जेनेरिक दवाओं को लेकर सरकार गंभीर तो ब्रांडेड दवाएं बनाने पर क्यों नहीं लगाती रोक या सिर्फ डॉक्टरों को निशाना बनाने का है इरादा
जनज्वार। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के एथिक्स बोर्ड की अधिसूचना जिसमें डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए कहा गया है, दवा की कीमतों को तर्कसंगत बनाने की सरकार की नीति के बिल्कुल विपरीत है। अधिसूचना में डॉक्टरों से दवाओं के औषधीय नाम लिखने की अपेक्षा की गई है।
अगर सरकार इस मुद्दे पर गंभीर है तो उसे ब्रांडेड दवाओं पर प्रतिबंध लगाना चाहिए, अन्यथा ऐसे मामले में केमिस्ट तय करेंगे कि मरीज को कौन सा ब्रांड बेचना है। इंडियन डॉक्टर्स फॉर पीस एंड डेवलपमेंट (आईडीपीडी) के अध्यक्ष डॉ. अरुण मित्रा और महासचिव डॉ. शकील उर रहमान ने एक बयान में कहा कि गुणवत्तापूर्ण जेनेरिक दवाएं इंडियन ड्रग्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (आईडीपीएल) और अन्य सरकारी कंपनियों द्वारा लंबे समय तक विकसित की गईं।
सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों द्वारा निर्मित दवाओं की कम लागत के कारण, इन दवाओं ने उपचारकी लागत को कम कर दिया है और न केवल विकासशील देशों, बल्कि कुछ विकसित यूरोपीय देशों में भी यह निर्यात के लिए उच्च मांग में हैं, लेकिन सरकार ने जेनेरिक दवाएँ बनाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को लगभग निष्क्रिय कर दिया है। यही बात टीकों के मामले में भी लागू होती है।
पंजाब मेडिकल काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष डॉ. जीएस ग्रेवाल ने कहा कि ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं में बड़ी खामी है; एमआरपी और खरीद मूल्य के बीच कीमत का अंतर बहुत अधिक है।
दवाओं में व्यापार मार्जिन को तर्कसंगत बनाने पर सरकार की अपनी समिति ने दिसंबर 2015 में इस पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, लेकिन हमारे बार-बार याद दिलाने और अनुरोध करने के बावजूद, इस रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार केवल डॉक्टरों को निशाना बनाना चाहती है, लेकिन दवा बनाने वाली दवा कंपनियों के साथ उसकी मिलीभगत है।