पिछले 2 दशकों में बढ़े वायु प्रदूषण से भारत में दोगुने हुए सांस के रोगी
जनज्वार। दो दिन पहले आये एक कोर्ट के एक फैसले में दुनिया को पहला ऐसा मामला पता चला जिसमें किसी की मौत का ज़िम्मेदार वायु प्रदूषण था। बात हो रही है नौ साल की एला की, जिसकी मौत के नौ साल बाद लंदन के एक कोर्ट ने वायु प्रदूषण को उसकी मौत का कारण माना। दूसरे शब्दों में कहें तो इसमें अब दो राय नहीं कि प्रदूषण जानलेवा है और ऐसा नहीं कि समस्या बस वहीं लंदन की है।
ताज़ा शोध बताते हैं कि भले ही क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीसेस (सीओपीडी) और ब्रोन्कियल अस्थमा भारत में आम बीमारियाँ हैं, लेकिन 1990 के दशक से लेकर अगले 20 साल के दौरान भारत में जीडीपी पर बीमारी के बोझ में सीओपीडी का असर दोगुना हो गया है। तेजी से हो रहे इस बदलाव का मुख्य कारण वातावरणीय तथा आंतरिक वायु प्रदूषण हैं।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हाल में दावा किया था कि वर्ष 2019 के मुकाबले इस साल नवम्बर में दिल्ली की हवा ज्यादा खराब थी। इन कारकों और सांस सम्बन्धी महामारी का संयुक्त रूप से तकाजा है कि जनस्वास्थ्य की सुरक्षा के लिये फौरन नीतिगत ध्यान दिया जाए।
क्लाइमेट ट्रेंड्स ने सीओपीडी और उसके नीतिगत प्रभावों पर किये गये एक ताजा शोध पर चर्चा के लिये शनिवार को एक वेबिनार आयोजित किया। यह शोध स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग, यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, नेशनल एनवॉयरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) और दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यावरणीय विज्ञान विभाग के परस्पर सहयोग से किया गया है।
वेबिनार में नीरी के निदेशक डॉक्टर राकेश कुमार, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के वैज्ञानिक और आईसीएमआर के डीडीजी डॉक्टर वी पी सिंह, आईआईटी दिल्ली के सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंसेज में प्रोफेसर डॉक्टर सागनिक डे और हिन्दुस्तान टाइम्स की पर्यावरण पत्रकार जयश्री नंदी ने हिस्सा लिया। वेबिनार का संचालन क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने किया।
वेबिनार में दिल्ली विश्वविद्यालय के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज के डायरेक्टर-प्रोफेसर डॉक्टर अरुण शर्मा ने इस शोध का प्रस्तुतिकरण किया। शोध का उद्देश्य दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीटी) पर सीओपीडी के बोझ का आकलन करना, सीओपीडी के स्थानिक महामारी विज्ञान को समझना, दिल्ली के एनसीटी में सीओपीडी के जोखिम वाले कारकों का आकलन करना और दिल्ली के निवासियों के बीच वायु प्रदूषण के लिहाज से व्यक्तिगत जोखिम का अंदाजा लगाना है।
डॉक्टर शर्मा ने शोध की रिपोर्ट के हवाले से कहा कि क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीसेस (सीओपीडी) और ब्रोन्कियल अस्थमा सांस से जुड़ी सबसे आम बीमारियां हैं। वर्ष 2015 में सीओपीडी ने सीओपीडी की वजह से 104.7 मिलियन पुरुष और 69.7 मिलियन महिलाएं प्रभावित हुईं। वहीं, वर्ष 1990 से 2015 तक सीओपीडी के फैलाव में भी 44.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वर्ष 2017 में सीओपीडी की वजह से पूरी दुनिया में 32 लाख लोगों की मौत हुई, और यह मौतों का तीसरा सबसे सामान्य कारण रहा।
भारत में इसके आर्थिक प्रभावों पर गौर करें तो वर्ष 1990 में 28.1 मिलियन मामले थे जो 2016 में 55.3 दर्ज किये गये। ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिसीसेस के अनुमान के मुताबिक वर्ष 1995 में भारत में जहां सीओपीडी की वजह से 5394 मिलियन डॉलर का भार पड़ा। वहीं, वर्ष 2015 में यह लगभग दोगुना होकर 10664 मिलियन डॉलर हो गया।
शोध के मुताबिक पिछले कुछ अर्से में वायु प्रदूषण सबसे उल्लेखनीय जोखिम कारक के तौर पर उभरा है। वायु प्रदूषण सीओपीडी के तीव्र प्रसार के लिये जिम्मेदार है। सीओपीडी का जोखिम पैदा करने वाले कारकों में धूम्रपान को सबसे आम कारक माना गया है। तीन अरब लोग बायोमास ईंधन जलाने से निकलने वाले धुएं के जबकि 1.01 अरब लोग तम्बाकू के धुएं के सम्पर्क में आते हैं। इसके अलावा वातावरणीय वायु प्रदूषण, घरों के अंदर वायु प्रदूषण, फसलों की धूल, खदान से निकलने वाली धूल और सांस सम्बन्धी गम्भीर संक्रमण भी सीओपीडी के प्रमुख जोखिम कारक हैं।
जहां तक इस अध्ययन के औचित्य का सवाल है तो इस बात पर गौर करना होगा कि भारत में जनसंख्या आधारित अध्ययनों की संख्या बहुत कम है और पिछले 10 वर्षों के दौरान ऐसा एक भी अध्ययन सामने नहीं आया। दिल्ली एनसीटी के लिये जनसंख्या आधारित एक भी अध्ययन नहीं किया गया।
डॉक्टर शर्मा ने कहा कि सीओपीडी का सीधा सम्बन्ध वायु प्रदूषण से है। सीओपीडी के 68 प्रतिशत मरीजों के मुताबिक वे ऐसे स्थलों पर काम करते हैं जहां वायु प्रदूषण का स्तर ज्यादा है। इसके अलावा 45 प्रतिशत मरीज ऐसे क्षेत्रों में काम करते हैं, जहां वायु प्रदूषण का स्तर 'खतरनाक' की श्रेणी में आता है। इसके अलावा 70 प्रतिशत मरीजों ने बताया कि वे धूल की अधिकता वाले इलाकों में काम करते हैं।
64 प्रतिशत मरीजों ने बताया कि वे धूम्रपान नहीं करते, जबकि धूम्रपान करने वाले मरीजों का प्रतिशत केवल 17.5 है। इससे जाहिर होता है कि लोगों पर अप्रत्यक्ष धूम्रपान का असर कहीं ज्यादा हो रहा है।
नीरी के निदेशक डॉक्टर राकेश कुमार ने वेबिनार में अपने विचार रखते हुए कहा कि यह अध्ययन भारत के नीति नियंताओं के लिये नये पैमाने तैयार करने में मदद करेगा। उन्होंने कहा कि जब हम विभिन्न लोगों से डेटा इकट्ठा करना चाहते हैं तो यह बहुत मुश्किल होता है। हमारे पास अनेक स्रोत है जो अन्य देशों से अलग हैं। दिल्ली को लेकर किये गये अध्ययनों से पता चलता है कि यहां केरोसीन से लेकर कूड़े और गोबर के उपलों तक छह-सात तरीके के ईंधन का इस्तेमाल होता है, जिनसे निकलने वाला प्रदूषण भी अलग-अलग होता है। आमतौर पर बाहरी इलाकों में फैलने वाले प्रदूषण की चिंता की जाती है लेकिन हमें चिंता इस बात की करनी चाहिये कि आउटडोर के साथ इंडोर भी उतना ही महत्वपूर्ण है। मच्छर भगाने वाली अगरबत्ती में भी हैवी मेटल्स होते हैं। डॉक्टर शर्मा के अध्ययन में दिये गये आंकड़े खतरनाक रूप से बढ़े नहीं हैं, लेकिन वे सवाल तो खड़े ही करते हैं।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के वैज्ञानिक और आईसीएमआर के डीडीजी डॉक्टर वी पी सिंह ने कहा कि इस तरह के अध्ययन बेहद महत्वपूर्ण है। इनसे पता लगता है कि प्रदूषणकारी तत्व किस तरह से मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं। दिल्ली में 15-20 साल पहले डीजल बसों और वैन में सीएनजी से संचालन की व्यवस्था की गयी।
बाद में पता चला कि सीएनजी से बेंजीन गैस का उत्सर्जन होता है। इस दौरान प्रदूषण के स्तर बहुत तेजी से बढ़े हैं। इस पर ध्यान देना होगा कि हमें विकास की क्या कीमत चुकानी पड़ रही है। यह और भी चिंताजनक है कि छोटे छोटे शहरों में भी प्रदूषण के इंडेक्स दिल्ली से मिलते-जुलते हैं।
सागनिक डे- यह अध्ययन हमें बताता है कि हम प्रदूषण के सम्पर्क के आकलन में पैराडाइम शिफ्ट के दौर से गुजर रहे हैं। हमें सिर्फ एक्सपोजर असेसमेंट करने मात्र के पुराने चलन से निकलना होगा। ऐसी अन्य स्टडीज से चीजें और बेहतर होंगी।
उन्होंने कहा कि आज हमें हाइब्रिड मॉनीटरिंग अप्रोच की जरूरत है। कोई व्यक्ति जो आईटी सेक्टर में काम करता है, जाहिर है कि वह बंद जगह पर ही काम करता होगा। अंदर प्रदूषण का क्या स्तर है उसे नापना बहुत मुश्किल है। हमें 24 घंटे एक्सपोजर के एकीकृत आकलन का तरीका ढूंढना होगा। हमारे पास अंदरूनी प्रदूषण को नापने के साधन बेहद सीमित संख्या में हैं। हमें इस तरह के डेटा गैप को पाटना होगा।
डॉक्टर शर्मा द्वारा पेश किये गये अध्ययन के मुताबिक 30 मिनट के सफर से एक्सपोजर का खतरा होता है। वायु प्रदूषण का मुद्दा सिर्फ इसलिये गम्भीरता से लिया गया, क्योंकि इसने सेहत के लिये चुनौती खड़ी की। अभी तक किये गये अध्ययनों में ज्यादातर डेटा वह है, जो कहीं और से लिया गया है, मगर किसी स्थान के मुद्दे अलग होते हैं। उनमें कुपोषण भी शामिल है। वायु प्रदूषण सांस सम्बन्धी बीमारियों के साथ-साथ दिल की बीमारियां, मानसिक रोग और समय से पहले ही जन्म समेत तमाम चुनौतियां पेश करता है।