, कोई भाई ऐसा क्यों नहीं कहता? क्या रिश्तों में मधुरता बनाए रखने का सारा बोझ बहन के सर पर ही लादना शोभा देता है? समाज में लव जिहाद और ड्रेस कोड के नाम पर किस जेंडर को नियंत्रित किया जाता है और किस जेंडर के द्वारा? परिवार में किस जेंडर की शिक्षा और स्वास्थ्य पर ज्यादा खर्च होता है? यह सब संस्कार और परंपरा के नाम पर रोजाना होता है।

अफगानिस्तान में मर्दों की हथियारबंद टोलियों के रूप में तालिबान औरतों को किसी मनमानी इस्लामिक हद में रहने की हिदायत करते हैं और इस आड़ में उन पर हिंसक गुलामी के मनमाने कोड लागू करते हैं। उन्हें बुर्के में रहना होगा, स्कूलों, खेल के मैदानों और कार्यस्थलों की स्वतंत्रता उनके लिए वर्जित होगी, उनके सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक जीवन को मर्द संचालित करेंगे।

भारत में भी बहुत से धर्म या जाति आधारित सांस्कृतिक/सामाजिक संगठन जेंडर के मुद्दों पर तालिबान की तरह सोचते हैं। उनमें से कुछ शायद जेंडर की एडवांस ट्रेनिंग भी तालिबान से लेना चाहेंगे लेकिन यह स्त्री की क़ानूनी समानता के क्षरण की कीमत पर होगा। धार्मिक सुरक्षावाद की बढ़ती सक्रियता से देश में स्त्री सुरक्षा का तालिबानीकरण ही होगा, न कि स्त्री सुरक्षित हो जायेगी।

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