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भाजपा का अभूतपूर्व जश्न : क्या बिहार में अब समाजवादियों का सिर्फ प्रतीकात्मक शासन होगा?
बिहार चुनाव प्रचार के दौरान लगाया गया नीतीश कुमार का एक कटआउट।
राहुल सिंह का विश्लेषण
जनज्वार। बिहार के सत्ताधारी गठबंधन में बड़ी पार्टी बनने के मौके ने भाजपा को 10 नवंबर को असीम सुख दिया है। राजनीति में उसका यह सुख, उपलब्धि अभूतपूर्व व अद्वितीय है। बिहार समाजवादी आंदोलनों की जन्मभूमि और गढ रहा है। जनता परिवार की जड़ें जब गुजरात, कर्नाटक जैसे राज्यों में सूख गईं, उत्तरप्रदेश में यह धारा संकटों में घिरती दिखी, तब भी बिहार में उसकी जड़ें गहरी रहीं। लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार जैसे बड़े समाजवादी चेहरे बिहार की राजनीति की धुरी बने रहे, लेकिन अब स्थितियां बदलती दिख रही हैं। अब मुख्यमंत्री तो नीतीश होंगे लेकिन इसके पक्के संकेत हैं कि सत्ता की धुरी अब भाजपा होगी।
बिहार में सबका साथ-सबका विकास, सबका विश्वास के मंत्र की जीत हुई है।
— BJP (@BJP4India) November 11, 2020
बिहार में विकास के कार्यों की जीत हुई है।
मैं बिहार के अपने भाइयों और बहनों से कहूंगा कि,
आपने एक बार फिर सिद्ध किया है कि बिहार क्यों लोकतंत्र की जमीन कहा जाता है।
वाकई, बिहारवासी पारखी भी हैं और जागरूक भी। pic.twitter.com/UG8eMNZ2I8
नरेंद्र मोदी युग के आरंभ के बाद भाजपा जब भी कोई चुनाव जीतती है तो वह जश्न का आयोजन करती है, लेकिन 11 नवंबर की शाम दिल्ली के भाजपा मुख्यालय में पहली बार भाजपा ने इतने व्यापक स्तर पर बिहार की जीत का जश्न मनाया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत उसके तमाम शीर्ष नेता शामिल हुए। भाजपा के इस आयोजन में नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, अमित शाह व नितिन गडकरी की मौजूदगी समजावाद के अभेद्य दुर्ग पर भगवा झंडा लहराने का प्रतीक ही था।
इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पुराने अंदाज में बिहार की जीत को अपनी जीत बताया। नीतीश कुमार की शराबबंदी से बने गुम्मा वोटर का भी श्रेय प्रधानमंत्री मोदी ने लिया, जिसमें महिलाओं की संख्या प्रमुख रूप से गिनायी जाती है। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में यह संकल्प दोहराया कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही हम संकल्प सिद्ध करेंगे। यानी मुख्यमंत्री वही होंगे। भाजपा ने बिहार में 74 सीटें हासिल की हैं और सबसे बड़ी पार्टी राजद से उसकी सीट एक कम है।
सीटों का फासला जदयू से अब भाजपा के पक्ष में आया
भाजपा के लिए यह अभूतपूर्व उपलब्धि इस मायने में है कि वह पहली बार सत्ताधारी गठबंधन में बहुत अधिक सीटों के अंतर से बड़ी पार्टी बनी है। जदयू की 43 सीटों के मुकाबले उसके पास 31 सीटें अधिक हैं। हालांकि बिहार ने इससे पहले 2010 में नीतीश के साथ चुनाव लड़कर 91 सीटें जीती थी, लेकिन जब तब जदयू के पास उससे 24 अधिक यानी 115 विधायक थे। पिछले विधानसभा में भी जब दोबार जदयू भाजपा ने मिलकर सरकार बनायी तो जदयू के पास उल्लेखनीय रूप से भाजपा से अधिक सीटें थीं, लेकिन फासले की यह दिशा अब उल्टी हो गई है। अब भाजपा बड़े फासले के साथ बड़े भाई की भूमिका में है और उसके लिए वादे के अनुरूप नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनाने या कोई नया विकल्प चुनने का भी मौका है।
नीतीश ही मुख्यमंत्री क्यों?
नीतीश का राजनीतिक कद काफी बड़ा है। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने नीतीश कुमार को कहा है कि अब बिहार आपके लिए छोटा है और देश की राजनीति में आ जाएं और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एकजुट करने में योगदान दें। वे समाजवादी धारा के देश के शीर्ष नेताओं में वे शुमार किए जाते हैं। इस बार के चुनाव में चारों तरफ से घिरने के बावजूद व चिराग पासवान के नीतीश कुमार के उम्मीदवारों को हराने के संकल्प के बाद भी उनकी पार्टी ने 43 सीटें हासिल की हैं। यह कहा जा रहा है कि नीतीश को 20 से 25 सीटों का नुकसान लोजपा के अलग होने से हुआ है।
नीतीश ने जितनी मुश्किल लड़ाई अपने नेतृत्व में जीती है, उससे विश्लेषकों के एक तबके का कहना है कि इससे नीतीश की सीटें भले कम हो गईं हों लेकिन कद और बड़ा हुआ है। खुद सुशील कुमार मोदी ने कहा है कि देश में ऐसे बहुत कम मुख्यमंत्री हुए हैं जिन्हें चार बार लगातार जनादेश मिला है। उधर, दिग्विजय सिंह ने नीतीश की सीटें कम होने की ओर संकेत करते हुए कहा है भाजपा को अमरबेल बताया है जो जिस पेड़ पर लटकती है, वह सूखाता जाता है और वह पनपती जाती है।
भाजपा/संघ अमरबेल के समान हैं, जिस पेड़ पर लिपट जाती है वह पेड़ सूख जाता है और वह पनप जाती है।
— digvijaya singh (@digvijaya_28) November 11, 2020
नितीश जी, लालू जी ने आपके साथ संघर्ष किया है आंदोलनों मे जेल गए है भाजपा/संघ की विचारधारा को छोड़ कर तेजस्वी को आशीर्वाद दे दीजिए। इस "अमरबेल" रूपी भाजपा/संघ को बिहार में मत पनपाओ।
नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए रखने से भाजपा उनके सर्वस्वीकार्य चेहरे का लाभ लेगी और अपने एजेंडे पर अधिक सहज होकर काम कर पाएगी। भजपा की आव-भाव से यह भी लग रहा है कि मुख्यमंत्री तो नीतीश कुमार होंगे, लेकिन सरकार अब उसकी होगी। लेकिन, नीतीश की पुरानी शैली से यह भी सवाल उठता है कि वे किस हद तक दबाव व बंदिशों को झेलेंगे?
नीतीश कुमार ने चुनाव परिणाम पर 30 घंटे तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और प्रधानमंत्री ने जब भाजपा मुख्यालय के आयोजन में नीतीश के नेतृत्व का ऐलान किया तब उन्होंने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए पहला ट्वीट किया कि वे प्रधानमंत्री से मिले रहे सहयोग को लेकर आभारी हैं। नीतीश के इस ट्वीट में विनम्रता व शिष्टाचार के साथ एहसानमंद होने व लाचारगी का भी भाव है।
जनता मालिक है। उन्होंने NDA को जो बहुमत प्रदान किया, उसके लिए जनता-जनार्दन को नमन है। मैं पीएम श्री @narendramodi जी को उनसे मिल रहे सहयोग के लिए धन्यवाद करता हूँ।
— Nitish Kumar (@NitishKumar) November 11, 2020
भाजपा नीतीश के साथ जुटी रहेगी लेकिन उनका राजनीतिक आभामंडल उसके बढते प्रभाव में कम होता जाएगा। इसे आने वाले सालों में बिहार की राजनीति में राजद के साीधे मुकाबले में भाजपा आ सकती है। नीतीश कुमार ने पूर्णिया में यह ऐलान भी कर दिया है कि यह उनका आखिरी चुनाव है और अगले चुनाव तक उनकी उम्र 75 साल के आसपास हो जाएगी। जाहिर है हर किसी को एक समय रिटायर तो होना ही होता है।
बिहार में नए बने राजनीतिक हालात से ऐसे में यह सवाल तो उठता है कि क्या संपूर्ण क्रांति की भूमि में समाजवादियों का नेतृत्व अब सिर्फ प्रतीकात्मक तौर पर रह जाएगा?