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विमर्श

आजादी के बाद देश को सबसे ज्यादा लूटने वाले 'हिंदू लुटेरों' से नहीं कोई दिक्कत, नफरत सिर्फ मुस्लिमों से

Janjwar Desk
15 July 2021 5:59 AM GMT
आजादी के बाद देश को सबसे ज्यादा लूटने वाले हिंदू लुटेरों से नहीं कोई दिक्कत, नफरत सिर्फ मुस्लिमों से
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संघ और भाजपा धर्म और राष्ट्र के साथ-साथ जातीय समीकरण की विभिन्न संभावनाओं द्वारा अपनी चुनावी जीत के लिए बनाते हैं राजनीतिक रणनीति (photo : social media)

हिंदुओं में एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जिन्हें लगता है कि भारत के विभाजन के लिए सिर्फ मुसलमान ही जिम्मेदार हैं, और विभाजन के कारण सिर्फ हिन्दू ही बर्बाद हुए हैं...

राम अयोध्या सिंह की टिप्पणी

अधिकतर भारतीय वर्तमान और भविष्य की ओर देखने के बदले भूतकाल के काल्पनिक महानता और विश्वगुरु की गौरवमयी छबि के प्रति अपनी मोहग्रस्तता के कारण उस छबि के ऐसे कैदी हो जाते हैं, जो उससे बाहर निकलने का प्रयास करना ही भूल गया हो। कूपमण्डूकता की यह मानसिक बीमारी उन्हें कभी भी मानसिक रूप से स्वस्थ चिंतन-मनन के लायक रहने ही नहीं देती, और यह बीमारी वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी आने वाली पीढ़ियों को सौंपते चले जाते हैं, जिसे हम वंशानुगत बीमारी कह सकते हैं। दिमागी दिवालियापन की यह बीमारी जब संक्रामक हो जाती है तो इसे हम दिमागी महामारी कहते हैं, जिससे ग्रसित होकर न जाने हजारों साल में कितनी पीढ़ियां बर्बाद हो गईं।

भारतीयों में सबसे अधिक ऐसे लोगों की संख्या है जो पूरी जिंदगी में कुछ भी पढ़-लिख नहीं सके, सिर्फ कुछ सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास कर उन्हीं वाक्यों को रटते हुए जिंदगी गुजार देते हैं। रामायण, महाभारत, गीता, हनुमान-चालीसा जैसे ग्रंथों के नाम और उनके कुछ प्रमुख पात्रों के मनगढ़ंत कारनामों का बखान सुनते-करते हुए वे बड़े हुए और इन्हीं के बीच अपनी इहलीला भी समाप्त की। राम और कृष्ण की वंशावली, रामायण के पात्रों यथा हनुमान, बाली, सुग्रीव, जामवंत, रावण, विभिषण, मेघनाद, कुंभकर्ण , वशिष्ठ, विश्वामित्र, कैकयी, कौशल्या, सीता आदि नामों के साथ ही महाभारत के भीष्म पितामह, परासर, वेदव्यास, शांतनु, पांडु, धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर,भीम, अर्जुन, कर्ण, दुर्योधन, दुशासन, जयद्रथ, अश्वत्थामा, विदुर, शकुनि, गंधारी, कुंती, द्रोपदी जैसे नामों की फेहरिस्त रटते अपनी पूरी जिंदगी गुजार देते हैं।

इन ग्रंथों में वर्णित सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्वरूपों, परिस्थितियों, उनके अंतर्संबंधों, अंतर्द्वंद, समस्याओं और उनके परिणामों के संबंध में उनकी जानकारी शून्य ही होती है। हां, कहीं-कहीं से एकाध वाक्य रट जाते हैं, और सारी जिंदगी उसी को दुहराते रहते हैं।

ऐसे लोगों को तो यह भी पता नहीं होता है कि भारत में रहने वालों को कब से हिन्दू कहा जाने लगा? भारतीय शब्द के उच्चारण मात्र से ही वे बेचैन हो जाते हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी पहचान के अलावा और किसी भी पहचान को वे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। कोई इसी हिन्दू पहचान लेकर वैदिक युग में घूम रहा है, तो कोई मौर्य और गुप्त काल में, कोई पृथ्वीराज के युग में, तो कोई सल्तनत और मुगल काल में, और बाकी लोग अंग्रेजी हुकूमत के समय में टहल रहे हैं। आज भी अधिकतर भारतीय 1947 में भारत के विभाजन का बोझ माथे पर लादे घूम रहे हैं। न यह बोझ खुद उतरता है, और न ही वे स्वयं इस लायक हैं कि इसे उतार सकें। हिंदू-मुस्लिम का भूत उनके सिर से उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है।

यह बात खुली किताब की तरह स्पष्ट है कि आजादी के बाद से भारत की संपत्ति, संपदा और प्राकृतिक संसाधनों को सबसे अधिक हिन्दुओं ने लूटा है, चाहे वे पूंजीपति और कारपोरेट घराने के हों, राजनीतिक दलों के नेता हों या फिर नौकरशाह, दलाल, ठेकेदार, माफिया, तस्कर, भ्रष्टाचार में लिप्त कोई और हों। भारत की संपत्ति लूटकर अपनी तिजोरी भरने वाले इन हिन्दू लुटेरों से इनको कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत इन्हें सिर्फ मुसलमान शब्द से है। इनके लिए भारत की सारी समस्याओं के जड़ में सिर्फ मुसलमान हैं, अगर भारत में मुसलमान नहीं होते, तो आज भी भारत सोने की चिड़िया होता, और सारे हिन्दू दुनिया के सारे सुख भोग रहे होते।

अब इन मूर्खों को कौन समझाए कि आज अगर भारत में मुसलमान नहीं भी होते तो भी भारत की आबादी इतनी ही होती, जितनी आज है। हिन्दुओं से जुड़े शास्त्रों में पुत्र पैदा करने के लिए लोगों को जिस तरह से प्रेरित किया गया है, और पुत्र की महिमा का जिस तरह से बखान किया गया है, वह लोगों को अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए मानसिक तौर पर तैयार करना ही है। आज भी जिस महिला को बच्चे नहीं होते, उसे अशुभ और कुलक्षणी माना जाता है। बच्चे पैदा करने के लिए महिलाओं पर कितने अत्याचार किए जाते हैं, और किस तरह से उन्हें अपमानित किया जाता है, यह हर कोई जानता है।

बहुसंख्यक हिन्दू यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि भारत के पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों, नेताओं, नौकरशाहों और उच्च मध्यम वर्ग द्वारा किए गए लूट और संपत्ति और पूंजी के केन्द्रीकरण के कारण ही बहुसंख्यक भारतीयों की स्थिति इतनी दयनीय है। आर्थिक विषमता जैसी बातों को वे समझने के काबिल हैं ही नहीं। वे बेचारे तो इतना भी नहीं जानते हैं कि देश के सारे लूटेरे धर्म और राष्ट्र का ठेकेदार बन देश को लूट रहे हैं, और बहुसंख्यक भारतीय गरीबी, लाचारी, बेबसी, भुखमरी,महंगाई, कुपोषण, अशिक्षा और रोग के मकड़जाल में फंसा कराह रहा है।

इन्हीं लुटेरों ने अपने जरखरीद मीडिया घरानों द्वारा रात-दिन प्रचार के माध्यम से इन बहुसंख्यक भारतीयों के अवचेतन मन में इस बात को गहरे बैठा दिया है कि भारत के हिन्दुओं की यह आर्थिक विपन्नता और दुर्गति के मूल कारण मुसलमान हैं, जो अधिक से अधिक बच्चे पैदा कर अपनी संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि कर रहे हैं, और एक दिन ऐसा भी आएगा जब भारत में मुसलमान बहुसंख्यक और हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यही बात उन्हें डरवाने और हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण में सहायक है, जो अंततः संघ और भाजपा के पक्ष में जाता है, जो धर्म और राष्ट्र के साथ-साथ जातीय समीकरण की विभिन्न संभावनाओं के द्वारा अपनी चुनावी जीत के लिए राजनीतिक रणनीति बनाते हैं।

भारत की यह बहुसंख्यक हिन्दुओं की आबादी अपने घर में घुसे चोरों और लूटेरों को न पहचान उन्हीं के द्वारा शोर मचाने और दूसरे को चोर के रूप में प्रक्षेपित कर उन्हें बहुसंख्यक हिन्दुओं की नजर में दुश्मन बनाकर पेश करते हैं। मूर्खता और धर्म की बेड़ियों में जकड़ा यह बहुसंख्यक भारतीयों की आबादी अपने ही धर्मावलंबियों द्वारा लूटे जाने के बाद भी इन्हीं लूटेरों की जय-जयकार भी कर रही है। आज के भारत की यही सबसे बड़ी विडंबना और त्रासदी है।

ऐसी सोच रखने वाले हिन्दुओं में एक बड़ी जमात वैसे लोगों की है, जो भारत के विभाजन के बाद शरणार्थियों के रूप में भारत में आकर शरण लिए, और विभाजन की वह त्रासदी उनके मानस में ऐसी मनोग्रंथि के रूप में बैठ गई है कि वे हर बात या समस्या को हिंदू-मुसलमान के नजरिए से ही देखने के लिए अभिशप्त हैं। उनको यही लगता है कि भारत के विभाजन के लिए सिर्फ मुसलमान ही जिम्मेदार हैं, और विभाजन के कारण सिर्फ हिन्दू ही बर्बाद हुए हैं।

इसलिए आज की हर समस्या के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराना उनके लिए सबसे अधिक सुविधाजनक होता है। यह अतार्किक और तथ्यहीन सोच उन्हें मानवीय दृष्टिकोण से सोचने ही नहीं देता, और वे अक्सर ही धार्मिक विमर्श के शिकार हो जाते हैं, और ऐसी ही परिस्थितियां धर्म और राष्ट्र के नाम पर राजनीति करने वालों के लिए मुफीद होता है। काश, हम धर्म और राष्ट्र के ठेकेदारों की नियत और नीति को समझ पाते।

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