प्राइवेट अस्पतालों को मोदी सरकार ने दी कोरोना टीकाकरण की इजाजत, तो क्या हो जायेगा मिशन वसूलीकरण शुरू
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
जनज्वार। मोदी सरकार ने ऐलान किया कि कोविड 19 के दूसरे स्टेज से टीकाकरण कार्यक्रम देश के 20,000 प्राइवेट अस्पतालों में भी शुरू किया जाएगा और यहाँ इसकी कीमत वसूली जायेगी, जबकि 10,000 सरकारी केन्द्रों में टीका मुफ्त में दिया जाएगा। सतही तौर पर यह एक राहत भरी खबर हो सकती है, जिसमें जनता को टीका लेने के लिए सरकार एक नया प्लेटफॉर्म मुहैया करा रही है, पर ध्यान रखिये इस सरकार की कोई भी हरकत वैसी नहीं होती, जैसी सतही तौर पर दिखाई देती है।
इस सन्दर्भ में आप कृषि कानूनों की याद कर सकते हैं, जिसमें कृषि उपज को बेचने के लिए सरकार ने नए प्राइवेट मंडी का प्रावधान रखा है और सरकार द्वारा लगातार बताया जा रहा है कि अब किसानों का भला होगा क्योंकि अब वह कहीं भी अपनी उपज बेच सकता है। सरकार की इन दलीलों को सतही तौर पर देखिये तो यही लगता है कि सरकार सही कह रही है, इससे तो किसानों का फायदा ही फायदा है। पर किसानों का ज्ञान इतना सतही नहीं है, उन्होंने तीनों कानूनों का बारीकी से अध्ययन ही नहीं किया है, बल्कि पिछले 6 वर्षों से केंद्र में बैठी सरकार के कथनी और करनी का आकलन भी बखूबी किया है, तभी उन्हें मालूम है कि इन कानूनों से किसानों और जनता को पिसना है और पूंजीपतियों की दौलत बेहिसाब बढ़नी है।
जनता को किसी भी सन्दर्भ में एक और प्लेटफॉर्म मुहैया कराना हमेशा जनता के हित में ही हो, ऐसा कम से कम इतिहास तो नहीं बताता। चीन में श्रमिकों को काम करने के लिए एक अलग सा प्लेटफॉर्म दिया गया है - एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग यूनिट्स का। यहाँ वेतन सामान्य उद्योगों की अपेक्षा अधिक मिलता है और सरकार इसे खूब प्रचारित भी करती है और कहती है इससे श्रमिकों का भला होगा। पर एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग यूनिट्स में काम करने की एक शर्त है – श्रमिकों को मानवाधिकार और श्रम कानूनों के तहत मिलने वाले अधिकारों से वंचित होना पड़ेगा। यहाँ वेतन तो मिलता है पर श्रमिकों की हैसियत गुलामों जैसी रहती है।
यह सरकार ने काम करने का एक नया प्लेटफॉर्म दिया है, पर क्या ऐसे सरकारी कदम को श्रमिकों के हित में कहा जा सकता है? अपने देश के कृषि कानूनों की तरह ही वहां की सरकार भी यही कहती है कि सामान्य उद्योग पहले की तरह चलते रहेंगे, पर श्रमिक देश में कहीं भी एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग यूनिट्स में काम करने के लिए स्वतंत्र है।
इसी तरह का दूसरा उदाहरण अमेरिका का है। वर्ष 1859 में अमेरिका के लुसिआना प्रांत में एक सरकारी फरमान जारी किया गया जिसमें कहा गया कि अश्वेत लोग यदि चाहें तो अपनी मर्जी से दास प्रथा चुन सकते हैं या सीधे शब्दों में किसी पूंजीपति के गुलाम बन सकते हैं। यह वहां की सरकार द्वारा अश्वेत आबादी को दिया गया एक अतिरिक्त प्लेटफॉर्म था, पर क्या इससे अश्वेत आबादी का भला हो सकता था?
कोविड 19 के टीकाकरण अभियान का प्राइवेट हाथों में चला जाना भी एक ऐसा ही प्लेटफॉर्म है, जिससे केवल पूंजीपतियों को ही फायदा होना है। सरकारी मंशा तो टीकाकरण केन्द्रों की संख्या से ही स्पष्ट होती है – 10000 सरकारी केंद्र जहां मुफ्त में टीका उपलब्ध होगा और इससे दुगुने यानी 20000 प्राइवेट केंद्र जहां टीके का शुल्क देना होगा। प्रधानमंत्री जी अभी कुछ दिनों पहले ही कह चुके हैं कि देश का सारा काम सरकारी बाबू नहीं करें, इसीलिए हरेक चीन को प्राइवेट हाथों में सौपा जा रहा है – इसका सीधा सा मतलब है सरकारी लोग काम नहीं करते।
टीकाकरण का भविष्य क्या होने वाला है, इसका अंदाजा आप भी लगा सकते हैं। सरकारी टीकाकरण केन्द्रों की दक्षता और संख्या धीरे-धीरे गिराई जायेगी, जिससे लोगों को प्राइवेट केन्द्रों पर जाने के लिए मजबूर होना पड़े। दूसरी तरफ प्राइवेट केन्द्रों की संख्या धीरे-धीरे और बढ़ेगी जिससे जनता को एक प्रलोभन मिलता रहे की प्राइवेट ही सही पर टीकाकरण केंद्र उसके घर के पास ही है। पहले कुछ महीने सरकार टीके के मूल्य पर भी नियंत्रण रखेगी जिससे जनता का विश्वास सरकार पर बना रहे, फिर सरकारी नियंत्रण ख़त्म हो जाएगा और प्राइवेट हॉस्पिटल अपनी मर्जी से इसकी कीमत तय करेंगे।
टीके के लगाने के बाद यदि किसी की मौत हो जाती है, या गंभीर-साइडइफेक्ट्स उभरते हैं तो प्राइवेट अस्पतालों की कोई जिम्मेदारी भी नहीं रहेगी। यदि प्राइवेट अस्पतालों का धंधा टीकाकरण के सन्दर्भ में नहीं चला तो यकीन मानिए कोविड 19 की एक नई लहर पैदा की जायेगी, जिससे आप घबराकर जल्दी से जल्दी किसी नजदीकी प्राइवेट अस्पताल पहुँच जाएँ। दुनिया भारत सरकार के गुण गाती रहे इसलिए कुछ सरकारी अस्पताल भी टीका देते रहेंगे, पर वहां लम्बे इंतज़ार के बाद कभी नंबर आएगा या नहीं आएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं होगी।
ऐसा ही एक प्लेटफॉर्म उज्ज्वला योजना के रियायती गैस सिलिंडर हैं, जिसका प्रचार सरकार विदेशों में भी करती है। इन रियायती गैस सिलेंडर के दाम इस हद तक बढ़ा दिए गए हैं कि अब इसके आधे लाभार्थी सिलेंडर भराते ही नहीं और वापस लकड़ियों और कंडों से चूल्हा जलाने लगे हैं। देश में किसानों ने इस एक्स्ट्रा प्लेटफॉर्म और अपने भले के सरकारी नारों का चक्रव्यूह समझ लिया है, पर क्या आप समझ पायेंगे?