कोरोना में हिमाचल प्रदेश भी रामभरोसे, महामारी से निपटने की योजनायें गांव आधारित नहीं
हिमाचल प्रदेश में कोविड नीतियों को लेकर सवाल : राज्य में 90 फीसदी इलाके गांव आधारित, फिर भी कोविड नीतियों को लेकर नहीं दिया गया गांवों को महत्व
गगनदीप सिंह की टिप्पणी
जनज्वार। हिमाचल प्रदेश भारत के पश्चिम हिमालय का छोटा सा राज्य है जिसकी आबादी 6864602 है। आबादी का 89.97 हिस्सा गांव में निवास करता है। हिमाचल प्रदेश में 20,690 गांव है। इसलिए यहां पर जितनी योजनाएं हो सके उनका आधार गांव होना चाहिए, लेकिन कोरोना महामारी के दौरान पिछले साल से ही देखा जा रहा है कि गांव के आधार पर इसे निपटने के लिए उचित योजनाएं नहीं बनाई जा रही न ही गांव तक वह सुविधाएं प्रदान की जा रही है। एक तरह से हम कह सकते हैं कि कोरोना काल में हिमाचल प्रदेश के गांव राम भरोसे चल रहे हैं।
प्रदेश में अब तक 1,57,862 केस पॉजिटिव आ चुके हैं, जिसमें से 2254 मरीजों की मौत हो चुकी है। स्थिति की गंभीरता का नतीजा इस आंकडे से लगाया जा सकता है कि पिछले 14 दिनों में यानी 2 मई से 15 मई तक आने वाले केसों की संख्या 55,824 हैं। पूरी दुनिया में प्रति दस लाख जनसंख्या के हिसाब से मरीजों की संख्या 20,929, भारत में 20,929 और हिमाचल में यह संख्या 23,025 प्रतिदिन है। सबसे खतरनाक बात ये हैं कि कुछ जिलों में पोजिटिविटी रेट भारत के कई राज्यों से बहुत अधिक है। देश में पॉजिटिविटी रेट 20 प्रतिशत है वहीं हिमाचल में यह पिछले एक सप्ताह में 26 प्रतिशत को पार कर गया है। अगर जिलों के हिसाब से देखें तो सिरमौर में पॉजिटिविटी रेट 38.4 प्रतिशत, शिमला, सोलन, मंडी पॉजिटिविटी रेट लगभग 30 प्रतिशत के आसपास है।
गांवों में स्थिति सब से बुरी है। जिस भी गांव में अगर एक-दो केस पोजिटिव आ जाते हैं तो उस गांव में अगली टेस्टिंग में लगभग 20 से 60 तक केस आ रहे हैं। वर्तमान में करसोग उपमंडल में 8 कंटेनमेंट जोन है जो कि सभी के सब गांव में है। इनमें 20 से 60 तक केस आए हैं। देखने में यह भी आ रहा है कि प्रशासन एक हद के बाद वहां पर टेस्ट ही नहीं करता।
सुंदरनगर उप मंडल की एक पंचायत में एक ही वार्ड में 57 केस आए, लेकिन उसके पास लगते बाजार में एक भी टेस्ट नहीं किया गया, जबकि उस गांव का संबंध बाजार से हर रोज का था। यही हाल अन्य स्थानों का है। जब भी टेस्टिंग में केस बढते हैं वहां टेस्टिंग कम कर दी जा रही है।
हिमाचल के गांव बहुत दुर्गम है। कोविड केयर अस्पतालों की संख्या केवल 28 है। कुल बेड्स की संख्या 3371 हैं जिसमें से आईसीयू बेड 266, स्टेंडेर्ड बेड 716 और आक्सिजन स्पोर्टिड बेड 2389 है। इनमें से आज 1002 खाली पड़े हैं जबकि एक्टिव केस की संख्या 36909 है। उस अस्पताल तक पहुंचने में लोगों को कई घंटों का सफर करना पड़ता है। कर्फ्यू के कारण सार्वजनिक परिवहन की सेवा बंद होने के चलते लोग आम सामान्य बिमारियों के लिए हस्पताल नहीं आ पा रहे, न टेस्ट के लिए नहीं आ पा रहे। टैक्सी का किराया बहुत अधिक होता है। अगर किसी को लक्षण भी हो तो उसको गांव में बिना दवा के ऐसे ही भगवान भरोसे रहना पड़ता है। बिना दवाई स्थिति गंभीर हो जाती है। जब तक वह डेडिकेडिट कोविड हेल्थ सेंटर तक पहुंचता है तो स्थिति बहुत गंभीर हो जाती है।
गांव में जब 4 से अधिक केस आ जाते हैं तो उस गांव को माईक्रो कंटेनमेंट जोन अधिक आने पर कंटेनमेंट जोन बनाकर धारा 144 लगा दी जाती है। इससे उसकी जद में आने वाले पोजिटिव मरीजों के साथ अन्य लोग भी प्रभावित होते हैं। उनके लिए आर्थिक समस्या खड़ी हो जाती है। एक गांव में 22 अप्रैल को कंटेनमेंट जोन बना, उसको बाद 6 मई से कर्फ्यू लग गया जो कि अब 26 मई तक चलेगा। इस कारण उस गांव के दर्जनों परिवार किसी भी काम पर नहीं जा पाए, छोटे दुकानदारों की दुकानें नहीं खुली, दिहाडीदार को दिहाड़ी नहीं मिली, खेतों में रोजगार कोई मिलता नहीं है, पूरे गांव में ज्यादातर छोटे किसान है जिसके पास 1 से 4 बिघा तक जमीन है। गांव पूरी तरह से डिपो से मिलने वाले राशन पर निर्भर है। राशन पर्याप्त मात्रा में पहुंच नहीं पा रहा। लोगों को उधार पर सामान उठाना पड़ा, बाद में वह पैसा कहां से दें जब रोजगार नहीं, दिहाड़ी नहीं। कुल मिलाकर कंटेनमेंट जोन से आर्थिक और मानसिक समस्याएं बढ़ रही है। इसको दूर करने के लिए चाहिए कि जब भी एसडीएम या अन्य अधिकारी कंटेनमेंट जोन घोषित करते हैं तो साथ में उसके अंतर्गत आने वाले परिवारों को पर्याप्त राशन दे।
जिस परिवार में कोरोना मरीज है, जो होम आइशोलेशन में है उसकी देखभाल ठीक से नहीं हो पा रही है। उनकी देखरेख के लिए जरूरी स्टाफ की कमी है। उपमंडल करसोग में 254 मरीज होम आईसोलेशन में जिनको देखने के लिए मात्र तीन टीमें बनाई गई है जिसमें विशेषज्ञों की संख्या न के बराबर है। यही हाल लगभग अन्य इलाकों का भी है। घरों में आईसोलेशन से उन मरीजों को ज्यादा मुश्किल हो रही है जिनको सुगर, बीपी, हार्ट या अन्य गंभीर बिमारियां है, क्योंकि परिवार के अन्य सदस्य बिना किसी कोरोना प्रोटेक्टिव किट के उनकी सही तरीके से देखभाल नहीं कर पा रहे, पहले से चल रही दवाएं ठीक समय पर नहीं दी जा रही, जिस कारण उनकी बीमारी बढ़ जाती है।
घरों में आईशोलेशन वाले मरीजों में से अन्य गंभीर बीमारियों से जूझ रहे लोगों की अलग से कैटेगिरी बनानी चाहिए, उनका लेखा-जोखा रखा जाए ताकि उनको प्राथमिकता के आधार पर इलाज प्रदान कर मौतों का आंकडा कम किया जा सके। यह इस लिए भी जरूरी हो जाता है कि मरने वालों में अधिकतर अन्य गंभीर बिमारियों से संक्रमित बुजुर्ग हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार 30 अप्रैल तक हिमाचल में 1484 लोगों की कोरोना से मृत्यु हुई थी, जिसमें से 970 पुरुष और 514 महिलाएं थी। विभिन्न गंभीर बीमारियों से ग्रस्त लोगों की संख्या 999 यानी 67.3 प्रतिशत थी। जिसमें शुगर के 499 और बीपी के 459, गंभीर किडनी रोगी 111 और गंभीर फेफड़ों के रोग से ग्रस्त 84 लोग थे। इसमें गंभीर समस्या ये हैं कि वैक्सिन की डोज लेने वाले 67 लोग भी इस दौरान मारे गये हैं।
एक्टिव केसों को देखते हुए बेड की संख्या ऊंट के मुंह में जीरा है। 36 हजार मरीजों पर मात्र 3000 बेड बहुत कम है। जबकि अगर टेस्ट बढ़ेंगे तो मरीजों की संख्या गांव के अंदर सैकड़ों में नहीं हजारों में होगी। एक अधिकारी की व्यक्तिगत राय है कि अगर सही टेस्टिंग की जाए तो प्रति लाख 80 हजार मरीज पोजिटिव मिलेंगे। गांव पूरे के पूरे पोजिटिव हैं लेकिन क्या किया जा सकता। यह बहुत गंभीर स्थिति है।
पंचायतों ने पिछले साल भी और इस साल भी अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से नहीं निभाई। न गांव में सेनेटाईजेशन किया जा रहा है न ही राशन व अन्य स्वास्थ्य सेवाओं को सुनिश्चित बनाने में पंचायत पहलकदमी ले रही है। जबकि इसमें उनकी अहम जिम्मेदारी हो सकती थी।
अभी प्रति पंचायत को 25.-25 हजार रुपये सेनेटाईजेशन के लिए आवंटित हुए हैं, पंचायतों पर अपना बजट भी होता है, वह सही तरीके से लागू नहीं हो रहा। पंचायतों ने मनरेगा के काम भी बंद कर दिये जिस से गरीब तबके को कुछ राहत मिल सकती थी। हर पंचायत को कोरोना वलंयटियर बनाने चाहिए जिनको पूरी तरह से सुरक्षा किट प्रदान कर कोरोना मरीजों की मदद करनी चाहिए, गांव को सुरक्षित बनाना चाहिए। बहुत जगह मरने के बाद संस्कार भी सही नहीं हो रहा इसकी भी जिम्मेदारी पंचायत को उठानी चाहिए।
हालांकि हिमाचल प्रदेश की गिनती स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे के मामले में केरल के बाद दूसरे नंबर होती है। यहां पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 606 लेकिन उनको कोरोना से लड़ने में सक्षम नहीं बनाया गया। जबकि दूर दराज, दुर्गम और परिवहन की सुविधाओं के अभाव वाले पर्वतीय राज्य के लिए यह बहुत अहम भूमिका निभा सकती थी। हर सेंटर में आक्सीजन युक्त बेड होने चाहिए, वहां पर कोरोन प्रोटोकाल के तहत इलाज होना चाहिए। कम से कम उसकी दायरे में आने वाले अन्य गंभीर बिमारियों वाले कोरोना मरीजों को उनके अंदर भरती करक इलाज होना चाहिए।
कर्फ्यू के चलते सार्वजनिक परिवहन की सुविधाएं नहीं है वहीं एंबुलेंस की संख्या भी पहाड़ी इलाका होने के चलते और जितनी कम स्पीड से चलती है उसके हिसाब से संख्या को बढ़ाया जाना चाहिए। हिमाचल प्रदेश में मात्र 184 कार्यरत और 12 बैकअप एंबुलेंस हैं। कोरोना के समय में गंभीर मरीजों को गांव से शहर तक लाने में बहुत समस्याएं झेलनी पड़ रही है।
ऐसा लग रहा है कि मानसिक स्वास्थ्य को तो सरकारें बीमारी ही नहीं मान कर चल रही है। कोरोना के तहत कंटेनमेंट जोन बने गांव, कोरोना मरीज और उनके परिवारों के साथ बहुत जगह पर मेल मिलाप ठीक होने में लंबा समय लग रहा है। ऐसे मरीजों को ठीक होने पर दिहाड़ी व अपने-अपने कामों पर जाना मुश्किल हो रहा है एक तरह से छूआछूत जैसा हो रहा है। आर्थिक परेशानियों के चलते भी मानसिक परेशानियों बढ़ रही है। पिछले साल लॉकडाउन में 300 से अधिक हिमाचलियों ने आत्महत्या की थी। अभी भी इस तरह की स्थितियां बनती दिखाई दे रही हैं। मानसिक रूप से लोगों की काउंसलिंग के लिए जरूरी तंत्र खड़ा करने की जरूरत है।
आक्सीजन के संबंध में सरकारी आंकडों की पोल तब खुल गई जब एक अखबार ने अपनी जांच में पाया कि हिमाचल में केवल एक अस्पताल में ही आक्सीजन प्लांट चल रहा है, जबकि सरकार का दावा था कि उनके चार आक्सीजन प्लांट चालू हालात में हैं। जबकि केंद्र सरकार द्वारा यहां पर 7 आक्सिजन प्लांट लगाए जाने थे। हालांकि 24 अप्रैल की इस खबर के बाद 9 मई को चंबा और हमीरपुर में दो आक्सिजन प्लांट चालू कर दिये गये हैं, लेकिन हालात बहुत खराब ही हैं। 26 अप्रैल को दिल्ली के लिए आक्सीजन देने की बात करने वाले हिमाचल के मुख्यमंत्री ने 9 मई को केंद्र से आक्सीजन का कोटा डबल करने का अनुरोध किया।