जनज्वार विशेष

Salman Rushdie : भारत में सियासत का आधार बना इस्लामोफोबिया, मुस्लिमों के नाम पर दुनिया के मुट्ठीभर अमीर कर रहे हैं खेल!

Janjwar Desk
15 Aug 2022 3:21 PM GMT
Salman Rushdie : भारत में सियासत का आधार बना इस्लामोफोबिया, मुस्लिमों के नाम पर दुनिया के मुट्ठीभर अमीर कर रहे हैं खेल!
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Salman Rushdie : जिस तरह एक मुसलमान बन्दे के अपराध के लिए देश भर के मुसलमानों से सवाल पूछे जाते हैं, इस्लाम पर सवाल उठाये जाते हैं, वैसा ही तब क्यूँ नहीं किया जाता जब ऐसे ही अपराध किसी और धर्म के व्यक्ति द्वारा कारित किया जाता है....

सलमान अरशद की टिप्पणी

भारत में, ख़ासतौर पर उत्तर भारत के हिन्दी बेल्ट में एक फ़ैशन आम हो गया है, कुछ लोग चाहते हैं कि दुनिया में कहीं भी कोई मुसलमान बंदा कोई अपराध करे तो भारत के हर मुसलमान को उसके लिए शर्मिंदा होना चाहिए, उसे उस अपराध के लिए ज़वाबदेह होना चाहिए. यही नहीं ऐसे किसी भी अपराध की जड़ें तुरंत इस्लाम और मुसलमान के भीतर ढूढ़ना भी शुरू हो जाता है. कमाल ये है कि मुसलमानों से सवाल करने वालों में हिंदुत्व के समर्थक ही नहीं कांग्रेसी, उदारवादी और वामपंथी भी हैं.

भारत की मीडिया ख़ासतौर पर सोशल मीडिया इस तरह की घटनाओं के बहाने मुसलमानों पर हमले करती है और ये हमला अक्सर लम्बा चलता है. भारत की नाकामयाब हुकूमत के लिए ऐसे अवसर हमेशा ही बड़े मददगार होते हैं. बहरहाल, मीडिया और सोशल मीडिया में इस घटना के हवाले से मुसलमानों पर जो हमले हो रहे हैं, उसे समझने की कोशिश करते हैं. पहले कुछ सवाल जिनके इर्द गिर्द सोशल मीडिया में बहस हो रही है-

1. जिस तरह एक मुसलमान बन्दे के अपराध के लिए देशभर के मुसलमानों से सवाल पूछे जाते हैं, इस्लाम पर सवाल उठाये जाते हैं, वैसा ही तब क्यूँ नहीं किया जाता जब ऐसे ही अपराध किसी और धर्म के व्यक्ति द्वारा कारित किया जाता है?

2. क्या ये सच है कि इस्लाम में कोई सुधारवादी आन्दोलन नहीं हुआ और इस्लाम एक जड़ धर्म है जो छठवीं सदी से आगे कभी नहीं बढ़ा?

3. क्या किसी धर्म को सुधार कर उसे आज के सन्दर्भ में स्वीकार्य बनाया जा सकता है और क्या ऐसे सुधार की सच में कोई ज़रूरत है?

4. धर्म आधारित अतिवादी कार्यवाहियाँ पिछली सदी में ही दुनिया भर में क्यों बढ़ी, इससे पहले ऐसे आन्दोलन या कार्यवाहियां दिखाई क्यों नहीं देतीं?

इन सवालों पर तफ़सील से बात करेंगे, लेकिन उसके पहले एक सुझाव कि इस लेख में ऐसी बातें आयेंगी जिससे आपकी धार्मिक भावना आहत हो सकती है, इसलिए अगर आपकी धार्मिक भावना बेहद कमज़ोर है, तो बेहतर है कि इससे आगे आप न पढ़ें. बावजूद इसके अगर आगे पढ़ने का ज़ोखिम उठा ही रहे हैं तो पूरा पढ़ियेगा और पूरे लेख के आधार पर ही अपनी कोई राय बनाइएगा.

आगे कुछ कहने से पहले मैं सलमान रुश्दी पर हुए इस हमले की निंदा करता हूँ, मीडिया रिपोर्टों की मानें तो हादी मातर (Hadi Matar) नाम के एक 24 वर्षीय युवक को इस हमले के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया है. किसी भी लेखक या किसी अन्य व्यक्ति से किसी की कोई असहमति है तो उसके लिए विरोध जताने के कई अहिंसक उपाय है, उन्हीं को अपनाया जाना चाहिए या ज़रूरत के मुताबिक़ कानूनी उपाय भी किये जा सकते हैं, कम से कम हत्या असहमति के मुद्दों के समाधान का कोई उपाय नहीं है.

पिछले सालों में भारत में 100 से ज़्यादा लिंचिग की घटनाएँ हुईं, मरने वालों में ज़्यादा संख्या मुसलमानों की थी, लेकिन हिन्दू अतिवादियों द्वारा मुसलमानों की इन हत्यायों के आधार पर हिन्दू समाज या हिन्दू धर्म पर किसी ने भी सवाल नहीं उठाया, यहाँ तक कि मुसलमानों के किसी तबके ने भी हिन्दू समाज या हिन्दू धर्म पर उस तरह सवाल खड़े नहीं किये, जिस तरह मुसलमानों पर किये जाते हैं. अभी हाल ही में जब उदयपुर में दो मुसलमान बन्दों ने एक हिन्दू दरजी की हत्या की थी तब भी यही हुआ था, लेकिन जब उनका संपर्क भारतीय जनता पार्टी से निकला तब भारतीय जनता पार्टी पर उसी तरह सवाल नहीं उठाया गया.

जो लोग देश का पैसा लेकर भाग गये, प्रायः वे सभी सवर्ण हिन्दू हैं, तो क्या इससे ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सवर्ण हिन्दू देश के प्रति ग़द्दारी करता है या देश की सम्पदा चुराने वाला चोर होता है? इसी तरह देश का पैसा लेकर भागने वालों में ठीक ठाक तादात गुजराती हिन्दू सवर्णों की है, तो क्या कहा जा सकता है कि गुजराती चोर होते हैं? पाकिस्तान के लिए जासूसी करते हुए कुछ लोग पकड़े गये, ये सवर्ण हिन्दू थे, इसी तरह कुछ लोग ऐसे भी पकड़े गये जिनका सम्बन्ध एक हिन्दुवादी संगठन से था, तो क्या इस आधार पर इनके जातीय समूह या राजनीतिक संगठन को देश का गद्दार कहा जा सकता है? और क्या इस आधार पर हिन्दू धर्म और उसके ग्रंथों के समीक्षा एवं उनमें सुधार की मांग की जा सकती है? जाहिर सी बात है कि ऐसा हम नहीं कह सकते. लेकिन जब यही और ऐसे ही मामले का ताअल्लुक मुसलमानों से हो तो देश के हर तबके से यही मूर्खतापूर्ण मांग उठाई जाने लगती है.

कहा जा रहा है कि इस्लाम के भीतर ही ऐसे तत्व हैं जिनकी वजह से मुसलमान आतंकवादी बनता है. मैं यहाँ इस्लाम पर कोई बहस नहीं करूंगा, इस पर भी नहीं कि ऐसा कुछ इस्लाम में है या नहीं है. इसलिए नहीं कि मुझे इस्लाम को बहस से बचाना है, बल्कि इसलिए कि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है. लेकिन मेरे ऐसा कहने की वजह क्या है, ये जरूर स्पष्ट करूँगा.

कोई भी धर्म, विचार, सिद्धांत या कानून अपने दौर की चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करता है, इसी तरह ऐसा धर्म, विचार या सिद्धांत एक खास सामाजिक, राजनीतिक एवं भौगोलिक पृष्ठिभूमि में पैदा होता है, उसके लिए वही सही वक़्त होता है, उससे पहले या उसके बाद वो पैदा नहीं हो सकता. अब वामपंथी और उदारवादी पूछते हैं कि तब फिर मुसलमान इस बात को क्यों नहीं मान लेता !

दरअसल, ये एक अहमकाना ज़िद है. हर व्यक्ति की चेतना का विकास उसके सामाजिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि और उसको मिलने वाली तालीम पर निर्भर करता है. इसलिए हर इंसान हर मुद्दे पर अलग अलग तरीक़े से सोचता है, हम ये ज़िद नहीं कर सकते कि कोई ख़ास इन्सान या समूह एक ख़ास तरीके से क्यूँ नहीं सोचता. इसी तरह शासक वर्ग भी नागरिकों के सोचने विचारने को नियंत्रित करता है. आज भारत की मीडिया दिन रात मुसलमानों के लिए जो ज़हर उगल रही है, उससे मुसलमान विरोधी नफ़रत पर आधारित जनमत निर्मित हो रहा है. उदाहरण के लिए, भारत में छठवीं सदी में ही मुसलमान व्यापार के लिए आ गये थे और कुछ केरल के इलाके में आबाद भी हो गये थे, मध्य काल ख़ासतौर पर भारत में मुसलमानों के आने का काल है. इस्लाम धर्म को मानने वाले मुसलमानों ने लगभग हज़ार साल तक भारत के एक बड़े भूभाग पर हुकूमत की, लेकिन हिन्दू और मुसलमानों के बीच धर्म के नाम पर किसी लड़ाई का कोई ज़िक्र इतिहास में नहीं मिलता.

19वीं सदी में दलितों का दलक जातियों या कहें सवर्णों के ख़िलाफ़ और किसी हद तक हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था के खिलाफ़ आन्दोलन होता है, लेकिन 19 वीं सदी के आखिर में मुसलमानों के ख़िलाफ़ लड़ाई की शुरुआत होती है और दलितों का आन्दोलन कहीं दब जाता है. 1925 में आरएसएस का गठन होता है, हिन्दू महासभा नाम का संगठन बनता है और देश में हिन्दू बनाम मुसलमान की लड़ाई शुरू होती जिसमें कई लाख लोगों की जान जाती है. इसके विस्तार में जाना यहाँ संभव नहीं है, लेकिन आप विचार करें कि पिछली सदी में हिन्दू बनाम मुसलमान के नाम पर जो कुछ हुआ क्या उसका सम्बन्ध वेद, पुराण, उपनिषद या फिर क़ुरान या हदीस से है, बेशक ऐसा नहीं है, लेकिन आज यही स्थापित करने की कोशिश हो रही है.

कहा जा रहा है कि इस्लाम में कोई सुधारवादी आन्दोलन नहीं होता या कि इस्लाम में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है. इस सवाल पर बात करने से पहले कुछ और बातों को समझना होगा. भौतिक जगत में हम सुधार पर नहीं अविष्कार पर ज़ोर देते हैं, अगर ऐसा न होता तो हम आज भी बैल गाड़ी या घोड़ा गाड़ी का इस्तेमाल कर रहे होते. सोचकर देखिये कि क्या बैलगाड़ी को सुधार कर उसे कार बनाया जा सकता है? आप इस विचार को ही मूर्खता कहेंगे. लेकिन जब धर्म आप से कहता है कि धरती चपटी है, के एक बन्दर ने सूरज निगल लिया था या एक इन्सान ने उंगली के इशारे से चाँद के दो टुकड़े कर दिए थे या कि कोई इन्सान मुंह, बाँह, जाघों या पैर से पैदा हुआ या एक इन्सान अणु और पहाड़ जैसे रूप में खुद को बदल सकता है, तब आप इसे न तो मूर्खता कहते हैं, न इस पर सवाल उठाते हैं और न ही इसे त्यागते हैं. ऐसा करने के पीछे दो वजहें हैं, या तो आप इन्हें सही मानते हैं या ग़लत मानने के बावजूद भी ग़लत नहीं कहते क्यूंकि इससे कुछ लोग नाराज़ हो जायेंगे और ऐसे नाराज़ लोग आपकी हत्या तक कर सकते हैं.

भारत में उस तरह के धर्म कभी नहीं रहे जैसे अरब की धरती पर हुए, भारत में हमेशा ही विचारधारा के स्कूल्स थे जिसे किसी ख़ास इन्सान के नाम से जाना जाता था, योग दर्शन को आप पतांजलि के नाम से जानते हैं, संख्य दर्शन को कपिल मुनि के नाम से, वेदांत को शंकराचार्य के नाम से, इस तरह के स्कूल्स भारत में सदियों से रहे हैं और उनके बीच बहस होती रही है. इस तरह के माहौल से एक उदार समाज का जन्म स्वाभाविक ही था, बावजूद इसके समय समय पर यहाँ भी वैचारिक कट्टरता ने जन्म लिया. उदाहरण के लिए बौद्ध धर्म के मानने वालों को उनके जन्म स्थान से ही मिटा दिया गया, और ये कैसे हुआ इस पर इतिहास में बहुत कुछ लिखा गया है.

इसके विपरीत इसाई, यहूदी और इस्लाम जिस समाज में अस्तित्व में आये वो समाज भारत से बहुत अलग था बल्कि सभ्यता के पैमाने पर पिछड़ा भी था, भारत में आधुनिक धर्मों ने जहाँ सामंती समाज में आकार लिया वहीँ अरब के धर्मों ने कबीलाई समाज में आकार लिया. अगर आप भारत और अरब के धर्मों को उनकी पृष्ठिभूमि को समझे बिना समझने की कोशिश करेंगे तो वही गलतियाँ करेंगे जो हिंदुत्व की सियासत करने वाले भारत में करते हैं.

जो लोग कहते हैं कि अमुक समाज, धर्म, दर्शन आदि में कोई बदलाव नहीं आ रहा है, वो गोया ये कह रहे हैं कि अमुक समाज पत्थर हो गया है, विज्ञान आज कह रहा है कि पत्थर भी स्थिर नहीं होते. दरअसल ये बदलाव दो तरह से हो रहे हैं. एक, लोग सिद्धांतों को पीछे छोड़ कर आगे निकल रहे हैं दूसरा लोग उनकी पुनर्व्याख्या कर नये रास्ते निकाल रहे हैं. जो लोग कह रहे हैं कि इस्लाम में कोई बदलाव नहीं हो रहा है, उन्हें इन दोनों तरह के बदलावों को देखना चाहिए. उदाहरण के लिए बरेलवी मुसलमान भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में पाए जाते हैं, दुनिया के दीगर इलाकों में भी ये यहीं से गये हैं, इस स्कूल ऑफ़ थाट्स की शुरुआत उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के अहमद राजा खान से हुई थी, इसी तरह सूफ़ी इस्लाम अरब, अफ्रीका, यूरोप तक फैला, आज इस्लाम के भीतर कई स्कूल्स ऑफ़ थाट्स हैं, क्या ये किसी सुधार के बिना सीधे आसमान से टपक गये हैं !

फिर से वही सवाल, क्या सुधार की सचमुच कोई ज़रूरत है और सुधार के बाद क्या सदियों पुराने विचार आधुनिक हो जायेंगे? भारत में देवदासी एवं जाति प्रथा के ख़िलाफ़ कानून बन गया, पर आज भी दोनों ही क़ायम हैं, अपवादों को छोड़ दिया जाये तो आज भी सभी शादियाँ जाति के आधार पर ही होती हैं. यही नहीं देश के सभी व्यवसाय या नोकरी जिससे सम्मान और सम्पदा का सम्बन्ध है, उन पर प्रायः हिन्दू सवर्णों का कब्ज़ा है और शारीरिक श्रम आधारित पेशे आज भी दलितों के जिम्मे हैं. तमाम सुधार सदियों पुराने इस कोढ़ को ख़त्म नहीं कर पाए. ऐसे में इस्लाम या किसी भी मज़हब या किसी भी सदियों पुराने विचार, सिद्धांत आदि में सुधार की मांग दरअसल क्रांति की मांग से भागने का एक ज़रिया है. जहाँ सुधार की सीमा ख़त्म होती है वहीँ क्रांति की ज़रूरत उपस्थित होती है.

अब अंतिम सवाल, धर्म आधारित अतिवादी कार्यवाहियाँ पिछली सदी में ही दुनियाभर में क्यों बढ़ी, इससे पहले ऐसे आन्दोलन या कार्यवाही क्यों दिखाई नहीं देते? भारत में पिछले लगभग 30 सालों में अतिवादी हिन्दुओं के हमले मुसलमानों पर बढ़े हैं और इसमें पिछले कुछ सालों में तेज़ी आयी है, इसी तरह कांग्रेस पार्टी के दौरे हुकूमत में P.A.C. के जवानों ने मुरादाबाद में लगभग चार सौ मुसलमानों को ईदगाह में गोलियों से भून दिया था, उस वक्त पिछड़ों के मसीहा माने जाने वाले वीपी सिंह साहब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, इस तरह के हमले हसिमपुरा और मलियाना में हुए तो असम के नेल्ली में भी, 2002 के गुजरात नरसंहार तक मुसलमानों पर बहुत से हमले हुए और ज़्यादातर में अपराधियों पर कार्यवाही नहीं हुई.

पिछली सदी में और ख़ासतौर पर 70 की दहाई से इस तरह के हमलों का तेज़ होना क्या किसी ख़ास आर्थिक एवं राजनीतिक घटनाक्रम की ओर इशारा नहीं करता? ये सवाल इस लिए भी ज़रूरी है कि लगभग इसी दौर में पूरी दुनिया में इस्लामिक इन्तेहापसंदी की एक लहर दिखाई देती है, जिसके ज़रिये जान भी मुसलमानों की ही ज़्यादा जाती है, मुसलमान और इस्लाम पर इस बहाने हमले होते हैं और दुनिया भर में इस्लामोफोबिया की इस लहर से कई तरह के राजनीतिक एवं आर्थिक लाभ यूरोप और अमेरिका द्वारा उठाने की कोशिश होती है. दूसरे आलमी जंग के बाद इस्लामोफोबिया खड़ा करना और पूरे अरब को अस्थिर करना, क्या आर्थिक लूट का कोई मामला है? इसी तरह भारत, म्यामार और श्रीलंका में इसी इस्लामोफोबिया के ज़रिये व्यापक आर्थिक लूट का आधार निर्मित किया जाता है. भारत में आज सियासत का मुख्य आधार ही इस्लामोफोबिया है.

यहाँ हमें ये देखना होगा कि दूसरे आलमी जंग में युद्ध सामग्री के उत्पादन के ज़रिये पूंजीपतियों ने खूब मुनाफ़ा कमाया, जब लड़ाई ख़त्म हुई तो FMCG के ज़रिये खूब मुनाफ़ा कमाया, लेकिन 1970 आते आते दुनिया भर के बाज़ार मुनाफ़ा देने से इंकार करने लगे, ऐसे में ज़रूरी था कि दुनिया भर में ऐसी हुकूमतें क़ायम हों जो पूंजीपतियों के मुनाफ़े के लिए उनके अनुकूल नीतियाँ बनायें और उन्हें ताक़त से लागू भी करें. जाहिर सी बात है कि ऐसे में जनविद्रोह के पैदा होने का ख़तरा पैदा होगा ही, इसका हल ढूढ़ा गया, लोगों को धर्म, नस्ल और भाषा के नाम पर लड़वाना शुरू कर दिया गया. आप देखेगे कि जैसे जैसे ये पूंजीवादी लूट बढ़ी है वैसे वैसे ही विभिन्न समुदायों को आपस में लड़वाना भी बढ़ा है.

जब लोगों के क़त्लेआम की बात आती है तो लोग एक साँस में हिटलर, स्टालिन और माओ का नाम ले लेते हैं, लेकिन आतंकवाद का टूल खड़ा करके जिसने इराक़, सीरिया, यमन और अफगानिस्तान को तबाह कर दिया, उसका नाम अमूमन नहीं लिया जाता. अमेरिकी हुक्मरानों ने दूसरे आलमी जंग के बाद एक करोड़ से भी ज़्यादा लोगों का क़त्ल किया है, क्या कभी किसी ने उनके धर्म और ईमान का परीक्षण किया? क्या ये सच नहीं है कि दुनिया भर के आतंकी संगठन मिल कर भी इतने लोगों का क़त्ल नहीं कर पाए हैं?

इस्लामोफिबिया के बिना क्या भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन सकती थी? बिना भारतीय जनता पार्टी के क्या गौतम अडानी देश के सबसे बड़े कर्ज़दार होने के बावजूद दुनिया के टॉप पाँच अमीरों में शामिल हो सकते थे? अगर मुसलमानों के ख़िलाफ़ मीडिया रोज़ ज़हर न उगलती तो क्या महगाई, ग़रीबी, बेरोज़गारी और इलाज न करवा पाने की लाचारी में भारत की जनता बग़ावत न करती? और क्या हर मोर्चे पर नाकाम हुकूमत इस्लामोफोबिया के बिना एक के बाद एक चुनाव जीत पाती? इन सवालों पर सोचिये, इनके ज़वाब ढूढिये और फिर खुद से पूछिए कि क्या मुसलमान और इस्लाम सच में दुनिया के लिए समस्या हैं या इनके नाम पर दुनिया के मुट्ठीभर अमीर कुछ और कर रहे हैं !

जिन्हें जेहादी कहा जाता है या जिसे इस्लामिक आतंकवाद कहा जाता है वो दरअसल पूंजीवादी लूट को सुगम बनाने का एक टूल भर है, ऐसे में सलमान रुश्दी पर हमला किसी ने भी किया हो, असल हमलावर तो वो ताक़त है जो धर्म का इस्तेमाल दुनिया भर के लोगों के लूट के लिए कर रही है. देश और दुनिया की सम्पदा किसकी झोली में जा रही है, बस इस एक तथ्य की पड़ताल कर डालिए, हर तरह के आतंकवाद की परत दर परत आपके सामने खुलती चली जाएगी.

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