कड़ी मेहनत के बिना कॉरपोरेशन और कॉरपोरेट लीडर का वर्ष 2050 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने का दावा खोखला
सीमा जावेद की टिप्पणी
मिस्र के शर्म अल शेख में 6 से 18 नवम्बर के बीच आयोजित होने जा रही सीओपी 27 शिखर बैठक से पहले कुछ डरावने तथ्य सामने आ रहे हैं। दुनिया के अनेक देश जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए तरह-तरह की प्रतिज्ञाएं ले रहे हैं, मगर इसके बावजूद मौजूदा नीतियों के तहत प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन की तीव्रता पेरिस जलवायु समझौते के तहत निर्धारित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किए जा रहे प्रयासों के लिहाज से बहुत ज्यादा है।
जर्मनी के थिंक टैंक - न्यू क्लाइमेट इंस्टिट्यूट- में कॉरपोरेट क्लाइमेट रिस्पांसिबिलिटी एक्सपर्ट सिल्क मुदाइक ने इसी मुद्दे को लेकर 'नेट जीरो ब्रीफिंग- स्टेट ऑफ प्ले 2022' विषय पर आयोजित एक वेबिनार में कहा कि जहां तक नेट जीरो लक्ष्यों का सवाल है तो मेरा मानना है कि यह कंपनियों के लिए ज्यादा उपयोगी नहीं है। नेट जीरो को वैश्विक स्तर पर हासिल किया जाना है, लिहाजा वैश्विक उत्सर्जन को वर्ष 2050 तक शून्य करना होगा। इसका मतलब है कि अनेक सेक्टरों को पूरी तरह से डी-कार्बनाइज करना होगा और 2050 तक उन्हें रियल जीरो बनना होगा।
उन्होंने कहा कि अन्य आर्थिक क्षेत्रों में भी कार्बन उत्सर्जन को संतुलित करना होगा। ऐसा लगता है कि अनेक कंपनियां इस वैश्विक नेटजीरो लक्ष्य को अपने कारोबार और कारपोरेट फुटप्रिंट से जोड़कर देखती हैं और वे अक्सर इस बात को नहीं समझती कि उनके सेक्टर को पूरी तरह से डी-कार्बनाइज होने की जरूरत है। अगर नेटजीरो के लक्ष्य को हासिल करना है तो कंपनियों को रियल जीरो एमिशन की तरफ बढ़ना ही होगा।
मुदाइक ने कहा कि हम यह भी देख रहे हैं कि अनेक नेटजीरो लक्ष्य उतने महत्वाकांक्षी नहीं है जितने कि वे देखने में लगते हैं। कॉर्पोरेट क्लाइमेट रिस्पांसिबिलिटी मॉनिटर में 25 कंपनियां ऐसी हैं जिनके नेटजीरो संबंधी लक्ष्य जरूर हैं लेकिन इस दिशा में उनकी प्रगति की जो रफ्तार है उसको देखते हुए वे लक्ष्य का सिर्फ 40% हिस्सा ही हासिल कर सकेंगी। अक्सर यह देखने में आता है कि कंपनियां नेट जीरो का लक्ष्य तो बनाती हैं लेकिन वह अल्पकालिक रूप से उत्सर्जन में तेजी से कमी लाने के लिए कोई प्रयास नहीं करतीं। ऐसे में वर्ष 2050 तक उनके पूरी तरह से डीकार्बनाइज हो जाने के आसार नहीं है।
संकल्प और उस पर अमल के बीच का यह व्यापक अंतर इस वजह से है क्योंकि कंपनियां (देशों और उप राष्ट्रीय क्षेत्रों में कार्यरत) तात्कालिक और अल्पकालिक कदम उठाने पर ही ध्यान दे रही हैं, जबकि हालात से निपटने के लिए दीर्घकालिक और अधिक व्यापक उपाय करने होंगे।
क्लाइंट अर्थ में क्लाइमेट अकाउंटेबिलिटी लीड सोफी मार्जनैकी ने कहा कि इस वक्त कारपोरेट जगत की तरफ से नेटजीरो से जुड़ी प्रतिबद्धताओं की बाढ़ सी आ गई है लेकिन हम पूरे फलक पर नजर डालें तो एक सुव्यवस्थित रवैया और योजना की स्पष्ट कमी है। मेरा मानना है कि कॉरपोरेट सेक्टर नेट जीरो लक्ष्य को बहुत उत्साह से तो लेता है लेकिन वह इस लक्ष्य की वास्तविकता, तात्कालिकता और इसे हासिल करने के लिए उठाए जाने वाले कदमों की संजीदगी को नहीं समझता।
उन्होंने कहा कि हम बड़े कॉरपोरेट समूहों द्वारा जलवायु परिवर्तन के प्रति प्रतिक्रियाओं में अक्सर अनेक खामियां तथा कमियां देखते हैं। उनकी कार्यप्रणाली अक्सर दिशा भ्रमित और अतार्किक होती है। मेरा मानना है कि नेट जीरो और पेरिस समझौते की परिकल्पना के बीच अंतर यह है कि नेट जीरो एक समय का बिंदु है, जबकि पेरिस समझौता अल्पकालिक और अंतरिम लक्ष्यों पर केंद्रित है और इसका प्रक्षेप वक्र अल्पकालिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए है।
सोफी ने कहा कि अनेक कॉरपोरेशन और कॉरपोरेट लीडर यह कह रहे हैं कि वे वर्ष 2050 तक नेट जीरो बनना चाहते हैं, मगर वे उन उपायों को अपनाने में असमर्थ हैं जिनसे लक्ष्य प्राप्ति के लिए जरूरी राह पर पहुंचा जा सके। उनका कहना है कि वे वर्ष 2049 में अपनी अधिक उत्सर्जन करने वाली सभी संपत्तियों को बेचकर नेट जीरो बन सकते हैं। मेरा मानना है कि ऐसा करने पर वर्ष 2040 के दशक में कंपनियों को नेट जीरो बनने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।