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विमर्श

मोदी ने अपने 7 साल के कार्यकाल में देश की कर दी साढ़े साती

Janjwar Desk
26 May 2021 6:18 AM GMT
मोदी ने अपने 7 साल के कार्यकाल में देश की कर दी साढ़े साती
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नया OBC संविधान संशोधन बिल : सत्ताधारी की दिलचस्पी रोग में, उपाय में नहीं

मोदी सरकार ने रक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्र को भी देशी-विदेशी पूंजी के लिए खोल दिया और अडानी तथा अंबानी को उन अभियानों में शामिल कर लिया जो सिर्फ सरकार के हाथ में होनी चाहिए....

वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिन्हा की टिप्पणी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र की सत्ता में सात साल पूरे कर लिये हैं। अगर भारत के संविधान में यकीन करने वाले और सरकार को जनता का रखवाला समझने वाले नागरिक की नजर से देखा जाए तो एक लंबा दुःस्वप्न दिखाई देता है जिसके जल्द से जल्द खत्म होने की कामना वह करेगा। अगर पीछे मुड़कर देखा जाए तो यही लगता है कि 2014 के चुनाव में मोदी की जीत को लोगों ने भारत के सामान्य चुनावों में से ही एक चुनाव के रूप में देखा था जिसमें एक नई पार्टी तथा नेता को मौका दिया जाता है। इस सामान्य सा लगने वाले परिवर्तन को प्रधानमंत्री मोदी तथा उनके सहयोगी अमित शाह ने एक ऐसी घटना में बदल दिया है, जिसका असर लंबे समय तक महसूस किया जाएगा।

कई लोग यही मानकर चल रहे थे कि भले ही भाजपा हिंदुत्व की तलवार थामे है, वह इस एजेंडे को एक हद तक ही लागू करेगी। कई लोग तो अयोध्या में राम मंदिर बनाने में भाजपा की दिलचस्पी को लेकर भी संदेह करते थे। उन्हें धारा 370 को खत्म करने या समान नागरिक कानून बनाने के बारे में भी लगता था कि शायद भाजपा सिर्फ इनकी बात ही करे। वैसे भी, मोदी का सारा चुनाव अभियान विकास तथा भ्रष्टाचार से मुक्त शासन पर टिका था। जाहिर है रोजगार देने तथा काला धन वापस लाने का मुद्दा सबसे आगे था। भ्रष्टाचार के खिलाफ चले अन्ना आंदोलन ने एक ऐसा माहौल बनाया कि कांग्रेस को हटाने का मन लोगों ने बना लिया। लेकिन इसका सही अंदाजा कई सालों बाद होगा कि लोगों ने एक ऐसा जुआ खेला था जिसके परिणाम भारतीय समाज तथा लोकतंत्र के लिए भयंकर थे।

मोदी-शाह की जोड़ी ने लोकतांत्रिक भारत को एक अलोकतंत्रिक भारत में बदल दिया है। आजादी के बाद आरएसएस के सरंक्षण में बने भारतीय जनसंघ ने साठ के दशक में समय की मांग को देखते हुए अपना बाहरी रूप बदल लिया था और गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर जमा होनेवाली पार्टियों के साथ घुलमिलकर काम करने लगा था। इसका चरम बिंदु 1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय था। बाकी पार्टियों ने इसमें शामिल होकर अपना अस्तित्व सदा के लिए खो दिया। लेकिन जनसंघ की राजनीति उसकी घोषित विचारधारा तथा कार्यक्रम के बदले आरएसएस की विचारधारा और कार्यक्रम से संचालित होती थी। इसलिए उसके नेताओं तथा कार्यकर्ताओं ने आरएसएस की अपनी सदस्यता जारी रखी थी ताकि समय आने पर वे अपनी अलग पहचान कायम कर सकें।

प्रसिद्ध समाजवादी नेता मधु लिमये ने जब इस मुद्दे को उठाया तो जनता पार्टी टूट गई। जनसंघ के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी के नाम से नई पार्टी बना ली। बाद में, पार्टी ने राम जन्मभूमि आंदोलन को अपना मुख्य मुद्दा बना लिया जो वास्तव में सामाजिक न्याय की राजनीति को राकेने के लिए था। लेकिन पार्टी ने दूसरी पार्टियों के साथ अपने संबंध बनाए रखने के लिए कुछ दरवाजे खुले रखे थे। गठबंधन के जरिए भारतीय जनसंघ ने अपना असली चेहरा छिपाए रखा।

मोदी-शाह ने 2014 के चुनाव जीतने के बाद जिस काम में अपनी ताकत लगाई वह था भारतीय जनसंघ को अपने असली रूप में वापस लाना। यही वजह है कि सत्ता हाथ में आते ही उन्होंने विकास और जनता के लिए काम करने का जो वायदा किया था उसे तुरंत छोड़ दिया। वे पूंजीपतियों के लिए काम करने लगे और खुलकर मुसलमान विरोधी राजनीति करने लगे।

आरएसएस की बरसों पुरानी राजनीति सक्रिय हो गई और भाजपा जनसंघ के अपने असली शरीर में समाने लगी। उसे अब किसी सहारे की जरूरत नहीं थी और वह इंतजार नहीं कर सकती थी। उसने राम मंदिर निर्माण की शुरुआत, धारा 370 की समाप्ति तथा तीन तलाक विरोधी कानून बनाकर अपने असली स्वरूप का परिचय दे दिया है। वह यहीं तक नहीं रुकी। उसने नागरिकता संशोधन कानून बनाया और कुछ राज्यों में कथित लव जिहाद के खिलाफ कानून भी बनाए। यह बिना किसी संकोच वाली हिदुत्व की राजनीति थी।

मोदी के सात साल को आजादी के आंदोलन के विरोध तथा अंग्रेजों के पक्ष में खड़ी हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति को स्थापित करने के अभियान के रूप में देखा जा सकता है। महात्मा गांधी की हत्या से लेकर सांप्रदायिक दंगों से होकर गुजरी यह राजनीति एक असाध्य रोग में तब्दील हो चुकी है। मोदी के सात सालों में यह असाध्य बीमारी अपने विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त होती रही है जो रक्तरंजित है। इसने गोरक्षा के नाम पर सरेआम हत्याएं कराईं और अल्पसंख्यकों को इस तरह हाशिए पर पहुंचा दिया जो देश के विभाजन के समय भी नहीं हुआ था।

हिंदुत्व की राजनीति अपने जन्म से ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा के खिलाफ रही है। वह बोलने की आजादी से लेकर सभी लोकतांत्रिक मूल्यों की समाप्ति के पक्ष में रही है। इसे उसने मॉब लिंचिंग जैसी स्तब्धकारी घटनाओं के जरिए दिखाया। गोमांस को लेकर जो तांडव मचाया गया, वह किसी भी स्वस्थ समाज में संभव नहीं है। मोदी के सात साल के शासन में देश लोकतांत्रिक अधिकारों पर ऐसे ही हमलों का गवाह है। गौर से देखने पर यही लगता है कि मोदी सरकार इन सालों में एक निरंकुश शासन की जमीन तैयार करने में ही जुटी रही।

सुधा भारद्वाज, सोमा सेन समेत अन्य अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल में डालना इसका एक उदाहरण है। मोदी के खिलाफ बोलनेवाले पत्रकारों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं पर पुलिस व प्रशासन के अनगिनत हमलों के उदाहरण हैं। कांग्रेस-मुक्त भारत बनाने की घोषणा तथा अभी हाल में बंगाल में ममता बनर्जी को उखाड़ फेंकने के उग्र अभियान को लोकतंत्र को जड़ से समाप्त करने की कोशिशों का हिस्सा ही मानना चाहिए।

लेकिन लोकतंत्र को समाप्त करने तथा तानाशाही लाने का अभियान उन लोकतांत्रिक संस्थाओं के रहते सफल नहीं हो सकता था जो लगातार मजबूती पाते रहे हैं। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाकर तानाशाही लादने की कोशिश की थी, लेकिन उसे जनता ने ध्वस्त कर दिया। इंदिरा गांधी ने इसकी दोबारा कोशिश भी नहीं की और न कांग्रेस ने ऐसा फिर कभी ऐसा सोचा क्योंकि उसकी विचारधारा में इसके लिए कोई जगह नहीं थी। लोकतंत्र को खत्म करने के इस अभियान में मीडिया, न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा विधायिका, सभी पर प्रहार जरूरी था।

मीडिया तो जल्द ही एक चारण-समूह में बदल गया, क्योंकि इसे कॉरपोरेट पूंजी ने पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले रखा है। पूरे सात साल में न्यायपालिका का शायद ही कोई ऐसा फैसला हुआ हो जिसके बारे में कहा जाए कि उसने सरकार को नहीं बख्शा। राम मंदिर से लेकर रफाल लड़ाकू विमानों की खरीद में भ्रष्टाचार के मामले तक न्यायापालिका सरकार के पक्ष में ही फैसला सुनाता रहा। हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पद से रिटायर होने के बाद जस्टिस रंजन गोगोई राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हो गए।

इज्जत सबसे ज्यादा गंवाने वाली संवैधानिक संस्थाओं में चुनाव आयोग का स्थान ऊपर होगा। उसने सत्ताधारी पार्टी के हिसाब से चुनाव कराए और टीएन शेषन तथा उनके बाद के मुख्य चुनाव आयुक्तों के समय में एक मजबूत संस्था के रूप में उभरे चुनाव आयोग के गौरव को पूरी तरह मटियामेट कर दिया गया। सबसे ताजा उदाहरण बंगाल में आठ चरणों में चुनाव कराया जाना है।

संवैधानिक संस्थाओं तथा लोकतंत्र को मजबूत करनेवाले उपायों को बेअसर बनाने में मोदी सरकार ने इतिहास बनाया है। सीबीआई से लेकर ईडी तक, सभी जांच एंजेंसियां भाजपा की शाखा के रूप में काम करने लगीं। चुनाव के दौरान छापे मारना तथा विरोधी पार्टी के नेताओं को भाजपा में शामिल कराने के लिए जांच एंजेसियों का इस्तेमाल करने में मोदी-शाह ने कोई संकोच नहीं किया। भाजपा ने जनादेश को पैसे की ताकत पर पलटने के नए तरीके ढूंढ़े और प्रतिद्वंद्वी पार्टी के विधायकों से इस्तीफे दिलाकर उन्हें अल्पमत में लाकर सरकारें बनाईं।

हिंदुत्व की इस फासिस्ट राजनीति का एक अहम पहलू यह है कि इसमें सत्ता से बाहर बैठा एक तंत्र भी काम करता है। मोदी-शाह के कार्यकाल में ऐसा तंत्र कई रूपों में सामने आया है। हत्यारे गोरक्षकों के अलावा सोशल मीडिया में सक्रिय भाजपा आईटी सेल है जो झूठ के प्रचार के अलावा उदार तथा प्रगतिशील लोगों के चरित्रहनन का काम करता है। इसके शिकार वर्तमान के ही नहीं, जवाहरलाल नेहरू जैसे अतीत के लोग भी हैं। सत्ता से बाहर के इन सैनिकों के साथ मोदी तथा शाह के सीधे संबंध हैं। अर्बन नक्सल जैसा नेरैटिव उनके सम्मिलित प्रयास से निकला है।

मोदी के सात साल की हिंदुत्ववादी राजनीति की कहानी खास कारपोरेट घरानों तथा देशी-विदेशी पूंजीपतियों के लिए काम करने में दिखाई निर्लज्जता के बगैर पूरी नहीं होती है। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार किसी वित्तमंत्री ने संसद में यह खुली घोषणा की हो कि उसे पूंजीपतियों से सहयोग में संकोई संकोच नहीं है। मोदी ने रक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्र को भी देशी-विदेशी पूंजी के लिए खोल दिया और अडानी तथा अंबानी को उन अभियानों में शामिल कर लिया जो सिर्फ सरकार के हाथ में होनी चाहिए। रिजर्व बैंक जैसी संस्था को कमजोर करने तथा सरकारी बैंकों को खत्म करने की कोशिशों के लिए मोदी सरकार को याद रखा जाएगा। उसने सरकारी कंपनियों को बेचने में भी कीर्तिमान बनाया है।

असंगठित क्षेत्र को खत्म करने के लिए उसने नोटबंदी की ताकि खुदरा व्यापार से लेकर असंगठित क्षेत्र का सारा कारोबार कॉरपोरेट कंपनियों को सौंपा जा सके। खेती को कॉरपोरेट हाथों में सौपने के लिए उसने तीन कानून बनाए जिसके विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर लाखों किसान छह महीने से बैठे हैं और मोदी सरकार उनके आंदोलन को तोड़ने के लिए तरह-तरह के हथकंडे आजमा रही है, लेकिन किसानों की बर्बादी लाने वाले इन कानूनों को वापस लेने के लिए तैयार नहीं है।

पूंजीपतियों के पक्ष में बेहिचक खड़े होने की भारतीय जनसंघ की प्रतिबद्धता को उसने निभाया है। इसके साथ ही केंद्रीकरण, देश के संघीय ढांचे को समाप्त करने और सेना को सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बनाने के हिंदुत्ववादी सपने को पूरा करने में भी मोदी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। कॉरपोरेट तथा हिंदुत्ववाद के घोल को पीकर चलनेवाली सरकार ने देश को इतना बीमार बना दिया है कि वह कोरोना की महामारी से लड़ने में असहाय महसूस कर रहा है।

आक्सीजन के अभाव में तड़पकर जान गंवाने और गंगा में तैरती लाशों की घटनाएं इसलिए नजर आ रही हैं कि दवा, वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां तथा निजी अस्पतालों पर नकेल कसने के लिए सरकार तैयार नहीं है। उन्हें कमाई की खुली छूट देने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है। उसे लगता है कि वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे आने वाले चुनाव जीत लेगी, लेकिन बंगाल के नतीजों ने बता दिया है कि इस राजनीति को लोग नकार रहे हैं।

(अनिल सिन्हा की यह टिप्पणी पहले समता मार्ग में प्रकाशित।)

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