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Exclusive Report : लाॅकडाउन में जूनियर और महिला वकीलों की अनसुनी दास्तां
किशनगंज से हुसैन ताबिश की विशेष रिपोर्ट
जनज्वार। "लॉकडाउन के दौरान पैसों और सुविधाओं के अभाव में मेरे पिता का इंतकाल हो गया। आखिरी वक्त में हम उनके लिए कुछ नहीं कर सके। इलाज के लिए पटना ले जाते वक्त रास्ते में ही उनकी मौत हो गई। 'मेरी पत्नी और बच्चे भी बीमार पड़ गए।उनका भी सही से इलाज नहीं हो पाया। इलाज होता भी कैसे? घर में पैसे नहीं थे। घर का खर्च तो पत्नी के आभूषण गिरवी रखकर और बेचकर चल रहा था तो इलाज के पैसे कहां से आते? हम भुखमरी की कगार पर पहुंच चुके थे।'' यह कहते हुए अधिवक्ता हैदर अली फफक पड़ते हैं, उनकी आँखों से छलकते आंसू मानो उन्हें वो मंज़र याद दिला देता है, जो लॉकडाउन में उन्होंने भुगता है।
हालाँकि जब जनज्वार इस रिपोर्ट को प्रकाशित कर रहा है, तब फिर से एक बार लगभग वैसी भी स्थितियां हो गयी हैं जो पिछले साल थीं, रोग की भयावहता और बढ़ती मौतों के आंकड़े डराने वाले हैं, तो जाहिर तौर पर जो चीजें पटरी पर लौट रही थीं वो फिर पीछे चली जाएँगी।
लॉकडाउन के दौरान जिले की कानून-व्यवस्था और अधिवक्ता वर्ग की आर्थिक स्थितियों का जिक्र करते हुए अधिवक्ता हैदर अली कहते हैं, "लॉकडाउन में पुलिस ने नागरिकों को नाहक परेशान किया। घर से दूध-सब्जी, दवाऔर जरूरी काम से बाहर निकलने पर भी वह लोगों की पिटाई करती थी। उस वक्त पुलिस के खिलाफ कार्रवाई भी नहीं हो सकती थी। जनता पुलिस अत्याचार की शिकार थी।"
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हालाँकि हैदर यह भी कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान सरकारी आदेशों की किसी ने परवाह नहीं की। जुबानी सरकारी घोषणाएं जनता का मूर्ख बनाने के चोचले हैं। मैंने महिंद्रा फाइनेंस कंपनी से लोन लेकर 5.5 लाख में हुंडई की ईओन कार ईएमआई पर खरीदी थी। ब्याज लेकर गाड़ी की कीमत 6.5 लाख रुपये हो गई थी। हम हर माह 6.5 हजार रुपये ईएमआई भर रहे थे। लॉकडाउन के कारण ईएमआई भरना बंद हो गया था। इस बीच महिंद्रा फाइनेंस कंपनी के कर्मचारियों ने ईएमआई के लिए बहुत परेशान किया। नहीं भरी जा सकी ईएमआई पर कंपनी ने चक्रवृद्धि ब्याज लगाकर जुर्माना वसूला।''
क्या कंपनी ने वापस कार मांगने या जबरन ले जाने की कोई धमकी दी? इस सवाल पर हैदर अली कहते हैं, "कार ले जाने की कोई धमकी तो नहीं दी, लेकिन सरकार द्वारा ईएमआई स्थगित करने की घोषणा की जानकारी देने पर भी वह लोग लगातार फोन कर ईएमआई अदा करने और चक्रवृद्धि ब्याज वसूलने की बात कहते रहे और अंत में वसूला भी लिया। लॉकडाउन ने हमें 10 साल पीछे कर दिया है।''
बिहार के किशनगंज जिले के एक अधिवक्ता नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, "कोरोना संक्रमण की रोकथाम के लिए लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन के कारण महीनों तक कोर्ट-कचहरी बंद रहने से यहां सर्वाधिक नुकसान जूनियर वकीलों को उठाना पड़ा। वह पाई-पाई के मोहताज हो गए। अगर उनका संयुक्त परिवार नहीं होता तो उनके बाल-बच्चों के सामने भुखमरी की नौबत आ जाती। लॉकडाउन का खामियाजा जूनियर वकीलों के अलावा महिलाओं, बुजर्गों एवं नाबालिग फरियादियों को भी उठाना पड़ा। फैमिली, एसडीजीएम, पोक्सो कोर्ट बंद होने से महिलाओं, वृद्धों और बच्चों के लिए न्याय के दरवाजे बंद हो गए। उनके साथ हुए जुल्म और ज्यादतियों का उन्हें समय पर इंसाफ नहीं मिल सका।''
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राजधानी पटना से 390 किलोमीटर के फासले पर बिहार का किशनगंज जिला स्थित है। पटना से बस या ट्रेन का सफर तय कर 8 से 10 घंटे का सफर कर यहां पहुंचा जा सकता है। 14 जनवरी 1990 को पूर्णिया जिले के किशनगंज सब-डिविजन को काटकर इसे एक स्वतंत्र जिले का दर्जा दिया गया था। यह जिला पश्चिम में अररिया, दक्षिण-पश्चिम में पूर्णिया, पूरब में पश्चिम बंगाल के दिनाजपुर एवं दार्जिलिंग जिले और उत्तर में नेपाल से घिरा है। पश्चिम बंगाल के जिले को पार कर महज 20 किमी बाद ही यहां बांग्लादेश की अंतरराष्ट्रीय सीमा है। यही वजह है कि हिंदी, उर्दू, मैथिली, सुरजापुरी और बांगला जुबान के साथ पड़ोसी जिले और देश की संस्कृति भी यहां के स्थानीय आबादी में रची-बसी है।
किशनगंज देश के 250 अत्यंत पिछड़े जिले में से एक और बिहार का एकमात्र चाय उत्पादक जिला है। इसकी खास पहचान इसलिए भी है कि यह बिहार का एकमात्र मुस्लिम बाहुल्य जिला है| कुल 16 लाख की आबादी में 68 प्रतिशत यहां मुस्लिम आबादी रहती है। कुल आबादी में 6.7 प्रतिशत अनूसूचित जाति और 3.8 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति की भी हिस्सेदारी है। एक हजार पुरुषों पर यहां 946 महिलाएं हैं और 57 प्रतिशत आबादी साक्षर है।
लॉकडाउन में किशनगंज की जनता के सामने इंसाफ पाने की राह में आने वाली रुकावटें और न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोगों को होने वाली आर्थिक-सामाजिक समस्याओं को टटोलने के लिए जनज्वार टीम यहाँ पहुंची। शहर की आबादी से दूर बिहार को बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों से जोड़ने वाले नेशनल हाइवे-31 के पास किशनगंज का जिला व्यवहार न्यायालय, कलेक्ट्रेट, आरटीओ, जिला कारागार, नगर निगम का दफ्तर और अन्य प्रशासनिक कार्यालय है। यहीं पास में ही किशनगंज रेलवे स्टेशन और अंतरर्राजीय बस अड्डा है। किशनगंज व्यवहार न्यायालय का परिसर काफी दूर तक फैला है। इमारतों के बीच फासले हैं। अहाता खुला-खुला सा है। यहां वकीलों के बैठने की बेहतर सुविधाएं हैं।
दोमंजिला इमारत के वकालतखाने में प्रथम तल पर वकीलों के लिए एक कॉन्फ्रेंस हॉल है। वकीलों की कई कुर्सियां खाली पड़ी हैं। कुछ वकील बाहर अहाते में एस्बेस्टस की छत वाले कॉटेज के नीचे बैठकर मुवक्किलों और गवाहों से बातचीत करने में मशगूल हैं। कोर्ट परिसर में वकीलों, मुंशियों, मुवक्किलों, गवाहों और वेंडरों की उतनी भीड़ नहीं है जितनी की आमतौर पर अन्य जिलों के कोर्ट परिसरों में होती और दिखती है। कोर्ट परिसर में लगे हरे-भरे पेड़ और क्यारियों में उपजी हरी घास यहां की नीरसता को हरकर माहौल का खुशनुमा बना रही हैं। हाईवे पर गाड़ियों का शोर है, लेकिन अंदर पुरसुकून खामोशी है।
अधिवक्ता सुजाता चौधरी और उनके पति शशिभूषण दुबे दोनों कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं। शशिभूषण के बड़े भाई भी इसी कोर्ट में वकालत करते हैं। यानी घर के तीन लोग इस पेशे से जुड़े हैं। सुजाता चौधरी कहती हैं, "लॉकडाउन के दौरान अदालतों में तालाबंदी से वकील समाज पूरी तरह टूट गया है। मेरे घर में एक साथ तीन लोगों की आमदनी बंद हो गई। बचत के पैसे जल्द ही समाप्त हो गए। घर में मेरे ससुर कैंसर के मरीज हैं। उनकी कीमोथैरेपी चल रही थी। ऐसे समय आमदनी बंद हो जाना हमारे सामने दुःखों का पहाड़ टूटने जैसा था। हम लाखों रुपये के कर्ज में डूब चुके हैं। लॉकडाउन से पहले मेरे घर में निर्माण का काम चल रहा था, अब वह अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया है।''
तलत नसीम, अहसान रजा, उमेश कुमार, राजन कुमार, अनिल कुमार सहित दो दर्जन से अधिक अधिवक्ताओं की राय है कि 5 से 10 प्रतिशत अधिवक्ताओं को छोड़ दिया जाए तो शेष सभी लोगों की हालत लॉकडाउन में खराब हो चुकी है। उनके सामने रोजी-रोटी का भीषण संकट पैदा हो गया था।
संपन्न वकील ही झेल पाये लाॅकडाउन की मार
जिन वकीलों को लॉकडाउन से कोई फर्क नहीं पड़ा, वह इस पेशे में स्थापित हो चुके हैं और पहले से संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते हैं। कोई जमींदार है, किसी की प्रैक्टिस अच्छी है तो किसी के बाल-बच्चे अच्छी नौकरी या किसी व्यवसाय में हैं। अधिवक्ताओं के मुताबिक सर्वाधिक आर्थिक संकट के दौर से उन वकीलों को गुजरना पड़ा जो जूनियर या असिस्टेंट की तरह सीनियर अधिवक्ताओं के साथ काम करते हैं। उनके पास बचत के नाम पर अपना कुछ नहीं होता है।
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लॉकडाउन के दौरान कई महीनों तक वे अपने खर्चों के लिए अभिभावक या परिवार के किसी अन्य सदस्य पर निर्भर रहे। ग्रामीण पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले वकील इस दौरान खेती-किसानी में लगे रहे, लेकिन जिनके पास गांव में खेतिहर जमीन नहीं थी और वे शहर में रहते थे, जो परिवार में अकेले कमाने वाले थे, उनकी स्थिति काफी दयनीय थी। उन्हें अपने मासिक खर्चों के लिए या तो कर्ज लेना पड़ा या आभूषण आदि गिरवी रखना या बेचना पड़ा।
जिला बार एसोसिएशन के अध्यक्ष शिशिर कुमार दास बताते हैं, "जरूरतमंद वकीलों को जिला बार एसोसिएशन की तरफ से 10-10 हजार रुपये की आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई गई थी। बिहार बार काउंसिल की तरफ से कई बार आर्थिक सहायता देने के लिए वकीलों से आवेदन लिए गए, लेकिन किसी को सहायता नहीं दी गई।'' अधिवक्ता भी दास के दावों की पुष्टि करते हुए कहते हैं, 'जिला बार एसोसिएशन की तरफ से आर्थिक मदद दी गई थी, लेकिन बिहार बार काउंसिल, बिहार सरकार या किसी अन्य स्रोत से उन्हें कोई सहायता नहीं मिली। कोरोनाकाल में परेशान हाल अधिवक्ता उस दौर को याद कर कुछ पल के लिए खामोशी अख्तियार कर लेते हैं। फिर एक ठंडी आंह भरकर कहते हैं, "हमें कितनी दिक्कतें उठानी पड़ी है, हम जितना बताते हैं आप उससे ज्यादा समझिए। कुछ बातें ऐसी होती है कि खुलकर बताई नहीं जा सकती है।'
जिला बार एसोसिएशन से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक किशनगंज सिविल कोर्ट में वर्तमान में 415 वकीलों का रजिस्ट्रेशन है। इनमें 260 हिंदू और 155 मुस्लिम हैं। मुस्लिमों में 20 पसमांदा तबके से हैं, जबकि 135 अशराफ मुसलमान हैं। हिंदुओं में यहां 50 प्रतिशत आबादी ओबीसी वर्ग के वकीलों की है। कुल संख्या में 10 दलित, 2 अनुसूचित जनजाति और शेष सामान्य वर्ग से आते हैं। 15 महिला वकील भी हैं, जिनमें 2 मुस्लिम और शेष हिंदू हैं। अनुसुचित जाति और जनजाति से कोई महिला वकील नहीं है, जबकि ओबीसी से महिला वकीलों की अनुमानित संख्या पांच हैं। पंजीकृत कुल वकीलों में 300 लोग ही नियमित रूप से कोर्ट आते हैं और वकालत करते हैं। नियमित महिला वकीलों की संख्या भी सिर्फ 7 है जिनमें दो मुस्लिम हैं।
किशनगंज सिविल कोर्ट में एक और बार एसोसिएशन है, जिसे ओल्ड बार एसोसिएशन भी कहते हैं। यहां भी 38 वकील पंजीकृत हैं जिनमें 6 महिला वकील हैं। हालांकि इनमें सिर्फ दो महिलाएं ही नियमित रूप से प्रैक्टिस करती हैं। पुरुषों में भी सभी नियमित नहीं हैं।
जिले की आबादी में बहुसंख्यक होने के बावजूद मुस्लिम वकीलों की आबादी यहां अपेक्षाकृत काफी कम है। वह प्रभावशाली नहीं है। यहां सवर्ण वकीलों की स्थिति भी मुस्लिम वकीलों जैसी है, जबकि वैश्य समाज के वकील अन्य की अपेक्षा बेहतर स्थिति में है। किशनगंज में अपराध का दर बिहार के अन्य जिलों के मुकाबले काफी कम है। यहां आमतौर पर जमीन-जायदाद, संपत्ति, विवाह-तलाक,भरण-पोषण, पाक्सो आदि के मामले ही ज्यादा होते हैं।
वकील बताते हैं कि लॉकडाउन के बाद कोर्ट में मुवक्किलों की आमद अभी भी कम ही है। उनके पास पैसे नहीं है। मुकदमा लड़ना उनकी प्राथमिकता सूची में नहीं है। कई क्लाइंट पैसे के अभाव में मुकदमे पर बहस कराने के बजाए अगली तारीख लेने की मांग करते हैं। चूंकि मुवक्किल कम आ रहे हैं तो इस वजह से वकीलों की आय भी कम हो गई है। वकील भी मुस्तैदी से अदालत नहीं आ रहे हैं। कोर्ट में इस समय क्लाइंट की जबर्दस्त मारामारी है। मुवक्किल तोड़े जा रहे हैं। महंगे वकील अपनी आधी फीस पर मुकदमा लड़ने को तैयार हैं। वकीलों की फीस 50 प्रतिशत तक कम हो गई है।
जूनियर वकीलों की न्यूनतम आय है बड़ा मसला
किशनगंज सिविल कोर्ट में नियमित रूप से कोर्ट आने वाले वकीलों में 100 के आसपास ऐसे वकील हैं, जिनका करिअर 1 से 5 साल का है। 100 ऐसे वकील हैं, जिनका करिअर 6 से 10 सालों का है। ये दोनों जूनियर और मिडिल जूनियर वकील की श्रेणी में आते हैं। लॉकडाउन का सर्वाधिक दुषप्रभाव इन्हीं वकीलों पर पड़ा है। इनकी आय बेहद मामूली होती है। यहां एक सामान्य वकील एक सुनवाई के लिए क्लाइंट से 200 से लेकर 500 रुपया तक अपनी फीस लेते हैं। सर्वाधिक संख्या ऐसे ही वकीलों की है, जबकि जूनियर वकीलों की आय अनिश्चित है। वह यह मानकर आते हैं कि 3 से 5 साल तक उनका ट्रेनिंग पीरियड है। इस अवधि में कोर्ट आने-जाने का खर्च भी उन्हें बमुश्किल ही मिल पाता है।
शिशिर कुमार दास कहते हैं, "ट्रेनिंग के दौरान एक जूनियर वकील कितना कमा सकता है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि उनके सीनियर की प्रैक्टिस और कमाई कितनी है? उनका जूनियर वकीलों के प्रति व्यवहार कैसा है? वह अपने जूनियर के आर्थिक हितों का कितना ख्याल रखते हैं और जूनियर में खुद सीखने और कमाई करने करने का माद्दा कितना है? ''
कनिष्ठ अधिवक्ताओं की मानें तो एक सामान्य जूनियर वकील की मासिक आय 1500 से 3 हजार के बीच भी बमुश्किल हो पाती है। अगर जूनियर वकील अपने दम पर कोई नया क्लाइंट लाता है या वह काफी तेजतर्रार है तो वह थोड़ा ज्यादा पैसे भी कमा सकता है। 6 से 10 साल की प्रैक्टिस का अनुभव रखने वाले मध्यम श्रेणी के सामान्य वकीलों की आय 10 से 20 हजार रुपए मासिक से अधिक नहीं है। यानी ग्रेजुएशन के बाद तीन साल वकालत की पढ़ाई करने के बाद भी उनकी आमदनी आठवीं/दसवीं पास चतुर्थ वर्गीय एक सरकारी कर्मचारी के करीब नहीं पहुंच पाती है।
सातवें वेतन आयोग के लागू होने के बाद चतुर्थ वर्ग के एक केंद्रीय कर्मचारी का वेतन 21,700 से लेकर 23,100 रुपये तक है, जबकि बिहार में यही वेतन 17,990 से लेकर 22 हजार के बीच है। इसके अलावा इन्हें मुफ्त इलाज, दुर्घटना बीमा, जीवन बीमा और प्राॅविडेंट फंड का लाभ भी मिलता है, लेकिन वकीलों के हिस्से में इनमें से कुछ नहीं आता है। यही वजह है कि चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करने वालों में ढेर सारे ग्रेजुएट, प्रोस्ट ग्रेजुएटऔर पीएचडी उम्मीदवारों के साथ लॉ ग्रेजुएट भी शामिल होते हैं।
कामगारों के अधिकारों के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्ता सुरजीत श्यामल कहते हैं, "1अप्रैल 2021 को बिहार सरकार के नए आदेश के अनुसार असंगठित क्षेत्र के अकुशल कामगारों की रोजाना की मजदूरी 304 रुपये और मासिक 7904 रुपये है। ऐसे ही अर्धकुशल कामगारों की रोजाना मजदूरी 316 और मासिक 8216 रुपये हैं। कुशल कामगार का रोजना की मजदूरी 385 रुपये और मासिक 10010 रुपये हैं। उच्च कुशलता प्राप्त पोस्ट ग्रेजुएट कामगारों का दैनिक वेतन 469 रुपये और मासिक 12194 रुपये सरकार ने तय कर रखा है, लेकिन वकील कामगारों की श्रेणी में नहीं आते हैं। विधि व्यवसाय एक स्वतंत्र पेशा और सेवा है। इस सेवा पर जीएसटी भी लागू नहीं है। वकील अपने पेशे का विज्ञापन भी नहीं कर सकते हैं। ऐसे में इसके लिए किसी न्यूनतम शुल्क की मांग कैसे और किससे की जाएगी?''
चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से भी बुरा है वकीलों का हाल
कम कमाई और एक सफल वकील बनने में निवेश होने वाले समय के कारण भी बहुत से वकील रजिस्ट्रेशन के बाद यह पेशा छोड़ देते हैं। उनमें कई प्राइवेट नौकरी, व्यापार या खेती-किसानी में लग जाते हैं। वकालत छोड़ खेती-किसानी करने वाले अरविंद सिंह कहते हैं, "इस पेशे में कमाई तक पहुंचने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। अगर आप के ऊपर घर चलाने की जिम्मेदारी हो, कोई बैक सपोर्ट नहीं हो तो आप बिना पैसे के आखिर कितने दिन काम कर सकते हैं। फिर यह भी निश्चित नहीं है कि 5-10 साल लगाने के बाद आप यहां सफल हो जाएंगे। ऐसे में जिनकी मजबूत पारिवारिक पृष्ठभूमि है, जिनके पास आय को कोई अन्य स्रोत है या जिनके पास इस व्यवसाय के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है, वही लोग यहां शुरुआती दिनों में टिक पाते हैं।''
जूनियर वकीलों चाहते हैं ट्रेनिंग और भत्ता जूनियर वकील चाहते हैं कि सरकार की तरफ से उन्हें भी एक साल की ट्रेनिंग सुविधा प्रदान की जाए और इस दौरान उन्हें कोई निश्चित राशि हर माह दी जाए, जैसे एक मेडिकल ग्रेजुएट को सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेज में इंटर्नशिप के दौरान मिलती है। इससे उन्हें निश्चित समय सीमा के अंदर अदालती कार्यों और प्रक्रियाओं का व्यावहारिक ज्ञान मिलने के साथ सीनियर के साथ लगने वाली लंबी अवधि को कम किया जा सकता है।
वरिष्ठ अधिवक्ता मनीष कुमार कहते हैं, "जूनियर वकीलों के सामने आय का हमेशा संकट रहता है। इस दौरान वह कोई दूसरा व्यवसाय भी नहीं कर सकते हैं। अधिवक्ता अधिनियम 1961 के तहत वकालत के पेशे में रहते हुए वह किसी भी व्यक्ति, सरकार, निगम या फर्म में पूर्णकालिक नौकरी या लाभ का पद नहीं ले सकता है। वह सक्रिय रूप से अपना कोई व्यवसाय भी नहीं कर सकता है। हालांकि वकीलों को पैतृक व्यवसाय में हिस्सेदारी, पार्ट टाइम अध्यापन और पार्टटाइम पत्रकारिता करने की छूट होता है। एक वकील वकालत करते हुए संसद, विधानमंडल और विधान परिषद का सदस्य भी बन सकता है, क्योंकि सरकार इसे लाभ का पद न मानते हुए समाज सेवा मानती है। हालांकि अधिवक्ता जनप्रतिनिधियों को सरकार यानी कार्यपालिका का अंग बनने के बाद वकालत छोड़नी पड़ती है।''
किशनगंज सिविल कोर्ट में एसटी वर्ग से प्रैक्टिस करने वाले मात्र दो वकीलों में से एक और बीएचयू से लॉ ग्रेजुएट अधिवक्ता कारलोस मरांडी कहते हैं, " ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की तरह नए वकीलों को भी कोर्ट ज्वाइन करने सेपहले सरकार द्वारा ट्रेनिंग और मासिक भत्ता दिया जाना चाहिए। इसके जरिए बेहतरीन लॉ ग्रेजुएटस को कोर्ट में सेल्फ प्रैक्टिस करने के लिए आकर्षित किया जा सकता है, क्योंकि कोर्ट में बेहतर ट्रेनिंग और पैसे के अभाव में टॉप संस्थानों के अधिकांश लॉ ग्रेजुएट्स या तो ज्यूडिशियल सर्विस की ओर रुख कर लेते हैं या फिर बहुराष्ट्रीय निगमों और बड़े शहरों के लीगल फर्म मेंअपनी सेवा देते हैं।''
मरांडी कहते हैं, "बदलते समय में वकीलों को तकनीकी ज्ञान देना भी जरूरी है। अपराध के केसों में जांच का तरीका बदल चुका है। जांच में नई तकनीकों का प्रयोग हो रहा है। मेडिकल, फॉरेंसिकऔर साइबर अपराध के मामलों की बहस में वकील डॉक्टर्स या तकनीकी एक्सपर्ट से बहस और काउंटर सवाल नहीं कर पाते हैं। उन्हें इसकी समझ ही नहीं होती है। कोर्ट में लंबे समय से प्रैक्टिस करने वाले सीनियर अधिवक्ता भी इन मामलों की समझ नहीं रखते हैं, फिर वह अपने जूनियर को क्या सिखाएंगे?''
किशनगंज में प्रैक्टिस करने वाले वकीलों में कई लोग बीएचयू, जामिया, अलीगढ़ और दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ ग्रेजुएट हैं। हालांकि अधिकांश लोगों ने बिहार से लॉ की पढ़ाई की है। किशनगंज में कोई लॉ कॉलेज नहीं है। यहां के लोग पूर्णिया या फिर कटिहार के लॉ कॉलेज से कानून की पढ़ाई करने के बाद जूनियर के तौर पर किसी वरिष्ठ वकील के साथ जुड़ जाते हैं।
अधिवक्ता मानते हैं कि यहां पढ़ाई का कोई स्टैंडर्ड नहीं है। कॉलेजों में एडमिशन के बाद सिर्फ परीक्षा देने ही जाना होता है। नए अधिवक्ता जो भी सीखते हैं वह अपने सीनियर से ही सीखते हैं। ऐसे में एक योग्य और सफल वकील बनने में अधिक समय लगना स्वाभाविक भी है।
गणेशरंजन घोष, संजीव कुमार दास, मनीष शाह, रामानंद शाह, राजकुमार शाह, शंभू यादव और युसूफ जैसे दर्जनों अधिवक्ताओं का मत है कि अगर वकीलों की पढ़ाई और ट्रेनिंग अच्छे से हो तो उनकी आर्थिक स्थिति और पेशे में सफलता का दर बेहतर हो सकता है।
उल्लेखनीय है कि बीते 22 मार्च को ही पटना हाईकोर्ट ने बिहार के 28 सरकारी और निजी लॉ कॉलेज में अगले आदेश तक नामांकन पर रोक लगा दी है। हाईकोर्ट ने यह आदेश एक जनहित याचिका की सुनवाई के बाद दिया है, जिसमें कहा गया था कि बिहार के किसी भी लॉ कॉलेज में सृजित पद के अनुसार फैकल्टी और आधारभूत संरचनाएं नहीं हैं। कोई भी लॉ कॉलेज बार काउंसिल ऑफ इंडिया के मानकों को पूरा नहीं करता है। हाईकोर्ट ने बिहार के यूनिवर्सिटी कमीशन, बिहार स्टाफ सेलेक्शन कमीशन और कुलाधिपति कार्यालय को नोटिस जारी कर इस संबंध में अपना पक्ष रखने को कहा है। इस मामले की अगली सुनवाई अब 23 अप्रैल को होनी है।
क्या कहती हैं महिला अधिवक्ता
किशनगंज सिविल कोर्ट में पुरुष वकीलों की तुलना में महिला वकीलों की संख्या न के बराबर है। यहां दो बार एसोसिएशन को मिलकार कुल 21 महिला वकीलों में सिर्फ 9 महिलाएं ही नियमित रूप से कोर्ट में प्रैक्टिस करती हैं। लॉकडाउन के दौरान कोर्ट बंद रहने से महिला वकीलों को भी आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा और उनके क्लाइंट के मुकदमे बाधित हुए।
सुजाता चौधरी पिछले तीन साल से अपने पति के साथ कोर्ट में प्रैक्टिस करती हैं। वह कहती हैं, "मुझे यहां आने और काम करने में किसी तरह की परेशानी महसूस नहीं होती है। कोर्ट परिसर का माहौल पूरी तरह वुमन फ्रैंडली है। महिला वकीलों के साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं होता है।'' हालांकि सुजाता यह भी स्वीकार करती हैं कि मुझे किसी अन्य लोगों से कोई वास्ता ही नहीं पड़ता है। मेरे अधिकतर क्लाइंट पति की वजह से मिलते हैं और उन्हीं के साथ मैं काम करती हूं।"
वह आगे कहती हैं, "यहां क्लाइंट महिला वकीलों पर पूरा भरोसा करते हैं। यहां तक कि घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना, तलाक, भरण-पोषण और महिलाओं से जुड़े केस में महिला फरियादी महिला वकीलों को केस देने और उनसे अपनी परेशानी शेयर करने में ज्यादा सहज महसूस करती हैं।'' महिला वकीलों की कम संख्या के सवाल पर सुजाता कहती हैं कि महिलाओं में साक्षरता के कमस्तर के कारण यह समस्या हो सकती है।
अधिवक्ता प्रियंका कुमारी तीन साल से स्वतंत्र रूप से प्रैक्टिस करती हैं। इससे पहले उन्होंने वरिष्ठ महिला वकील शबनम खानम के साथ जूनियर के तौर पर काम किया है। प्रियंका कहती हैं, "आर्थिक तौर पर वकील की हैसियत एक मजदूर जितनी ही होती है। न उसकी कोई निश्चित मासिक आय होती है और न ही फिक्स मासिक बजट। रोज कमाना है और खाना है। कोई सेविंग भी नहीं हो पाती है।''
प्रियंका के मुताबिक जूनियर वकील 3 से 5 साल तक कमाने का नहीं, बल्कि सीखने का सोच कर कोर्ट आते हैं। इस दौरान उनकी आमदनी कुछ नहीं होती है। अगर वह खुद का खर्च निकाल लेते हैं तो यही उनके लिए काफी होता है। एक जूनियर वकील कमा कर घर परिवार नहीं चला सकता है। वह मानती हैं कि लॉकडाउन में जूनियर्स अधिवक्ताओं की थोड़ी-बहुत कमाई भी बंद हो गई थी। क्लाइंट कोर्ट आ नहीं रहे थे। थोड़ी-बहुत सुनवाई ऑनलाइन ही हो रही थी, ऐसे में जूनियर्स को पैसा कहां से आता और कौन देता?
महिला वकीलों की कम संख्या का कारण प्रियंका समाज में कामकाजी महिलाओं को लेकर बनी स्टीरियोटाइप धारणा और पितृसत्तात्मक समाज को मानती हैं। वह कहती हैं, "यहां सभी पढ़े-लिखे लोग हैं फिर भी अगर कोई महिला किसी से ज्यादा मिलती-जुलती या बात करती है तो लोग उसपर अपनी नजर रखते हैं। अगर कोई महिला वकील केस और क्लाइंट के सिलसिले में देर शाम घर से बाहर रहती है, चार तरह के लोगों से मिलती है तो घर से लेकर रिश्तेदार, मोहल्ला और पूरा समाज उस पर ऊंगली उठाने लगता है, जबकि पुरुषों के ऐसा करने पर किसी को कोई परेशानी नहीं होती है।"
प्रियंका कहती हैं, "यहां इतने सारे पुरुषों के बीच अगर कम संख्या में महिला वकील बैठती हैं तो वह भी असहज महसूस करती हैं। यहां जो महिला वकील नियमित रूप से कोर्ट आती हैं या तो उनके पति भी वकील हैं या उनके कोई न कोई रिश्तेदार यहां प्रैक्टिस करते हैं। महिलाओं को पेशे के साथ घरेलू जिम्मेदारी भी निभानी होती है, इसलिए पारिवारिक दबाव में भी वह काम छोड़ देती हैं। बिहार में अधिकांश पढ़ी-लिखी लड़कियां शिक्षक, नर्सिंग या फिर पुलिस की नौकरी को प्राथमिकता देती हैं, जबकि उन्हें इस पेशे में भी आना चाहिए। यह भी 10 से 5 वाला ही पेशा है जो महिलाओं के नेचर के अनुकूल है। महिलाएं जब तक इसपेशे में नहीं आएंगी परिर्वतन कैसे आएगा?"
प्रियंका सवालिया लहजे में पूछती है कि छोटे शहरों और गांवों में आज भी युवकों और उनके अभिभावकों को शादी के लिए घरेलू लड़की ही चाहिए। वह महिला सशक्तिकरण का समर्थन तो करते हैं, लेकिन अपने घर की महिलाओं को छोड़कर। उन्हें कामकाजी पत्नी या बहुओं से परहेज क्यों है?
दिल्ली यूनिवर्सिटी से लॉ ग्रेजुएट वकील अर्चना भी प्रियंका के मत से इत्तेफाक रखते हुए कहती हैं, "भारतीय समाज पितृसत्तात्मक है। एक सामान्य परिवार लड़कियों को करिअर के चयन की स्वतंत्रता देने और आत्मनिर्भर बनने से ज्यादा उसकी शादी पर जोर देता है। लड़कियों को घर,समाज और सीनियर्स से उस तरह को मोटिवेशन भी नहीं मिल पाता है जिसकी उन्हें जरूरत होती है। फिर किशनगंज जैसे जिले में जहां महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत ही कम है, वहां कोई महिला वकील कैसे बन पाएगी? "
7 साल नियमित रूप से वकालत करने के बाद अब कभी-कभार ही कोर्ट आने वाली पटना लॉ कॉलेज से ग्रेजुएट अधिवक्ता अमृता कहती हैं, "छोटे शहरों में महिला अधिवक्ताओं द्वारा वकालत छोड़ने का कारण कम आमदनी, पारिवारिक दबाव या फिर उसमें निवेश होने वाला लंबा वक्त शायद ही होता होगा, क्योंकि किसी भी प्रोफेशन में शुरुआती दिनों में सभी को संघर्ष करना पड़ता है। वकालत छोड़ने का मुख्य कारण कोर्ट परिसर का महिला विरोधी माहौल और वकीलों का पितृसत्तात्मक चरित्र होता है। अधिकांश पुरुष सहकर्मियों का महिला वकीलों के प्रति उचित रवैया नहीं होता है। खासकर छोटे शहरों के वकीलों में प्रोफेशनलिज्म का अभाव होता है। वकालत उनकी पहली च्वाइस नहीं होती है। अधिकांश लोग किसी दूसरे करिअर में असफल होने के बाद इसे अंतिम विकल्प के तौर पर अपनाते हैं। कोर्ट में कुछ लोग काफी सपोर्टिव और अच्छे भी होते हैं, लेकिन ऐसे लोग मुठ्ठीभर हैं। कोर्ट में आज जो महिला वकील आ रही हैं उनमें से ज्यादातर के पति या सगे-संबंधी उनके साथ काम करते हैं। अकेली महिलाओं के लिए यहां टिके रहना काफी मुश्किल होता है। कम से कम मेरा अनुभव तो ऐसा ही है।''
इसी कोर्ट में नोटरी का काम करने वाली मुस्लिम महिला वकील शहनाज नूरी के पिता यहां के प्रसिद्ध वकील रह चुके हैं। उनके पति भी यहां वकालत करते हैं। वह कहती हैं, "मुझे 35 साल हो गए यहां काम करते हुए। कुछ भीनहीं बदला है यहां।''
यहां की दूसरी महिला वकील शबनम खानम एक दैनिक अखबार से भी जुड़ी हैं। दो बार उनसे संपर्क करने के बाद भी वह बातचीत से इंकार कर देती हैं।
अघोषित भय के साये में वकील
वकील समाज का एक प्रबुध वर्ग है। सरकार के तीनों अंगों में न्यायपालिका का वह एक अभिन्न हिस्सा है। नागरिकों के साथ हो रही किसी तरह की नाइंसाफी के खिलाफ वह खड़ा होता है। जनता में वह अधिकार बोध और अपने हक के लिए लड़ने की चेतना जगाता है। वह किसी लोकतांत्रिक देश और वहां के नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रहरी होता है। लेकिन किशनगंज के वकील खुद किसी मुद्दे पर अपनी राय रखने से कतराते हैं। हर सवाल पर वह बार के पदाधिकारियों से या किसी दूसरे वकील से मिलने की सलाह देते हैं।
वे कहते हैं, "यहां का सियासी माहौल ठीक नहीं है। मुझे इसी कोर्ट में अपनी प्रैक्टिस करनी है और अपना परिवार चलाना है।'' वे पुलिस और न्यायालय से भी अतिरिक्त भय का प्रदर्शन करते हैं। वकील किसी अघोषित भय के साये में दिखाई देते हैं। वह कहते हैं यहां की पुलिस किसी को नहीं छोड़ती है। थोड़ी सी गलती पर गिरफ्तार कर लेती है। किसी को भी कूट देती है। यहां किसी के खिलाफ कोई कुछ नहीं बोलता है।
भय और संशय के बीच ही कुछ वकील आक्रोश के लहजे में कहते हैं, " न्यायपालिका में आज विधायिका और कार्यपालिका से भी ज्यादा भ्रष्टाचार है। यह पूरी तरह लालफीताशाही की शिकार है, लेकिन इसका असली चरित्र अदालतों की ऊंची चहारदीवारी और न्यायालय के अवमानना कानूनों की आड़ में छिप जाता है। है। न्यायपालिका की कुव्यवस्थाओं पर कोई बात नहीं होती है। नागरिकों का न्यायालयों से भरोसा कम हो रहा है। गरीब, वंचित और कमजोरों के लिए न्याय पाना कठिन हो रहा है। कई वकील मौजूदा केंद्र सरकार की नीतियों से असंतुष्ट दिखते हैं, लेकिन वह खुलकर कुछ भी बोलने से कतराते हैं। काफी कुरेदने पर वह बस इतना ही बोलपाते हैं कि अब पहले जैसा समय नहीं रहा।
लॉकडाउन में फरियादियों का हाल
किशनगंज के बस्ती इलाके में रहने वाली ऋतंभरा की शादी कोचाधामन ब्लाॅक निवासी दीपक से हुई थी। दीपक अपनी पत्नी को लेकर लुधियाना में रह रहा था। कुछ दिनों बाद वह दहेज के लिए अपनी पत्नी के साथ मारपीट करने लगा और उसे वापस मायके भेज दिया। ऋतंभरा कहती है, "2016 से मैं पति से घरेलू हिंसा का मुकदमा लड़ रही हूं। लॉकडाउन में लगभग सालभर तक मेरे केस में एक भी सुनवाई नहीं हुई।
किशनगंज के सदर बाजार निवासी अभिजीत कुमार दास पेशे से मरीन इंजीनियर हैं। वह अपने मोहल्ले की एक सवर्ण जाति की लड़की से प्रेम करते थे। वर्ष 2017 में दोनों ने कथित तौर पर घर से भागकर दिल्ली में आर्य समाज मंदिर में विवाह कर लिया। बाद में कोर्ट में अपने विवाह का पंजीकरण कराया। लड़की के परिवार वालों ने अभिजीत पर अपहरण का मुकदमा दर्ज करा दिया। अभिजीत की पत्नी तीन सालों से अपने पिता के घर है और अभिजीत उसे दोबारा पाने के लिए मुकदमा लड़ रहे हैं।
अभिजीत कहते हैं, ''शादी के बाद मैने सोचा था सरकार से मुझे अंतरजातीय विवाह प्रोत्साहन योजना के तहत दो लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि मिलेगी, लेकिन ठीक इसका उलटा हो गया। मेरा प्रेम विवाह पुलिस-प्रशासन और न्यायालय सभी की नजर में जातिवादी श्रेष्ठता और सम्मान का मुद्दा बन गया। मेरा पक्ष मजबूत होने पर भी हमें न्याय नहीं मिला। लॉकडाउन के कारण लगभग सालभर से मेरा केस पेंडिंग पड़ा है। उसमें कोई प्रगति नहीं हुई।'' अभिजीत अपना मुकदमा खुद लड़ने के लिए अब लॉ की पढ़ाई कर रहे हैं।
बिहार में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण एवं कल्याण अधिनियम-2012 के अनुसार इस तरह के मुकदमों का निपटारा 60 दिनों के अंदर करना अनिवार्य है, लेकिन लॉकडाउन के कारण ऐसे मामलों की सुनवाई स्थगित रही। किशनगंज के खड़गा निवासी 66 वर्षीय कालू मिस्त्री को उसके ही बड़े बेटे ओम प्रकाश ने घर से निकालकर खाना-खर्चा बंद कर दिया। कालू अपने छोटे बेटे संतोष के साथ लावारिस हालत में जीने को अभिशप्त है। न्यायालय ने इस मामले में 29 अगस्त 2020 को ओम प्रकाश को अपने पिता का घर वापस देने और उसकी देखभाल, दवा-दारू, खाना-पीना और सेवा का आदेश दिया था, लेकिन लॉकडाउन के कारण अदालत के फैसले की तामील नहीं हो पाई और कालू आज भी न्याय की राह देख रहा है।
वरिष्ठ वकील दीपक कुमार शर्मा कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान न्यायालय फिरियादियों के साथ दया दिखाते हुए कोई भी नकारात्मक आदेश नहीं दे रहा था। कोरोना के कारण जेल खाली करने के उद्देश्य से अभियुक्तों को बिना किसी छानबीन के थोक के भाव में जमानत दी जा रही थी। तालाबंदी के दौरान जिले में कानून-व्यवस्था की स्थिति लगभग सही थी। पुलिस कई बार नागरिकों के साथ सख्ती से पेश आती थी, लेकिन यह जनता के हित में था और इसी वजह से यहां संक्रमण फैलने पर नियंत्रण भी पाया जा सका।''
शिशिर कुमार की मानें तो लॉकडाउन में वादी और प्रतिवादी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। जो जेल में बंद थे उन्हें समय पर जमानत नहीं मिली, और जो किसी अपराध के अभियुक्त थे, उन्हें जेल नहीं भेजा जा सका।
महिला वकील प्रियंका वर्मा कहती हैं, " लॉकडाउन में परिवार और पोक्सो न्यायालयों का काम ठप होने से सर्वाधिक नुकसान महिला और नाबालिग फरियादियों को हुआ है।'' उनके मुताबिक लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा और बाल यौन शोषण की घटनाएं बढ़ गई थी, लेकिन ऐसे मामले दर्ज नहीं हो सके। वह बताती हैं कि मेरी दस ऐसी क्लांइट हैं, जिनका मेंटेनेंस, घरेलू हिंसा, दहेज, बलात्कार और अप्राकृतिक यौनाचार के मुकदमे हैं, जिनकी सुनवाई नहीं हुई। गुजारा-भत्ता के केस में कई महिलाओं के पति ने उसे खर्चा देना बंद कर दिया और वह मायके में आकर बैठ गई, जिनसे परिवार में अनावश्यक तनाव पैदा हुआ। कई महिलायें गहरे अवसाद की शिकार हुईं। प्रियंका वर्मा कहती हैं, "एक केस को अदालती प्रक्रियाओं से गुजरते हुए नियमित सुनवाई तक पहुंचने में कम से कम छह माह का समय लगता है। लॉकडाउन के कारण ऐसे मामलों में 1 साल तक का विलंब हुआ है।
अधिकांश वकीलों का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान अभियुक्तों को हाईकोर्ट से जमानत मिलने में देरी हुई और वह अभी भी जारी है। अधिवक्ता हैदर अली कहते हैं, "मेरे क्लाइंट शोएब आलम पर बहादुरगंज थाने में हत्या का केस दर्ज है। वह इस समय जेल में बंद है। मैंने 14 जनवरी 2020 को हाईकोर्ट में जमानत के लिए अर्जी दी थी, लेकिन मार्च 2021 तक मेरे केस की सुनवाई नहीं हुई।''
सीनियर एडवोकेट तलत नसीम कहते हैं, ''हाईकोर्ट में साल-सालभर से क्लाइंट का बेल पिटीशन पेंडिंग है, सुनवाई नहीं हो रही है। लॉकडाउन में न्याय उन्हीं के लिए सुलभ था जो सक्षम हैं और जिनका अप्रोच था। गरीब, लाचार और मजलूमों के लिए इंसाफ मिलना निहायत ही मुश्किल था।
कोर्ट कार्यालय से प्राप्त जानकारी के मुताबिक, किशनगंज सिविल कोर्ट में कुल 16 न्यायालय हैं, जिसमें दो प्रोबेशनल कोर्ट हैं। यहां अभी चार पद रिक्त हैं। सामान्य तौर पर यहां दस न्यायालयों में नियमित तौर पर सुनवाई होती है। राज्य के अन्य जिलों की तुलना में यहां पेंडिंग मुकदमों की संख्या मात्र 25 हजार के आसपास है। कोर्ट में रोजाना दर्ज होने वाले कंपलेन और टाइटल केस की औसत संख्या मात्र 7-8 है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई मुकदमा दर्ज नहीं होता है।
मार्च 2021 के पहले हफ्ते से यहां रोजाना फिजिकल सुनवाई भी हो रही है। इसके पहले अलटरनेट- डे वर्चुअल कोर्ट चल रही है। हालांकि वर्चुअल तकनीक से अपरीचित यहां के अधिवक्ताओं कोभी काफी परेशानियां झेलनी पड़ी। अनुमानतः यहां सिर्फ 50 प्रतिशत वकील ही स्मार्टफोन प्रयोग करते हैं। उनके पास लैपटॉप,कंप्यूटर और इंटरनेट जैसी सुविधाओं का भी अभाव है। सीनियर अधिवक्ताओं ने इस काम में अपने जूनियर वकीलों की मदद ली।
विधिक लिपिक, टाइपिस्ट और कोर्ट परिसर के दुकानदार भी बेहाल लॉकडाउन में अधिवक्ताओं के साथ काम करने वाले विधिक लिपिक (मुंशी), टाइपिस्ट, फोटो कॉपीयर और कोर्ट परिसर में छोटा-मोटा व्यवसाय करने वाले दुकानदारों की हालत भी दयनीय हो गई थी, क्योंकि इनकापूरा व्यवसाय न्यायालय परिसर में रोजाना वादी-प्रतिवादी और गवाहों के आमद-ओ-रफत परनिर्भर है।
अधिवक्ता लिपिक संघ के महासचिव शिवकुमार कहते हैं, "कोर्ट में इस समय 182 विधि लिपिक हैं, जिनमें 97 लोग पंजीकृत हैं और शेष गैर पंजीकृत सदस्य हैं। इनमें तीन महिला मुंशी भी हैं। कोराना काल में संघ की तरफ से जरूरतमंद सदस्यों को 3500 रुपये का मदद दिया गया था। अधिवक्ताओं की हालत खुद खराब थी इसके बावजूद उन लोगों ने अपने-अपने मुंशियों को यथासंभव मदद की थी। आधे से अधिक मुंशी इस समय कर्जदार हैं। यहां किसी को कोरोना तो नहीं हुआ, लेकिन एक मुंशी की बीमारी से मौत जरूर हुई थी।''
संघ के कोषाध्यक्ष मोहम्मद सलीम कहते हैं, "यहां एक मुंशी की मासिक आय 5-10 हजार से अधिक नहीं है। कुछ लोगों केपास खेती की जमीन है और लगभग दस मुंशियों के बच्चे इसी कोर्ट में वकालत करते हैं। हालांकि किसी भी मुंशी के बच्चे किसी सरकारी सेवा में नहीं हैं।''
सलीम मुंशियों की समस्या बताते हुए कहते हैं कि उनके लिए कोर्ट परिसर में कोई बैठने की जगह तक नहीं है। महिला विधिक लिपिक आरती शाह, लालमणी देवी और प्रीति कुमारी को इस काम में कोई परेशानी नहीं होती है, हालांकि तीनों काम में कम पैसे की शिकायत करती हैं। प्रीति कुमार अभी 12वीं पास हैं। उसका पति बेरोजगार है। वह अपनी पढ़ाई जारी रखकर वकील बनना चाहती हैं।
कोर्ट परिसर में 10 टाइपराइटर वाले टाइपिस्ट और 7 कंप्यूटर टाइपिस्ट भी काम करते हैं। कंप्यूटर टाइपिस्ट जहां दुकान लेकर काम करते हैं, वहीं पारंपरिक टाइपिंग मशीन पर काम करने वाले लोगों के लिए कोई छत नहीं है। वह एक रास्ते पर प्लास्टिक की छप्पर तानकर उसके नीचे काम करते हैं। सभी की उम्र 50 के पार है और संभवतः यह आखिरी पीढ़ी के टाइपिस्ट हैं।
60 वर्षीय अयूब राहिल और 75 वर्षीय रामनारायण कहते हैं, ''इस काम में इतना कम पैसा है कि अब कोई नई पीढ़ी का युवक इस काम में नहीं आना चाहता है। 6-10 हजार मासिक से ज्यादा यहां किसी की आय नहीं है। टाइपिंग का रेट पिछले दो दशकों से यथावत है। मशीन बिगड़ जाने पर जल्दी उसके पार्ट-पुर्जे नहीं मिलते हैं। उसे बनवाने या तो 400 किमी दूर पटना जाना होता है या फिर 160 किमी दूर दार्जिलिंग या 100 किमी दूर सिल्लीगुड़ी। किसी भी जगहजाने में खर्च बहुत ज्यादा है। लाॅकडाउन में अधिकतर टाइपिस्ट साइकिल पर मास्क, सब्जी या फल बेचने का काम करने लगे थे।
कोर्ट परिसर में लगभग डेढ़ दर्जन दुकानें हैं जिनमें फोटोकॉपी, फोटो स्टूडियो, स्टेशनरी, होटल, चाय, पान और ज्योतिष की दुकान शामिल हैं। लगभग चार महीने ये दुकानें बंद रहीं।
दुकानदार कहते हैं, "लॉकडाउन समाप्त होने के बाद भी बिक्री नहीं है। चार महीने का समय बहुत कठिनाई से बीता है। हम उसकी भरपाई आने वाले दो-तीन सालों में भी नहीं कर पाएंगे। पूंजी टूट गई और ऊपर से कर्ज भी चढ़ गया है।
कोर्ट परिसर में 42 सालों से पान की दुकान चलाने वाले अकरम कहते हैं, "मेरी दो लड़की मिर्गी की बीमारी से पीडि़त है। पत्नी को शुगर की बीमारी है। लाॅकडाउन में हम राशन-पानी और दवा-दारू तक के लिए मोहताज हो गए थे। महीनों के बंद के कारण मेरी दुकान का सामान खराब हो गया। कर्ज लेकर दोबारा दुकान शुरू किया है।'' पान की दुकान चलाकर घर चलाने और साथ में BA की पढ़ाई करने वाले फैज लॉकडाउन की परेशानियां पूछने पर मुस्कुराते हुए कहता है, "जिंदगी है तो मुश्किलें तो आती रहती है।''
(यह रिपोर्ट ठाकुर फैमिली फाउंडेशन द्वारा समर्थित एक प्रोजेक्ट का हिस्सा है। ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस प्रोजेक्ट पर किसी तरह का कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं रखा है।)