नदियाँ इंसान को नहीं डुबो रहीं, बल्कि इंसानों ने नदियों की गहराई में मकान और दूसरी परियोजनाओं को खड़ा करके किया है अतिक्रमण
जिसने भी हाल में ही गाजियाबाद में हिन्डन नदी के बाढ़ के विजुअल्स देखे होंगे, उन्हें याद होगा कि एक नाले जैसी नदी के दोनों किनारे मकानों से पटे पड़े हैं
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Most of the floods are not natural disasters, in fact flood is mostly caused by anthropogenic activities. इस बार प्रधानमंत्री जी ने मन की बात की शुरुआत में ही बाढ़ पर दुःख जाहिर किया और इसे प्राकृतिक आपदा बताया। मीडिया तो शुरू से ही इसे प्राकृतिक आपदा और आसमानी आफत बता रहा है और इसी आधार पर रिपोर्टिंग भी कर रहा है। समस्या यह है कि पूंजीवाद में नदियों के असली स्वरुप और क्षेत्र पर सत्ता और पूंजीपतियों का कब्ज़ा है, और जब नदियाँ अपना असली स्वरूप और बहाव दिखाती हैं तब सभी बाढ़-बाढ़ का शोर मचाते हैं और इसे प्राकृतिक आपदा बताने लगते हैं। सत्ता भी पीड़ितों को कुछ सहायता और मुआवजा देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाती है और बाढ़ ख़त्म होते ही नदियों के शोषण में जुट जाती है।
दरअसल अधिकतर मामलों में बाढ़ प्राकृतिक नहीं बल्कि मानव निर्मित आपदा है। हम नदियों के क्षेत्र में तेजी से बसते चले जा रहे हैं तो दूसरी तरफ मानव जनित तापमान बृद्धि के कारण कम समय में अधिक बारिश की घटनाएं बढ़ गयी हैं, जिसकी चेतावनी कई दशक पहले ही वैज्ञानिक दे चुके हैं। प्रधानमंत्री जी जब बाढ़ और भू-स्खलन को प्राकृतिक आपदा बताते हैं, तब सत्ता की सारी जिम्मेदारी ख़त्म हो जाती है।
नदियाँ पृथ्वी की सतह पर मीठे पानी की एक विशेष भौगोलिक संरचना हैं, पर दुखद यह है कि हमारे देश में नदियाँ एक तरफ तो देवी मानी जाती हैं जिनका स्वरुप एक बड़े नाले से अधिक कुछ नहीं है। देश की पूरी आबादी, सत्ता, शहरी निकाय और पूंजीपति इसे कचरा फेंकने का साधन या फिर इसके पानी को अपनी मर्जी से उपभोग लायक समझते हैं।
पिछले कुछ दशकों से नदियों को हमने इस कदर मार दिया है कि अब तो उसके इलाके/क्षेत्र को भी बेकार का मानकर उस पर इमारतें, उद्योग और दूसरी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को खड़ा कर दिया है, अपनी सुविधा के लिए इसका मार्ग बदल दिया है, बड़े बांधों को बनाकर इनके प्रवाह को रोक दिया है, नहरों के माध्यम से इसके पाने को निकालकर कहीं और बहा दिया है। हिमालय के ऊपरी बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में नदियाँ बिजली बनाने का साधन रह गईं हैं।
अब तो नदियों से सम्बंधित खबरें भी केवल बाढ़ के समय या फिर नदी-जल विवादों के समय आती है। जब से गंगा मैया ने मोदी जी को बुलाया है, गंगा के प्रदूषण पर चर्चा ख़त्म हो गयी है। यमुना की चर्चा भी केवल दिल्ली के मुख्यमंत्री और एलजी के आपसी विवाद के समय ही होती है। दरअसल हमारे प्रधानमंत्री जी वसुधैव कुटुम्बकम का जाप करते-करते केवल अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को ही समस्या मान बैठे हैं, और मीडिया भी यही कर रहा है। अब जलवायु परिवर्तन की चर्चा तो होती है, पर स्थानीय वायु प्रदूषण की चर्चा गायब हो गयी है। अब हम महासागरों की चर्चा करते हैं और अपनी नदियों, झीलों और तालाबों को लूटना तो जानते हैं पर किसी लायक नहीं समझते।
जिसने भी हाल में ही गाजियाबाद में हिन्डन नदी के बाढ़ के विजुअल्स देखे होंगे, उन्हें याद होगा कि एक नाले जैसी नदी के दोनों किनारे मकानों से पटे पड़े हैं। जब भी इस नदी में थोड़ा भी पानी बढ़ेगा तब ऐसी ही स्थिति होगी, क्योंकि पानी के फ़ैलने की कोई जगह ही नहीं है। लगभग हरेक छोटी-बड़ी नदियों की हमने यही दुर्दशा की है।
विकास के नाम पर हरेक नदी के अन्दर हम तरह-तरह के निर्माण करने लगे हैं। यमुना के बारे में लम्बे समय से तमाम न्यायालयों में सुनवाई की जा रही है। दशकों पहले के भी न्यायालयों के आदेश यमुना के डूब क्षेत्र को किसी भी निर्माण से मुक्त रखने की बात करते हैं। आदेश आते रहे और यमुना के डूब क्षेत्र में राजधानी दिल्ली में कामनवेल्थ गेम्स विलेज, अक्षरधाम, मेट्रो स्टेशन और मेट्रो की कालोनियां बनती रहीं। अब हम यमुना का पानी बढ़ने पर कहते हैं कि नदी ने रौद्र रूप ले लिया, यह प्राकृतिक आपदा है – पर सच तो यह है कि जब भी पानी बढ़ता है तब यमुना नाले से नदी में परिवर्तित होती है और अपना क्षेत्र बताती है। नदियाँ हमें नहीं डुबो रही हैं, बल्कि हम नदियों की गहराई में अपने मकान और दूसरी परियोजनाओं को खड़ा करने लगे हैं।
इन दिनों पूरा देश डूब रहा है। जो शहर और क्षेत्र पहले बाढ़ की विभीषिका नहीं झेलते थे, वे भी अब इसकी चपेट में हैं। मीडिया में बारिश को आसमानी कहर और नदियों को सबकुछ डुबो देने वाला बताया जा रहा है। प्रधानमंत्री देश में पर्यावरण संरक्षण की 5000 वर्ष पुरानी परंपरा और तापमान वृद्धि पर खूब बोलते हैं, पर बाढ़ या सूखा जैसे विषयों पर गंभीर वक्तव्य शायद ही कभी देते हैं। वैसे भी उनके पास इन दिनों इंडिया की भर्त्सना करने के अलावा कोई विषय नहीं है।
पर्यावरण मंत्री भी केवल जलवायु परिवर्तन पर ही कुछ बोलते हैं। दरअसल बाढ़ और भू-स्खलन का सबसे बड़ा कारण पर्यावरण मंत्रालय का निकम्मापन है, यह मंत्रालय पर्यावरण संरक्षण के लिए नहीं बल्कि उद्योगतियों की सेवा और अधिकारियों की जेब भरने के लिए काम करता है। साल में जब नदियों का पानी एक बार बढ़ता है तब नदियाँ कुछ हद तक साफ़ भी हो जाती हैं, वर्ना पर्यावरण मंत्रालय और तमाम प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के लिए नदियों की सफाई का काम तो करोड़ों रुपये की ऊपरी कमाई का एक साधन है।