Republic Day 2022: सत्ता में बैठे आका कभी गणमान्य नहीं बन पाए
Republic Day 2022: सत्ता में बैठे आका कभी गणमान्य नहीं बन पाए
महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट
Republic Day 2022: फिर गणतंत्र दिवस आ गया, वही भाषण, वही झांकियां और वही रोशनी से सराबोर रायसीना हिल| यह सब गणतंत्र दिवस के नाम पर किया जाता है, पर क्या आपको इसमें कहीं भी गण नजर आता है| बहुत पुराने जवाने से यह प्रथा चली आ रही है कि जिस किसी विषय की सत्ता में बैठी हस्तियाँ लगातार तौहीन करती हैं, उसके जलसे का पैमाना बढ़ा देती हैं| हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों से जनता शोषित है और सत्ता हरेक तरीके के जलसे में व्यस्त है| जब संविधान और संसद का तिरस्कार बहुत सामान्य हो चला तब इस दिन के जलसे का पैमाना बढ़ता ही जा रहा है| गणतंत्र दिवस का आकर्षण झाकियां होती हैं, जिसमें से अधिकतर समय तमाम हथियार जनता को और दुनिया को दिखाए जाते हैं| पता नहीं गणतंत्र दिवस पर हथियार के प्रदर्शन की परंपरा क्यों शुरू की गयी होगी| जनता को यह शायद समझ में नहीं आया है कि ये सभी हथियार जनता पर ही चलाये जायेंगें| ड्रोन, और दूसरे जासूसी उपकरण भी आतंकवादियों का हवाला देकर विकसित किये गए थे, पर उनका उपयोज अब अपनी जनता की जासूसी के लिए व्यापक तरीके से किया जा रहा है, इसी सरकार ने हरेक विश्विद्यालय में टैंक रखने की योजना बनाया था| कुछ वर्षों बाद किसी प्रदर्शन और धरना से निपटने के लिए संभव है ब्रह्मोस जैसी मिसाइल का सरकार प्रयोग करने लगे|
देश के आधी से अधिक जनता भूखी है और मिसाइलें देखकर तालियाँ बजाती है, बेरोजगार टैंक देखकर तालियाँ बजाते हैं और झुग्गी-झोपडी वाले वायु सेना के जहाज़ों के करतब देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं| यही हमारे गणतंत्र के मायने हैं| वैसे भी गण का मतलब सेवक होता है, यानि हमसब जनता जो हैं, वह सत्ता की सेवक है| यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि हम तो जन्मजात गण बन गए, पर सत्ता में बैठे आका कभी गणमान्य नहीं बन पाए|
हरिशंकर परसाई ने प्रायोजित गुजरात दंगों के अगले वर्ष गणतंत्र दिवस के दिन बड़े धूमधाम से निकलती झांकियों के बारे में लिखा था, "गणतंत्र समारोह में हर राज्य की झाँकी निकलती है| ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं| 'सत्यमेव जयते' हमारा मोटो है मगर झाँकियाँ झूठ बोलती हैं। इनमें विकास कार्य, जनजीवन, इतिहास आदि रहते हैं| असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ| गुजरात की झाँकी में दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। मगर ऐसा नहीं दिखा| यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की| दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं| मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नजदीक पहुंचने की कोशिश की थी| झाँकी में अकाल-राहत कार्य बतलाए गए थे| पर सत्य अधूरा रह गया था| मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था| मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झाँकी में झूठे मस्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करने वाले का अँगूठा हज़ारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता| नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता| उस झाँकी में वह बात नहीं आई| पिछले साल स्कूलों के 'टाट-पट्टी कांड' से हमारा राज्य मशहूर हुआ| मैं पिछले साल की झाँकी में यह दृश्य दिखाता- 'मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं|"
इसी तरह गणतंत्र दिवस के समय जिन पद्म पुरस्कारों का ऐलान किया जाता है उसका भी यही हाल है| पिछले कुछ वर्षों से पुरस्कार देश का प्रतिनिधित्व करने वालों को नहीं बल्कि सत्ता की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वालों को बड़ी बेशर्मी से दिए जा रहे हैं| गूगल और माइक्रोसॉफ्ट – दोनों कम्पनियां केवल सरकार के एजेंडा को आगे बढाने में तल्लीन हैं और साथ ही स्वतंत्र विचारधारा के विस्तार को रोक रही हैं, इसीलिए पिच्चई और नाडेला को पद्म पुरस्कार देने का ऐलान किया जाता है| सोनू निगम को मस्जिदों के अजान से चिढ़ है, पर बीच सड़क पर आयोजित जगराता से नहीं, जिसके वे बचपन में एक हिस्सा थे| गुलाम नबी आजाद का राजनीति में ऐसा क्या योगदान है जिसके लिए उन्हें पुरस्कार दिया गया है, यह सबकी समझ से परे है| पुरस्कारों का यदि यही हाल रहा तो संभव है जल्दी ही पेगासस के मालिकों को भी यह पुरस्कार मिल जाएगा|
गणतंत्र का एक नजारा हम आजकल देख रहे हैं – सत्ता अपने लिए आलिशान भवनों का निर्माण करा रही है और जनता के मन में अंग्रेजों के बनाए भवनों के तिरस्कार का उन्माद पैदा कर रही है| दूसरी तरफ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा उन्हीं अंग्रेजों की बनाई छतरी के नीचे स्थापित कर रही है| जालियांवाला बाग को स्मारक से बदलकर पिकनिक स्पॉट में तब्दील कर दिया गया और जो लोग बड़ी बेशर्मी से बांग्लादेश जाकर बांग्लादेश की आजादी के नाम पर जेल जाने की चर्चा कर रहे थे वही इसके शहीदों की याद में जलती मशाल को बुझा चुके हैं|
हिन्दी कविताओं में अनेक कवितायें गणतंत्र दिवस से सम्बंधित हैं और अधिकतर में इसके महत्त्व का ही वर्णन है| अब यह विषय पुराना पड़ गया है, पर आज के दौर में यदि कवितायें लिखी जातीं तब शायद देश की बरबादियों का आलम ही नजर आता| हरिवंशराय बच्चन की एक कविता है, गणतंत्र दिवस, जिसमें उन्होंने इसका मतलब समझाया है|
गणतंत्र दिवस/हरिवंशराय बच्चन
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो|
इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,
कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,
इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,
और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!
किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा|
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो|
जय बोलो उस धीर व्रती की जिसने सोता देश जगाया,
जिसने मिट्टी के पुतलों को वीरों का बाना पहनाया,
जिसने आज़ादी लेने की एक निराली राह निकाली,
और स्वयं उसपर चलने में जिसने अपना शीश चढ़ाया,
घृणा मिटाने को दुनियाँ से लिखा लहू से जिसने अपने,
"जो कि तुम्हारे हित विष घोले, तुम उसके हित अमृत घोलो|"
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो|
कठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना,
कठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना,
ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें,
किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना,
बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं,
बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो|
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो|
कटीं बेड़ियाँ औ' हथकड़ियाँ, हर्ष मनाओ, मंगल गाओ,
किंतु यहाँ पर लक्ष्य नहीं है, आगे पथ पर पाँव बढ़ाओ,
आज़ादी वह मूर्ति नहीं है जो बैठी रहती मंदिर में,
उसकी पूजा करनी है तो नक्षत्रों से होड़ लगाओ|
हल्का फूल नहीं आज़ादी, वह है भारी ज़िम्मेदारी,
उसे उठाने को कंधों के, भुजदंडों के, बल को तोलो|
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो|
विमल राजस्थानी की एक कविता है, अड़तीसवें गणतंत्र दिवस पर – इसमें उन्होंने सिख दंगों को याद किया है|
अड़तीसवें गणतंत्र दिवस पर/विमल राजस्थानी
मौत आयी तो कहा मैंने-रहम कर, रूक जा
आज गणतंत्र दिवस है, मैं मना लूँ तो चलूँ
धुँए से लाल हुई आँखें बरसना चाहें
माँ के आँचल में लगी आग, बुझा लूँ तो चलूँ
खून तो सिख का है, हिन्दू का लहू पानी है
अरे नादानो ! फकत यह तो बदगुमानी है
एक ही खून है, है एक धरा, एक गगन
दोनों की कटि से बँधी एक ही 'भवानी' है
चुने दीवार में दो बच्चे गये थे क्यौं कर
क्यौं बने सिख, ये कहानी मैं सुना लूँ तो चलूँ
देश के टुकड़े जो करने को हैं उनको रोकूँ
नीच जयचन्दों की टोली को डपट कर, टोकूँ
देश के दुश्मनों के पेट में खंजर भोकूँ
वतन को चाहने वालों में जिंदगी फूँकूँ
अपनी मिट्टी का तिलक माथे लगा लूँ तो चलूँ
देश की भक्ति के कुछ गीत बना लूँ तो चलूँ
गणतंत्र दिवस के दिन संविधान लागू किया गया था, पर आज के दौर में गणतंत्र दिवस तो है पर संविधान विलुप्त हो चुका है. इसी संविधान पर अरुण कमल की एक चर्चित छोटी कविता है, संविधान का अंतिम संशोधन|
संविधान का अंतिम संशोधन/अरुण कमल
संसद के संयुक्त अधिवेशन ने ध्वनि मत से
संविधान का अन्तिम संशोधन पारित कर दिया
जिसके अनुसार अब से किसी भी सिक्के में
एक ही पहलू होगा
इस प्रकार सहस्रों वर्षों से चला आ रहा
अन्याय समाप्त हुआ|
पाश की भी एक चर्चित कविता है, संविधान| इसके शरुआत में ही बताया गया है, यह पुस्तक मर चुकी है|
संविधान/पाश
संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ़्ज़ों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पन्ना
ज़िन्दगी के अन्तिम पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इन्सान बनने तक
ये पुस्तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोए हुए पशु|
इस लेख के लेखक की एक कविता है, गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली| इसमें राजतंत्र और प्रजातंत्र की तुलना है|
गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली/महेंद्र पाण्डेय
राजतंत्र आज रोशनी से सराबोर होगा
प्रजातंत्र अन्धेरे में डूबा होगा
राजतंत्र में दावतें होंगी
प्रजातंत्र भूख से बेहाल होगा
राजतंत्र मौसम से बेखबर होगा
प्रजातंत्र ठिठुर रहा होगा
राजतंत्र राजाओं का स्वागत करेगा
प्रजातंत्र राह देखेगा
राजा के दया की
राजा के भीख की
प्रजातंत्र को एक बार की भीख
और, राजा के पांच साल
हमारे देश के गणतंत्र का एक कटु सत्य तो हमेशा ध्यान में रखना होगा – जनता तो आदर्श गण बन गयी, पर सत्ता गणमान्य नहीं बन पाई. जिस दिन सत्ता सही मायने में गणमान्य बन जायेगी, उस दिन से गणतंत्र दिवस जनता का पर्व होगा, राजा मंत्री और संतरी का नहीं.