कोरोना में गंगा में बहती असंख्य लाशों और निरंकुश सरकार पर कवितायें
गंगा किनारे महज 3 फीट पर दफनायी गयी लाशों के अंग गांवों तक खींचकर ले जाने लगे कुत्ते
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। हमारे देश की एक परंपरा है, हम जिस भी भौगोलिक संरचना (geological structures) को उसके प्राकृतिक स्वरुप को नजरअंदाज कर भक्ति-भाव, धर्म और राजनीति के चश्में से देखना शुरू करते हैं – तो फिर उसका विनाश तय है। हिमालय (Himalaya) को जो शिव का वास बताते हैं, वही सबसे पहले हिमालय को काटना शुरू करते हैं। कुछ लोग तो हिमालय में तपस्या का नाटक भी करते हैं और फिर उसी हिमालय को रौंदने वालों को श्रवण कुमार का खिताब भी देते हैं।
पीएम मोदी ने बड़े जोरशोर से दावा किया था, मैं आया नहीं हूँ मुझे तो गंगा ने बुलाया है – और उसी गंगा (River Ganges) में लाशों के अम्बार (floating dead bodies) लगते हैं। धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत लोग गंगा सफाई अभियान का नाम बदलकर नमामि गंगे (Namami Gange) कर लेते हैं, पर गंगा की दुर्दशा लगातार पहले से अधिक होने लगी है। जब गंगा सफाई की बात होती है तब गंगा में क्रुज तैरने लगते हैं, घाटों पर आरती का आयोजन और भव्य हो जाता है, साहब क्रूज पर बैठकर मीडिया के कैमरों के सामने संगीत का आनद लेने लगते हैं, बस गंगा पर बात नहीं होती। इसी तरह जिस दिन संसद भवन पर माथा टेका गया, उसके अगले दिन से नए संसद भवन की तैयारियां शुरू हो गयी।
गंगा पर जाहिर है कवितायें खूब लिखी गयी हैं। इसकी पौराणिक गाथा (mythological story), इसकी महिमा, इसके समाज में स्थान, इसके प्रदूषण और इसी वर्ष मई-जून में असंख्य बहती लाशों पर भी कवितायें लिखी गयी हैं। जब, गंगा में लाशें बह रही थीं, पूरी दुनिया स्तब्ध थी पर सरकार पूरी तरह आँखें बंद कर बैठी थी। बहुत कम ऐसे मौके होते हैं, जब हमारे देश का मेनस्ट्रीम मीडिया (mainstream media) कुछ समाचार दिखाता है, और मीडिया ने गंगा में बहती लाशों को दिखाया था।
इसी दौर में गुजरात की एक महिला कवि, पारुल खक्कर (Parul Khakkar), ने 11 मई को अपने सोशल मीडिया पर गुजराती (Gujarati) में लिखी एक कविता पोस्ट की, जिसके शीर्षक था – शववाहिनी गंगा। बहुत छोटी सी इस कविता की खासियत को इसी से समझा जा सकता है कि सोशल मीडिया (social media) पर इस कविता के आते ही यह एक राष्ट्रीय और कुछ हद तक अंतरराष्ट्रीय सनसनी बन गयी और उसी समय उसका हिंदी में अनुवाद किया गया, फिर कुछ दिनों के भीतर ही इसके देश की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद (translation in all major languages of the country) प्रकाशित किया गया।
देश में विलुप्त होती निष्पक्ष मीडिया में इस छोटी पर सशक्त कविता से सम्बंधित बड़े-बड़े लेख प्रकाशित किये गए। किसी भी कविता पर प्रकाशित होते ही अपने देश में ऐसी चर्चा शायद ही कभी की गयी होगी। प्रस्तुत है, पारुल खक्कर की कविता – शववाहिनी गंगा।
शववाहिनी गंगा
एक साथ सब मुर्दे बोले 'सब कुछ चंगा-चंगा'
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
ख़त्म हुए श्मशान तुम्हारे, ख़त्म काष्ठ की बोरी
थके हमारे कंधे सारे, आंखें रह गई कोरी
दर-दर जाकर यमदूत खेले
मौत का नाच बेढंगा
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
नित लगातार जलती चिताएं
राहत मांगे पलभर
नित लगातार टूटे चूड़ियां
कुटती छाती घर-घर
देख लपटों को फ़िडल बजाते वाह रे 'बिल्ला-रंगा'
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
साहेब तुम्हारे दिव्य वस्त्र, दैदीप्य तुम्हारी ज्योति
काश असलियत लोग समझते, हो तुम पत्थर, ना मोती
हो हिम्मत तो आके बोलो
'मेरा साहेब नंगा'
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा
इसी दौर में वरिष्ठ पत्रकार और कवि भाषा सिंह (Bhasha Singh) ने भी एक चर्चित लम्बी सी कविता लिखी थी - राजा नंगा है तो नंगा ही कहना। यह कविता पूरी तरह से गंगा पर तो नहीं है, बल्कि देश के हालात पर है, उन परिस्थितियों पर है जिसके कारण गंगा और दूसरी नदियों में लाशें बहीं, इस दौर में सरकार के अहंकार, झूठ और अकर्मण्यता का वर्णन है और अंत में निरंकुशता को एक चुनौती भी है। इस कविता को एक निष्पक्ष और जागरूक पत्रकार की एक काव्यात्मक रिपोर्टिंग (poetic reporting) भी माना जा सकता है।
राजा नंगा है तो नंगा ही कहना
राजा नंगा है तो नंगा ही कहना
हत्याओं को भूलकर भी मौत नहीं कहना
क्योंकि मरना तो तुमको भी है
और हत्या तो तुम्हारी भी होगी
इस कालखंड में हत्या और मौत,
मौतें और हत्याएं फर्क धुंधला-सा
मरने के बाद भी दर्ज न हो मृत्यु रजिस्टर में
जलने या दफनाने की लाइन में लगी
तुम्हारी लाश दर्ज नहीं हुई सरकारी फाइल में
तो बने रहोगे वोटर
क्या तुम अच्छे दिनों की आस में प्रतीक्षारत लाश!!
चाहे कितना ही नगाड़ा-बैंड क्यों न बजाओ
मौत नहीं करती फर्क श्मशान-कब्रिस्तान में
गंगा तट पर फेंका जाए या यमुना तट पर
लाश तो लाश रहती है
हर लाश नदी-नाले-तालाब में
बहते-बहते फूल ही जाती है
पहचान नहीं आते चेहरे
गिद्ध हो या कोई जानवर...
नोचते समय छोड़ जाते हैं अपने निशान पैने-पैने
मिटा देते हैं गर्भ में मिले और
उम्र के साथ कहीं तीखे तो कहीं घिस गये नाक-नक्श...
आंख बंद करो
अब तक सच में जिंदा बचे इंसानों
तुम्हारे ऊपर भी मंडराते दिखाई देंगे
पंजे-नुकीले दांत
सपने दुःस्वप्न में होता ऐलान
कड़कती बिजली. अस्पताल ही नहीं,
नदी से, घाट से भी बचो - बचो और बचाओ
वतन जिन्हें सौंपा वे लापता हैं
वे कोशिश में हैं फिर अपनी छवि को चमकाने की
लहू में नहाने की, लाशों को सजाने की
दूर एम्बुलेंस की आवाज
गाज़ा पर मिसाइल हमले की सूरत बजती है
उछलते हैं बच्चे धमाकों से
गुबार-गर्द-चीत्कार, रुदन, बेबसी, गुस्सा...
और ज़ेहन में फिर लाश-
या लाश में तब्दील होता मनुष्य...
ये फूली हुई लाशें ही हमारा सच हैं
ये सारे हमवतन हैं, सारे के सारे इंसान
ये सब चाहते थे जीना जिंदगी को भरपूर
फेफड़ों में भर जीवनदायनी हवा
बहाना चाहते थे वतन की मिट्टी पर अपना पसीना
उगाना चाहते थे सपनों की फसल
रोटी की गंध को नथुनों में भर
सहलाना चाहते थे अगली पीढ़ी का सिर
बच्चे के माथे को चूमकर
बुरी नज़र से बचाने को करने थे बहुत टोटके
अनगिनत प्रेम-भरी रातों के गीले अहसासों से
करना था देह को तर
लड़ाई-झगड़े, अनगिनत बकायों को निपटाना था
जिंदगी की नदी में लहर-दर-लहर बहना था
पर, सिंहासन का खूनी खेल खेला कर गया
मरते रहे उनके वोटर, और वे
सूट पर सूट बदलकर सजते रहे
नए मखमली दुशालों में छुपाते रहे
खून के दाग
दाढ़ी पर हाथ फेरते और साधते निशाना
मानो इजरायल की मिसाइल फेंक रहे हों हमवतनों पर
लाश को लाश बनने से बचाने वाले
तमाम हाथों को वे चाहते हैं काट देना
नहीं उठे कहीं से कोई आवाज़
लाशों पर भी रुदन, सत्ता के खिलाफ रुदन
बन गया राजा के लिए
छोटा राजा रंगोली बनवाकर
पहुंचा मौत पर फोटो खिंचवाने
दांत निपोरे अधिकारी
योग पर भोग करता बाबा
सब के सब मरने वालों पर केस करने
राष्ट्रद्रोह ठोंकने पर रजामंद
पकड़ कर दलितों-डोमों को
फटकाकर उन पर जाति का नृशंस चाबुक
झटपट निपटाते फूली लाशों को गाड़ देते और गहरा और गहरा
ताकि न कुत्ते खोज पाएं और न सरकारी फाइलें
सक्रिय होता डैमेज कंट्रोल
जहरीली मुस्कान के साथ बताते - ऐसा पहले भी हुआ है
गंगा मइय्या को लाशों की आदत है, वह ढोती रही है हमेशा...
वह तो शिव की जटा से उतारी ही इसलिए गई थी...
लाशों को न्यू नॉर्मल में तब्दील करता
यह प्रलाप ही सत्ता का जवाब है
56 इंच में मुंडी घुसाए, नरमुंडों की माला पहने
सत्ता पर काबिज - लाशों और मरघट
में भी पॉजिटिव-पॉजिटिव दिखाने
का नृशंस खेला खेलने को उतारू
हत्याओं पर सकारात्मक सोच का भोंपू बजाते उतरे
खाकी कच्छाधारी-पेंटधारी सबसे पहले लाशों पर ही तो
मुहर लगाएंगे हिंदू राष्ट्र की
स्मृतियों में बर्बरतम दौर की इस यंत्रणा को
बींध देते, खींच देते कभी न धुंधली पड़ने वाली ग्राफिटी की शक्ल में
लाशों को नोंचने वाले ये असली गिद्ध
क्या इसी के लिए 'आए हैं जब हम चलकर इतने लाख वर्ष…'
ना, ना, नहीं नहीं नहीं बिल्कुल नहीं
जिंदा बची कौम को सुकून है
...शुक्र है नदियों में इंसान की लाशें थी,
कहीं गायें होती तो ख़ून-खच्चर हो जाता
यह ग़म भी क्या कम है कि
कोरोना आपदा को अवसर में तब्दील करने के
भारतीय नीरो के ऐलान से मरघट में तब्दील हुए मेरे प्यारे वतन को
दंगों की आग में भून दिया जाता
अगर कहीं नदियों में इंसान की जगह गायें होतीं
इंसान पर भारी है गाय, विवेक पर भारी है गोबर
मानवता पर भारी है नृशंसता
लाशों को तट पर खोद-खोद गाड़ने वाली सिस्टम की क्रेन
भारी है शवों पर उठने वाले चीत्कार से
तिरंगा रो रहा है, संविधान तार-तार है
हम भारत के लोग मरघट बनते देश के हैं साक्षी
लाशों पर सवारी करता राजा, चप्पू चलाता है
टकराता है चप्पू लाशों से, और वह चिल्लाता है
मुझे बदनाम करने मर गये - ये सब देशद्रोही हैं
अट्टहास करता, सिपहसालार ऐलान करता विदेशी साजिश है
तभी विदेशी मीडिया छाप रहा है पल-पल की ख़बर
भक्त कोसते गंगा मइय्या को
क्यों नहीं डुबो दिया तलहटी में इन लाशों को
कहीं कोई भूपेन हजारिका गाता, नेपथ्य से आवाज़ गूंजती
ओ गंगा तुमी बहती हो क्यों...
नरसंहार के लिए कोई और शब्द नहीं...
नहीं गढ़ो तुम कोई मुलायम शब्द
मानवता के दुश्मनों की शिनाख्त करने में अब भी
अगर धुंधली पड़ जाती है तुम्हारी नज़र
तब तुम्हारे हाथ में भी वही चप्पू है
और बैठे हो तुम लाशों की नाव पर राजा के साथ
तुम्हें मैं नहीं मानती अपने वतन का, अपनी इंसानी कौम का...
सुनो राजा
जब खू़न टपक रहा है उसे रोकना तुम्हारे बस का नहीं
एक-एक कतरा खून का मांगता है हिसाब
नीरो हो या हिटलर, सदियों से सदियों तक
इंसानियत इनके नाम पर थूकती ही रहेगी
याद रखना तुम, तुम्हारे नये घर की दीवारों पर
छाप होगी सारे कोरोना मृतकों के हाथों की
वे ही अपनी लहू भरी हथेलियों से बनाएंगे रंगोली
गंगा-यमुना में बहती लाशें होंगी तुम्हारे महल में रुबरू तुमसे
और करेंगी एक-एक ऑक्सीजन का हिसाब
गंगा का रुदन बजेगा तुम्हारे जलसे में
इतिहास गवाह है, जब राजा नंगा होता है
तो नंगई की कीमत उससे वसूलते हैं वतन के लोग
सब याद रक्खा जाएगा, सब याद दिलाया जाएगा
हम भारत के लोग ठोंकेंगे आखिरी कील