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झारखंड में भात-भात कहते मर गयी थी भूख से बच्ची (file photo)
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Hunger beyond Hunger Index : इसी वर्ष 20 मार्च को राज्यसभा में आम आदमी पार्टी के संजय सिंह द्वारा ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर पूछे गए प्रश्न के जवाब में तत्कालीन कृषि राज्य मंत्री ने बयान दिया था कि यह इंडेक्स बकवास है, तथ्यहीन है और हमारे देश में भुखमरी का सवाल ही नहीं है क्योंकि यहाँ तो सड़क के कुत्ते को भी खाना देने की परम्परा है।
मंत्री जी के इस बयान का जवाब वर्षों पहले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने दिया था, जब उन्होंने लिखा था – श्वानों को मिलता दूध-भात, भूखे बच्चे अकुलाते हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2021 के अनुसार दुनिया के 116 देशों के सबसे भूखे लोगों की सूची में मोदी जी के सपनों का न्यू इंडिया 101वें स्थान पर काबिज है। पिछले वर्ष, यानी 2020 में कुल 107 देशों में हमारा स्थान 94वें था। यही इस सरकार की चारित्रिक विशेषता है, जमीनी हकीकत से कोसों दूर केवल दुष्प्रचार से अपना विकास और देश का विनाश करना।
हमारे देश में भूख राजनीति है। हरेक राजनीतिक दल दूसरे पर बढ़ती भूखमरी का आरोप लगाते है, पर सत्ता परिवर्तन के बाद भूखमरी पहले से अधिक बढ़ जाती है। अब तो हालत यह है कि भूख मरती नहीं, खाना मिलाता नहीं – अलबत्ता खाने के नाम पर जनता प्रधानमंत्री जी के फोटो का बोझ उठाकर घूमती है। भूख की अपनी अर्तव्यवस्था भी है, जिसपर लाखों लोगों का पेट भरता है। सरकार अरबों रूपए लुटाती है और लाखों लोगों का रोजगार चमकता है – जाहिर है, भूख को जिन्दा रखना जरूरी है। भूख से वोट का मसला भी जुड़ा है।
दुष्यंत कुमार की एक कविता है, 'भूख है तो सब्र कर'। यह कविता देश का एक कालजयी प्रतिबिम्ब है – उन्होंने लिखा है, अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ। सही है, हम सब भूखे मरने को तैयार हैं तो राजनीतिक दल इसे भी एक हथियार की तरह इस्तेमाल करती है और हमारी खामोशी बढ़ती जाती है।
भूख है तो सब्र कर
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ।
मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह
ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ।
गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही
पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ।
क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ
लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुँआ।
आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को
आप के भी ख़ून का रंग हो गया है साँवला।
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुँआ।
दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ।
इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ।
कवि नरेश सक्सेना की एक मार्मिक कविता है, 'भूख' इसमें उन्होंने लिखा है, बच्चे तो उसे बेहद पसंद हैं।
भूख
भूख सबसे पहले दिमाग़ खाती है
उसके बाद आँखें
फिर जिस्म में बाक़ी बची चीज़ों को
छोड़ती कुछ भी नहीं है भूख
वह रिश्तों को खाती है
माँ का हो बहन या बच्चों का
बच्चे तो उसे बेहद पसन्द हैं
जिन्हें वह सबसे पहले
और बड़ी तेज़ी से खाती है
बच्चों के बाद फिर बचता ही क्या है?
कवि योगेन्द्र कृष्णा की कविता 'भूख और नींद' में भी बच्चों के माध्यम से भूख का विस्तार से वर्णन किया है-
भूख और नींद
बहुत संकोच के साथ
मैंने पूछना चाहा था
इन जैसे तमाम अनाम उन बच्चों से
कि भूख लगने पर आखिर
वे करते क्या होंगे...
उनकी उम्र के बाकी बच्चे
नहीं जानते भूख लगना क्या होता है
वैसे ही जैसे वे नहीं जानते
क्या होता है जंगल में आग लगना
या अचानक से आंखों में नींद लग जाना
भूख के बहुत पहले
मिट जाती है
उनकी भूख
और नींद के बहुत पहले
उनकी नींद...
मैंने पूछना चाहा था
कि रुलाई आने पर
आखिर वे करते क्या होंगे
आंखों में लाते होंगे
कहां से आंसू
क्योंकि उनकी उम्र के
बाकी बच्चों की आंखों में
आंसू नहीं
उनकी माँ बसती हैं
और खुद ही
आंसू बन कर बहती हैं...
मैंने जानना चाहा था
कि शहर की उजली
चकाचौंध रातों में
अपनी आंखों में
वे नींद कहां से लाते होंगे
क्योंकि नींद तो अबतक
सड़कों से तो क्या
महलों से भी
रुखसत हो चुकी होंगी
और बच रही
थोड़ी बहुत देसी नींद और सपनों की
लग रही होंगी
विदेशों में भी ऊंची बोलियां...
कवि जंगवीर सिंह राकेश ने अपनी कविता 'भूख' में देश-समाज की हकीकत उजागर की है-
भूख
जिनके पेट भरे होते हैं,
मस्त आलम में वो जीते हैं
जो बचपन बेचकर कमाते हैं, न
बच्चे वही भूखे होते हैं ।
जो किस्मत के मारे होते हैं
कमजोर नहीं होते, बेचारे होते हैं।
निकल आते हैं सड़कों पर
बाजारों में, कभी चौराहों पर
पेट के वास्ते दर-दर भटकते हैं
एक-एक निवाले की जो कीमत समझते हैं
भूख के बदले में, भूख खाकर,
सोते नहीं, पर सोते हैं,
बच्चे जो भूखे होते हैं।
किसान की मजबूरी है परिवार पालना
झूठा वरना लगता है अधिकार पालना
धूल, कंकड़, मिट्टी, रोटी सब है मिट्टी
मिलती नही है सही कीमत फिरभी फसल की
तभी तो बेचारे, फाँसी लगाकर,
फंदों में झूले होते हैं, और,
नेता, सरकारें रोज, मौज में,
नींद चैन की खूब सोते हैं
साहब! इनके पेट भरे होते हैं,
हाँ! इनके पेट भरे होते है।
कोई उम्रभर इत्र की खुशबू में जीता है
कोई उम्रभर गरीबी की बदबू में जीता है
अमीर लोग जमीं पर नही होते,
कारों, बंगलों, हवाई जहाजों में होते हैं
और गरीब सिर्फ जमीं पर होता है
यहीं घिसता है, यहीं पर मरता है
जिंदगी भर जो गम ढोते हैं
जिंदगी नहीं जीते, रोते हैं
प्यार-व्यार वही करते हैं,
जिनके पेट भरे होते हैं
जो सपनों में खोये होते हैं,
लोग वही भूखे होते हैं।
कवि दिनकर कुमार की कविता 'चेहरे पर भूख के हस्ताक्षर थे' में एक अदद लाश के माध्यम से भूख का खाका खींचा गया है—
चेहरे पर भूख के हस्ताक्षर थे
चेहरे पर भूख के हस्ताक्षर थे
इसलिए
सामूहिक रूप से पारित किया गया
भर्त्सना का प्रस्ताव
सलाह दी गई
सम्भ्रान्त लोग नज़र झुकाकर चलें
नाक पर रख लें रूमाल
काला चश्मा पहनें
पुटपाथों पर मक्खियों से घिरी
लाश हो
या अद्धमूर्च्छित नर-कंकाल हो
द्रवित होने की ज़रूरत नहीं है
अपनी दया अपनी करुणा
अपने लिए बचाकर रखें
वसीयत में
बच्चों के नाम लिख जाएँ
ग़ौर नहीं करें--
वातानुकूलित रेस्त्राँ के शीशे पर
चेहरे गड़ाए खड़े
कीड़े-मकोड़े पर
प्रस्ताव की प्रतिलिपियाँ
जेब में हमेशा रखें
और नंग-धड़ंग आबादी से
ख़ुद को दूर रखें
चेहरे पर भूख के हस्ताक्षर थे
इसीलिए
मनुष्यों की कतार से
खारिज हुए मनुष्य।
इस लेख के लेखक की एक कविता 'भूख' में इसे एक बड़ी आबादी के जिन्दगी का हिस्सा बताया गया है—
भूख
तुम्हारे लिए होगी अजूबा भूख
हमारी तो जिन्दगी का हिस्सा है
तुम खाना फेकते हो रोज
हमें याद नहीं आखिरी बार
पेट पूरा कब भरा था
डकार कब ली थी
बच्चों से निगाह मिलाना भी दुश्वार है
सो जाते हैं थककर
एक रोटी, थोड़े चावल की याद में
एक दिन सो जायेंगे
हथेली को खाली पेट पर रखे हुए
तुम्हारे लिए होगी अजूबा भूख
हमारी तो जिन्दगी का हिस्सा है।