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पहला चुनाव, जिसमें विपक्ष ने सेट किया एजेंडा, क्या जातिगत गोलबंदी की जकड़न से निकल गया बिहार
जनज्वार ब्यूरो, पटना। बिहार विधानसभा चुनावों के लिए मतदान संपन्न हो चुका है। प्रत्याशियों की किस्मत ईवीएम में कैद हो चुकी है। चुनावी समीक्षक और न्यूज़ चैनल अपनी ओर से एक्जिट पोल और समीक्षात्मक आंकड़े और दावे पेश कर रहे हैं। जनता ने क्या फैसला सुनाया है, इसका पता तो 10 नवंबर को मतगणना के दिन ही चल पाएगा, पर चुनाव के बीच मतदाताओं के मूड और मिजाज, चुनावी सर्वे तथा एक्जिट पोल की अगर बात करें तो बिहार में इस बार परिवर्तन की लहर जरूर थी। नीतीश कुमार नीत एनडीए की सरकार जाने वाली है और राजद नीत महागठबंधन की सरकार बनने वाली है, ऐसी सोच मतदाताओं की देखने को मिली।
हालांकि यह चर्चा अभी सिर्फ संभावनाओं के आधार पर ही है, चूंकि एक्चुअल रिजल्ट तो 10 नवंबर को आएगा। ऐसे में यह जानना दिलचस्प होगा कि अगर यही नतीजा 10 नवंबर को आता है तो इस नतीजे के पीछे क्या कारण हो सकता है। एनडीए के नीति निर्धारकों से कहां चूक हो गई, महागठबंधन की बातों पर जनता ने क्यों भरोसा किया, एनडीए के वादों पर जनता का विश्वास इस बार क्यों नहीं जमा और किन मुद्दों ने जनता को महागठबंधन के पाले में कर दिया।
माना जाता है कि बिहार में जातिगत गोलबंदी चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाती है, खासकर विधानसभा चुनावों में। लेकिन इस बार के बिहार चुनाव में जमीनी स्तर पर एक खासियत यह देखने को मिली कि वोटिंग में जातिगत जकड़न बहुत हद तक टूट गई। बिहार का यह सँभवतः पहला चुनाव रहा, जिसमें मुद्दा विपक्ष की ओर से सेट किया गया। यही इस चुनाव की खासियत भी कही जाएगी और इस कारण से यह चुनाव लंबे वक्त तक याद रखा जाएगा तथा आगे विश्लेषक और समीक्षक इस चुनाव को एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत भी करेंगे।
महागठबंधन की ओर से सीएम फेस तेजस्वी यादव ने उनकी सरकार बनने पर कैबिनेट की पहली बैठक में 10 लाख सरकारी नौकरी देने की घोषणा कर सँभवतः इस चुनाव का एजेंडा नौकरी और रोजगार की ओर सेट कर दिया। अपनी चुनावी सभाओं में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस घोषणा को हल्का करने की कोशिश की तथा इसे लागू करने के लिए बजट और पैसे की बात उठाई। कई जगह उन्होंने इसकी आड़ लेकर लालू प्रसाद के विरुद्ध आक्रामक बातें कहीं। हालांकि लोगों ने संभवतः उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया और यह एजेंडा सेट हो गया।
बाद में बीजेपी अपने घोषणा पत्र में 19 लाख लोगों को रोजगार देने के वादे के साथ सामने आई। पर उस समय तक शायद देर हो चुकी थी या फिर जनता ने बीजेपी की अपेक्षा तेजस्वी की बातों पर ज्यादा यकीन किया। विभिन्न दलों और गठबन्धनों की चुनावी रैलियों का विश्लेषण करें, तो यह बात सामने आती है कि तेजस्वी यादव की इस घोषणा का कोई तोड़ एनडीए नहीं खोज पाया। कई सभाओं में भाषणों से ध्रुवीकरण की कोशिशें भी की गईं, पर नौकरी वाला सेट एजेंडा सुपरहिट हो गया।