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विमर्श

तालिबानी गुंडागर्दी का न्यौता बनेगी नरसिम्हानंद की बदजुबानी पर BJP की चुप्पी!

Janjwar Desk
6 Sep 2021 8:43 AM GMT
तालिबानी गुंडागर्दी का न्यौता बनेगी नरसिम्हानंद की बदजुबानी पर BJP की चुप्पी!
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(अपने विवादित बयानों को लेकर चर्चाओं में रहते नरसिंहानंद)

यति नरसिम्हानंद बीजेपी समर्थक है, वह खुलेआम बीजेपी की महिला नेताओं से सम्बंधित अभद्र टिप्पणी करता है, पर उसके खिलाफ एक भी महिला नेता, किसी मंत्री या प्रधानमंत्री की जुबान नहीं खुलती है...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। पिछले कुछ दिनों से सरकार के चरणों पर गिरा मेनस्ट्रीम मीडिया जोर-शोर से प्रचारित कर रहा है – संभव है वर्ष 2027 में देश को पहली महिला प्रधान न्यायाधीश मिले। शायद मीडिया हमें तसल्ली दे रहा है कि यदि प्रधान न्यायाधीश महिला होंगी तो हमारे समाज में महिलाओं की सारी समस्याएं ख़त्म हो जायेंगी और उन पर होने वाले अन्याय ख़त्म हो जायेंगे। हमारे देश में तो महिला राष्ट्रपति, महिला प्रधानमंत्री, महिला लोकसभा स्पीकर और दूसरी लगभग हरेक बड़ी पोस्ट पर महिलायें काबिज रही हैं, पर क्या अब तक महिलाओं की स्थिति में कोई सुधार आया है?

महिलाओं की हालत तो यह है कि एक व्यक्ति जो बीजेपी समर्थक है वह खुलेआम बीजेपी की महिला नेताओं से सम्बंधित अभद्र टिप्पणी करता है, पर उसके खिलाफ एक भी महिला नेता, किसी मंत्री या प्रधानमंत्री की जुबान नहीं खुलती है। अभद्र टिप्पणी करने वाले यति नरसिंहानंद (Yati Narsimhanand Sarswati) की विशेषता यह है कि वे किसी मंदिर के महंत हैं और धार्मिक उन्माद पैदा करने में अग्रणी भी – जाहिर है ऐसी विशेषताओं वाला व्यक्ति उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को प्रिय होगा, भले ही वह महिलाओं के विरुद्ध जहर उगलता हो।

कुछ वर्ष पहले बीजेपी की दिग्गज नेता स्वर्गीय सुषमा स्वराज (Sushma Swraj) को भी सोशल मीडिया पर बुरी तरह से ट्रोल किया गया था और उनके बारे में लगातार अभद्र कमेन्ट किये जा रहे थे, पर सत्ता में बैठी एक भी महिला नेता ने और हरेक जानकारी का दावा करने वाले प्रधानमंत्री ने एक भी वक्तव्य नहीं दिया था, जबकि विपक्षी महिला नेताओं ने और नितिन गडकरी ने भी ऐसे लोगों की भर्त्सना की थी।

जब धार्मिक कट्टरपंथी और पुरातनपंथी गिरोह पर छद्म राष्ट्रवाद का लेप लगता है तब हमारे देश में बीजेपी, म्यांमार में सेना, अमेरिका में रिपब्लिकन्स और अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का जन्म होता है। इसके बाद समाज में दो महत्वपूर्ण बदलाव होते हैं – समाज हिंसक हो जाता है, और महिलाओं का अस्तित्व मिटने लगता है, उनकी आजादी छीन जाती है। ऐसी विचारधारा वाली महिलाओं की सोच भी महिलाओं वाली नहीं रहती।

हमारे देश की सत्ता में भागीदारी निभाती एक भी महिला ने किसी बलात्कार के बारे में कुछ नहीं कहा, लैंगिक समानता के बारे में कुछ नहीं कहा, अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं के बारे में कुछ नहीं कहा – या फिर महिलाओं से जुड़े मुद्दे पर कभी कुछ नहीं कहा। दूसरी तरफ राहुल गांधी के हरेक बयान पर यही महिलायें अभद्र वक्तव्य देती हैं। हाल में ही अपने आप को महान अर्थशास्त्री समझाने वाली निर्मल सीतारमण ने सार्वजनिक संपत्तियों की सरकार द्वारा बिक्री पर किये गए राहुल गाँधी के कमेन्ट पर बड़े गर्व से कहा था, राहुल गांधी को इन संपत्तियों की चिंता क्यों है, क्या ये संपत्तियां उनके जीजा जी की है। बीजेपी की शीर्ष महिला नेता लगातार अपना चाल, चरित्र और चेहरा उजागर करती हैं। स्मृति इरानी तो अपने मंत्रालय के काम से अधिक राहुल गांधी पर भोंडे वक्तव्य देने के लिए ही चर्चा में रहती हैं। यही सारी महिलायें प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपनी पत्नी को छोड़ने को भी जायज ठहराती हैं।

आप किसी भी दिन का समाचारपत्र उठाकर देखिये, देशभर में महिला नेताओं द्वारा अधिकारियों से मारपीट या गाली-गलौज की खबरें आती रहती हैं, और ये सभी खबरें बीजेपी की महिला नेताओं से जुडी होती हैं। जो महिलायें हिम्मत कर सरकारी नीतियों का विरोध करती हैं, उनके चरित्र हनन करने में मीडिया के साथ ही बीजेपी की महिला नेताएं भी खूब आगे रहती हैं।

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महिलाओं द्वारा नागरिकता संशोधन क़ानून का जब शाहीन बाग में विरोध किया जा रहा था, तब महिला नेताओं के ऐसे वक्तव्य लगातार सुने जाते थे। हमारे प्रधानमंत्री महिलाओं के अधिकारों और सुरक्षा के सन्दर्भ में कितने संवेदनशील हैं, इसका उदाहरण तो हाल में ही मिला – जब उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार को क़ानून और व्यवस्था के मामले में देश में सर्वश्रेष्ठ राज्य का दर्जा ऐसे समय दिया था जब वहां रोज अनेकों बलात्कार और बलात्कार के बाद हत्याएं हो रही थी और हरेक मामले में पुलिस कार्यवाही तो दूर एफ़आईआर भी दर्ज नहीं कर रही थी।

पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति ऐसी ही हो रही है, लैंगिक समानता में पिछले कुछ दशकों में जितनी आगे दुनिया बढ़ रही थी, अब तो उससे भी तेजी से पीछे जा रही है। दरअसल दुनिया में धार्मिक कट्टरता और नस्लभेदी विचारधारा का वर्चस्व बढ़ रहा है, और धार्मिक कट्टरता किसी भी धर्म से जुडी हो सबसे पहले महिलाओं की आजादी का हनन करती है। अपने देश का हिन्दू कट्टरवाद, तालिबान का मुस्लिम कट्टरवाद, जापान का बौद्ध कट्टरवाद या फिर अमेरिका में ट्रम्प के समय से उपजा क्रिश्चियन कट्टरवाद – हरेक कट्टरवाद अपना पहला निशाना महिलाओं को ही बनाता है और उनकी आजादी छीनता है।


दुनिया में लैंगिक समानता के सन्दर्भ में विकसित देशों में जापान सबसे पीछे है। अमेरिका के रिपब्लिकन शासन वाले राज्यों में हाल में ही गर्भपात पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। ऐसे ही प्रतिबन्ध अनेक यूरोपीय देशों और दक्षिण अमेरिकी देशों में, भी लागू किये गए हैं। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का महिलाओं से व्यवहार पर तो पूरी दुनिया चर्चा कर रही है।

दुनियाभर की महिलाओं की समस्या इन दिनों आन्दोलनों के तौर पर सामने आ रही है, जिसमें महिलायें अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। पिछले वर्ष से कोविड 19 के खतरों के बीच भी महिलायें दुनिया के बहुत सारे देशों में सरकारों के विरुद्ध आन्दोलनों में अग्रणी भूमिका में हैं। पिछले वर्ष अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों के पहले लगभग सभी बड़े शहरों में महिलाओं ने राष्ट्रपति ट्रम्प और उनकी रिपब्लिकन पार्टी के विरुद्ध रैलियों का आयोजन किया। इसका आयोजन विमेंस मार्च नामक संस्था ने किया था और इसकी एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर रचेल कारमोना के अनुसार ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद विरोध में पहली रैली महिलाओं ने की थी, और अब इसका अंत भी महिलाओं के वोट से ही होगा। रैली में अनेक महिलाओं के हाथों में तख्तियां थी, जिनपर लिखा था 'अपनी बच्चियों के सुनहरे भविष्य के लिए रिपब्लिकन उम्मीदवारों को वोट ना दें।'

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अमेरिका से दूर यूरोप के बेलारूस में कुछ महिलाओं ने मिलकर राष्ट्रपति एलेग्जेंडर ल्युकाशेन्को के विरुद्ध ऐसा अभूतपूर्व आन्दोलन शुरू किया, जिससे आने वाले वर्षों में दुनिया भर में जनआन्दोलनों की दिशा बदल सकती है। इतने बड़े जन-आन्दोलन बेलारूस के इतिहास में कभी नहीं किये गए। राष्ट्रपति एलेग्जेंडर ल्युकाशेन्को को यूरोप का अकेला तानाशाह कहा जाता है, जो हरेक चुनाव के पहले सभी विरोधियों को जेल में बंद कर देते हैं, नजरबन्द कर देते हैं या फिर चुनावों के लिए अयोग्य करार देते हैं।

महिलाओं द्वारा शुरू किये गए आन्दोलनों में प्रायः अधिक संख्या में लोग शामिल होते हैं, ऐसे आन्दोलन अहिंसक रहते हैं और अधिकतर मामलों में सफल भी रहते हैं महिलाओं द्वारा आन्दोलनों की शुरुआत का इतिहास पुराना है, और ऐसा लगातार होता रहा है हाल के वर्षों में अल्जीरिया, लेबनान, सूडान, अमेरिका, भारत, पोलैंड, ब्राज़ील और इरान में ऐसे आन्दोलन किये जा चुके हैं। हमारे देश में नागरिकता क़ानून के विरुद्ध दिल्ली के शाहीन बाग़ के आन्दोलन की चर्चा पूरी दुनिया में की गई, और प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम ने वर्ष 2020 के दुनिया के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों की सूचि में बिलकिस दादी को भी शामिल कर इस आन्दोलन को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान दिया। इस आन्दोलन का आरम्भ 15 दिसम्बर की ठिठुरती रात में लगभग 50 महिलाओं ने किया था।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर एरिका चेनोवेथ और जोए मार्क्स ने 2010 से 2014 के बीच दुनियाभर में किये गए बड़े आन्दोलनों का विस्तृत अध्ययन किया है। इनके अनुसार 70 प्रतिशत से अधिक अहिंसक आन्दोलनों की अगुवाई महिलाओं ने की है। इनके अनुसार महिलाओं की अगुवाई वाले आन्दोलन अपेक्षाकृत अधिक बड़े और अधिकतर मामलों में सफल रहे हैं। महिलाओं के आन्दोलन अधिक सार्थक और समाज के हरेक तबके को जोड़ने वाले रहते हैं, इनकी मांगें भी स्पष्ट होती हैं। महिलायें आन्दोलनों के नए तरीके अपनाने से भी नहीं हिचकतीं।

थाईलैंड में राजशाही के विरुद्ध और प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग को लेकर लगातार प्रदर्शन किये जा रहे हैं। थाईलैंड के राजा, राजशाही की संपत्ति जो अब तक चैरिटी के नाम है, अपने नाम करना चाहते हैं, और फ़ौज पर पूरा नियंत्रण चाहते हैं। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री एक निरंकुश शासक हैं। सेना और पुलिस के बार-बार चेतावनी के बाद भी ये आन्दोलन थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। इन आन्दोलनों में भी महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से अधिक है।

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मेक्सिको की महिलायें अगस्त 2019 से लगातार आन्दोलन कर रही हैं। यह आन्दोलन महिलाओं की हत्या, बलात्कार या फिर महिलाओं को गायब किये जाने के विरुद्ध है। अगस्त 2019 में एक पुलिस ऑफिसर ने एक महिला से बलात्कार किया था, और सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। इसके बाद से लगातार आन्दोलन किये जा रहे हैं। मार्च 2020 में महिलाओं ने देशव्यापी हड़ताल किया था, इसमें नौकरीपेशा महिलाओं ने भी हिस्सा लिया था। इस वर्ष 15 सितम्बर को, मेक्सिको के स्वतंत्रता दिवस के दिन, महिलाओं ने सेंट्रल ह्यूमन राइट्स कमीशन के कार्यालय को अपने अधिकार में लिए था, जिसे पीड़ित महिलाओं के आश्रय स्थल में बदल दिया।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर एरिका चेनोवेथ और जोए मार्क्स के अनुसार पुलिस या सरकारें महिला आन्दोलनों का दमन केवल महिलाओं के कारण नहीं करतीं बल्कि महिलाओं के आन्दोलन के नए तरीके और अहिंसा से वे भी अचंभित रहते हैं। आन्दोलनों के इतिहास में 1980 के दशक तक हिंसक आन्दोलनों का जोर रहा, पर इसके बाद एकाएक आन्दोलनों में महात्मा गांधी के अहिंसक, सविनय अवज्ञा और असहयोग आन्दोलनों के तरीके शामिल हो गए। ऐसा दुनियाभर में किया जा रहा है, और भारत में भले ही महात्मा गांधी को भुला दिया गया हो, पर वैश्विक स्तर पर आज के आन्दोलन उन्हीं की राह पर किये जा रहे हैं। अहिंसा का समावेश होते ही महिलाओं की संख्या आन्दोलनों में बढ़ने लगी और अब तो वे दुनियाभर में आन्दोलनों का नेतृत्व कर रही हैं।

कुछ महीनों पहले जर्मनी की चांसलर अंजेला मार्केल ने महिलाओं के सशक्तीकरण की वकालत करते हुए कहा कि दुनियाभर में राजनीति, व्यापार, विज्ञान और संस्कृति में महिलाओं की भागीदारी बढ़नी चाहिए। मार्केल के अनुसार वे जर्मनी में सबसे ऊंचे पद पर हैं, इसका मतलब यह नहीं कि महिलायें बहुत आगे बढ़ गयी हैं। महिलाओं को हरेक जगह बराबरी का दर्जा पाने के लिए प्रयासरत रहने की आवश्यकता है। कुछ महीनों पहले बांग्लादेश की राजधानी ढाका में अवामी लीग समेत अनेक राजनैतिक दलों के 50 महिला प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें कहा गया कि लगभग सभी राजनीतिक दल महिलाओं को केवल महिला ही समझते हैं, इंसान नहीं।

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वर्तमान दौर में जब दुनियाभर में महिलायें कम से कम राजनीति में आगे बढ़ रही हैं, एक नया अध्ययन यह बताता है कि महिलायें भी महिला राजनीतिज्ञों पर भरोसा नहीं करतीं। जर्मनी के जर्नल 'सेक्स रोल्स' के एक अंक में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार अधिकतर पुरुष ही नहीं, बल्कि महिलायें भी महिला राजनीतिज्ञों पर भरोसा नहीं करतीं। हमारे देश में महिलाओं की हालत और भी खराब है, जाहिर है राजनीति में भी इसका असर पड़ता है। यह सब तब है, जब राष्ट्रपति महिला रह चुकी हैं, प्रधानमंत्री महिला रह चुकी हैं, पर राजनीति में अभी तक महिलाओं की भागेदारी बहुत कम है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि महिलाओं से सम्बंधित हरेक इंडेक्स में भारत का स्थान सभी पड़ोसी देशों से नीचे रहता है, केवल अफगानिस्तान से कुछ आगे हम रहते हैं।

इतना तो स्पष्ट है कि महिला सशक्तीकरण की राह धार्मिक कट्टरवाद और उन्माद के बीच आसान नहीं है, केवल पुरुषों के विचारों में ही आमूल परिवर्तन की जरूरत ही नहीं है, बल्कि महिलाओं को भी अपने विचार बदलने पड़ेंगे। महिलाओं को समझना पड़ेगा कि वे केवल महिला ही नहीं हैं, बल्कि इंसान हैं।

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