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अपनी छवि चमकाने के लिए इजराइली-कनाडियन पीआर एजेंसी का सहारा ले रही म्यांमार की नरसंहारी सेना
[ प्रतीकात्मक तस्वीर, यंगून में भारतीय दूतावास के बाहर प्रदर्शन ]
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
म्यांमार की नरसंहारी सेना ने अब विदेशों में अपनी छवि सुधारने के लिए एक इजराइली-कनाडियन पी आर कंपनी का सहारा लिया है और इसका असर भी दिखने लगा है। इस पी आर कंपनी के मालिक अरी बेन मेनाशे हैं, जो पहले इजराइली सेना के ख़ुफ़िया विभाग में थे, फिर उसके लिए हथियार आपूर्ति का काम करते थे। इनकी पी आर कंपनी कनाडा में है और हत्यारों और नरसंहारियों की छवि अंतर्राष्ट्रीय पटल पर चमकाने के क्षेत्र में इनका लम्बा अनुभव रहा है। अरी बेन मेनाशे इससे पहले ज़िम्बाब्वे के रोबर्ट मुगाबे, सूडान की सेना, वेनेज़ुएला के राष्ट्रपति, तुनिशिया के राष्ट्रपति और किर्गिस्तान के राष्ट्रपति की छवि चमका चुके हैं। अब म्यांमार की सेना ने इस कंपनी की सेवायें महंगी कीमत देकर ली हैं और यदि अमेरिका और यूरोपीय संघ द्वारा म्यांमार सेना पर लगाए गए प्रतिबन्ध हटते हैं तो भारी-भरकम बोनस मिलना भी तय है।
पी आर एजेंसी को काम देने के बाद से म्यांमार की सेना और निरंकुश हो गयी है और दूसरी तरफ लोकतंत्र की दुहाई देने वाले सभी देश लगभग शांत हो गए हैं। एक फरवरी 2021 को म्यांमार की सेना ने तख्तापलट किया था, तब से लगातार जनता इसके विरोध में सड़कों पर है और सेना और पुलिस आंदोलनकारियों पर आक्रमण में व्यस्त है। 13 मार्च तक कम से कम 65 नागरिक मारे जा चुके थे और अनेक नागरिकों और नेताओं की हिरासत में पुलिस ने बर्बर ह्त्या कर दी। इसके बाद 14 मार्च के दिन सेना ने नरसंहार किया – म्यांमार के अलग-अलग हिस्सों में कम से कम 50 लोगों की सेना ने बर्बरता से ह्त्या कर दी। इसके बाद भी संयुक्त राष्ट्र से लेकर प्रजातंत्र की रक्षा का दिखावा करने वाले देशों में गहरी खामोशी है। 1 फरवरी से अब तक सेना और पुलिस ने लगभग 2500 आंदोलनकारियों को हिरासत में लिया है और इन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी जा रही हैं।
म्यांमार की सेना का पी आर अभियान पूरी दुनिया पर असर करने लगा है और अब सेना के वक्तव्य भी लगातार समय के अनुरूप बदलते जा रहे हैं। शुरू में सेना ने आंग सान सू की पर चुनावों में गंभीर धांधली का आरोप लगाया था, बाद में चीन-परस्त होने का आरोप लगाया और रोहिंग्या मुस्लिमों के नरसंहार का आरोप लगाया। अब, बीते दिनों में रिश्वत के नए आरोप सामने आने लगे हैं। सेना के आरोप कितने बेबुनियाद हैं, इसका अंदाजा म्यामार के वर्तमान हालात से लगाना कठिन नहीं है।
यदि आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने धांधली से चुनाव जीता होता तो जाहिर है अपनी जान हथेली पर लेकर पूरे म्यांमार में आंदोलनकारी सडकों पर सेना से मुकाबला करने नहीं निकलते। सेना आंग सान सू की पर भले ही चीन-परस्त होने का आरोप मढ़ रही हो, पर आंदोलनकारियों के साथ ही दुनिया भी जानती है कि इस समय चीन म्यांमार की सेना के समर्थन में खड़ा है। रोहिंग्या के नरसंहार में म्यांमार की सेना की कुख्यात भूमिका के बारे में वर्षों पहले संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट विस्तार से खुलासा कर चुकी है।
वर्ष 2017 में संयुक्त राष्ट्र ने एक तीन सदस्यीय दल बनाया था जिसे म्यांमार की फौज द्वारा किये जाने वाले मानवाधिकारों के उल्लंघन और नरसंहार के बारे में जांच कर रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी। म्यांमार की फौज ने रोहिंग्या लोगों के साथ जो अमानवीय व्यवहार किया था, इसी की पुष्टि करने के लिए यह रिपोर्ट बनायी गयी। वहां की फ़ौज ने संयुक्त राष्ट्र के किसी भी सदस्य को म्यांमार में प्रवेश नहीं करने दिया था। फिर इस दल के सदस्यों ने लगभग 875 विस्थापितों के साक्षात्कार के आधार पर 440 पृष्ठों की एक रिपोर्ट सितम्बर 2018 में प्रस्तुत किया। ये सभी विस्थापित फ़ौज द्वारा रोहिंग्या के शोषण और नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी भी थे।
इस रिपोर्ट के अनुसार म्यांमार की फ़ौज नरसंहार, ह्त्या, बिना कारण जेल में डालना, महिलाओं और बच्चियों से बलात्कार, बच्चों के शोषण और इनके इलाकों में आगजनी के लिए दोषी है। रिपोर्ट में सभी देशों से अनुरोध किया गया है कि वे म्यांमार की फ़ौज के साथ किसी भी तरह के रिश्ते न रखें। पर, इस पूंजीवादी दुनिया में पूंजीवादी हत्यारे के भी सारे गुनाह माफ़ हैं। म्यांमार में प्राकृतिक संसाधनों और अधिकतर परियोजनाओं का स्वामित्व सेना के पास है, इसलिए दुनिया का कोई भी देश म्यांमार की सेना के विरोध में नहीं खड़ा है।
म्यांमार में सेना ने निष्पक्ष मीडिया संस्थानों और स्वतंत्र पत्रकारों पर भी पाबंदियां लगा दी हैं। वहां के पांच मीडिया घरानों – मिज्ज़िमा, डेमोक्रेटिक वौइस् ऑफ़ बर्मा, खिटठित मीडिया, म्यांमार न्यूज़ और 7-डे न्यूज़ – का लाइसेंस रद्द कर दिया गया है और कार्यालयों को सील कर दिया गया है। अब तक 25 से अधिक पत्रकारों को हवालात में डाला गया है, जिसमें एसोसिएटेड प्रेस का भी एक पत्रकार है। ह्यूमन राइट्स वाच के फिल रोबर्टसन के अनुसार म्यांमार की सेना शुरू से ही पत्रकारों को एक आतंकवादी के नजरिये से देखती रही है। वर्ष 2012 से पहले भी म्यांमार में कोई अखबार, किताबें, कार्टून इत्यादि बिना सेना की इजाजत के प्रकाशित नहीं किया जा सकता था।
दरअसल आज की दुनिया पी आर एजेंसी के ही भरोसे है, यह अलग बात है की हमारे देश में पी आर का अधिकतर काम तो मीडिया और संवैधानिक संस्थाएं ही कर देती हैं, फिर भी हमारी सरकार को भी विदेशों में छवि चमकाने के लिए पी आर एजेंसी की जरूरत पड़ ही जाती है। याद कीजिये कश्मीर में यूरोपियन पार्लियामेंट के चुनिन्दा सदस्यों का दौरा, अमेरिका के ह्यूस्टन में हाउडी मोदी का भव्य कार्यक्रम और समय-समय पर यूरोपीय देशों द्वारा भारत में मानवाधिकार हनन प्रस्ताव का अचानक रुक जाना - सब इन्ही पी आर एजेंसियों का खेल है।