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संस्कृति

अपने पे हंस कर जग को हंसाने वाला 'बहुरुपिया'

Janjwar Desk
7 Nov 2021 12:28 PM GMT
अपने पे हंस कर जग को हंसाने वाला बहुरुपिया
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लोक कला और नाट्यकला की बहुत पुरानी परंपरा बहुरुपिया।

आज के दौर में तकनीक ने जहाँ मनोरजन को नए मुकाम पर पहुंचा दिया है वहीं 'बहुरुपिया' समुदाय अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है।

बहुरुपिया समुदाय पर महेंद्र पांण्डेय की एक टिप्पणी

हमारे देश में लोक कला और नाट्यकला की बहुत पुरानी परंपरा है, जिसका एक उदाहरण 'बहुरुपिया' भी है| बहुरुपिया, यानि एक ही आदमी के अलग-अलग रूप - और रूप के साथ बदलती वेशभूषा और भाव-भंगिमाएं| बचपन में दशहरा से दिवाली के बीच के समय में 'बहुरुपिया' घर-घर जाते थे और अपना रूप दिखाकर कमाई करते थे। यह परंपरा अब विलुप्त सी होती जा रही है। पहले शहर या गांव में एक ही 'बहुरुपिया' होता था। वह सबके लिए कुतूहल का विषय होता था, पर आज के दौर में हमसब 'बहुरुपिया' हो चले हैं। विना वेशभूषा और भाव-भंगिमाएं बदले ही अलग-अलग रूप दिखाने लगे हैं।

दरअसल, अब देश ही बहुरूपियों का हो चला है, जो सबसे सशक्त 'बहुरुपिया' होता है, वह हमपर राज करने लगता है| हाल में ही जापान में एक व्यक्ति जोकर के वेश में रेलगाड़ी पर सवार होकर लगभग 30 लोगों पर चाक़ू से वार कर उन्हें घायल कर दिया। अब शासक भी ऐसे ही होते हैं, जो अपनी क्रूरता और हिंसा छिपाने के लिए जोकर का वेश धरते हैं|

जीवन के अलग-अलग रंगों को जीने वाले इन्हीं बहुरुपियों पर कुछ कविताएं समय-समय पर लिखी गईं हैं, जिनमें सबसे चर्चित कविता, फणीश्वरनाथ रेणु ( Fanishvarnath Renu) की कविता, बहुरुपिया हैं

बहरूपिया - फणीश्वरनाथ रेणु

दुनिया दूषती है, हंसती है

उंगलियाँ उठा कहती है...

कहकहे कसती है...राम रे राम|

क्या पहनावा है

क्या चाल-ढाल, सबड सबड

आल-जाल-बाल

हाल में लिया है भेख

जटा या केश?

जनाना-न-मर्दाना

या जन.......

अ....खा.....हा....हा...ही...ही...

मर्द रे मर्द

दूषती है दुनिया

मानो दुनिया मेरी बीबी हो

पहरावे-ओढ़ावे, चाल-ढाल

उसकी रूचि, पसंद के अनुसार

या रुचिका

सजाया-संवारा पुतुल मात्र

मैं,

मेरा पुरुष

बहुरुपिया

इसी तरह कवि अनुपम कुमार ( Anupam Kumar) की भी एक कविता है, बहरूपिया, जिसमें उन्होंने बहरूपिया शब्द की अलग-अलग व्याख्या की है और इसके साथ एक आम आदमी के विभिन्न रूपों को उजागर भी किया है|

बहरूपिया - अनुपम कुमार

मैं बहरूपिया हूँ

कई रूप है मेरे

हाँ! मैं बहरूपिया हूँ

मैं बहैरू 'पिया' हूँ

शादीशुदा हूँ

तो थोड़ा सा बहरा भी हूँ

बीवी की हर मांग सुन नहीं पाता

इसलिए बहैरू 'पिया' हूँ

मैं बह 'रूपया' हूँ

बाल-बच्चेदार हूँ

शौक़ न सही ज़रुरत पे उनके

थोडा सा रूपया बहाता भी हूँ

सो मैं बह 'रूपया' हूँ

मैं बहु 'रूपिया' हूँ

नौकरीशुदा हूँ

तो कई रूप हैं मेरे

मैं मालिक से कम

नौकर से ज़्यादा हूँ

कभी ऊंट घोड़ा हाथी

तो कभी पिद्दी प्यादा हूँ

मैं अपने रूप में नहीं हूँ

ग़लत हूँ या फिर सही हूँ

रूप बदलने की मेरी मज़बूरी है

ये मेरे लिये ज़रा ज़रूरी है

अपने असल रूप में मैं आ नहीं सकता

बाल-बच्चों को कटोरा थमा नहीं सकता

सरकार समाज और समय की ज़ोराज़ोरी है

लगता विधाता भाग्य जीवन की हेराफ़ेरी है

बहते-बहते समय के साथ बह गया हूँ

रूप कई ढो-ढो के अब ढह गया हूँ

आफ़त ये कि अब भी कोई पहचानता नहीं

बहरूपिया ही हूँ मैं पर कोई मानता ही नहीं

बहुरूपिया पर संभवतः सबसे विस्तृत कविता उद्भ्रांत (Udbhrant) ने लिखी है, उनकी कविता का शीर्षक है, बहुरूपिया| इसमें बहुरूपिया के विस्तृत वर्णन के साथ ही उसे देख पाने की बाल सुलभ जिज्ञासा, समाज की कुरीतियाँ और अंत में पुलिस और प्रशासन का चरित्र भी है।

बहुरूपिया - उद्भ्रांत

उसे देखा था बचपन में

तरह तरह के भेस बनाता

आता जब बाजार में

तो सभी की निगाहें उसकी ओर उठ जातीं

कौतूहल से सभी देखते

कभी विस्मय से

कभी उसकी कलाकारी के लिए

भाव उठता प्रशंसा का भी

क्योंकि उसका रूप

सजीव होता बोलता हुआ

गोकि वह बोलता नहीं था

कभी लाल जीभ बाहर निकाले

गले में मुंडमाला, कौड़ियों की माला डाले

बाएँ हाथ में खप्पर

लाल रंग में भरा गोया खून

दाएँ हाथ में तलवार

पैरों में घुँघरू बाँधे

काले कपड़ों में

लंबे बालों और

काली आँखों वाला वह

जब किसी दूकान पर आता

जहाँ मैं मौजूद होता पहले से

कॉपी या किताब की खरीदारी को

या कोई किताब या पत्रिका को उलटते-पलटते

तो मैं सहम जाता

और दूकान के अंदर खिसकता

जब तक वापस मुड़कर देखूँ

तब तक वह

अपने खप्पर में

छन्न की आवाज के सँग

दुकानदार के फेंके सिक्के को -

चवन्नी-अठन्नी के -

लेकर आगे बढ़ गया होता

दूकान का सारा कार्य-व्यापार

चलता रहता पूर्व की तरह ही

ग्राहक सामान खरीदते रहते

दुकानदार की

बिक्री जारी रहती बदस्तूर

और मैं छलाँग लगाकर बाहर

उसकी पाने एक झलक

निकलता फिर

किंतु काली माँ की तरह

झलक अपनी एक दिखाकर ही

इस दृश्यमान जगत से जो

पहले ही

ओझल होता

मध्ययुगीन योद्धा कभी

कभी सिपाही

कभी सैनिक

कभी गुंडा

कभी नेता

और कभी कभी तो रूप भिखारी के धरे

दीख पड़ता वह!

एक दिन साधु के वेश में,

अगले दिन खूँख्वार जल्लाद!

एक दिन तो सचमुच ही कमाल हुआ

प्रकट हुआ जब वह एक सिपाही के रूप में

नजर आया करता हुआ वकालत

शिक्षा का स्तर सुधारने की!

एक दिन मदारी,

एक और दिन जादूगर,

और कभी अफसर भी!

जादू!

ओह, यह सब कुछ

जादू नहीं तो और क्या था?

एक दिन वह ईश्वर की तरह और

घोषणा करते हुए

कि 'अधर्म बढ़ गया है इस कदर

अब उसने ले लिया है अवतार

और धरती

जल्दी ही पापमुक्त होगी!'

कभी वह रिश्वत लेता हुआ नजर आया,

कभी घूस देता हुआ!

आखिर एक बार

जब कई दिनों तक

उसका हुनर नहीं हुआ सार्वजनिक

तो मैंने उसकी खबर ली

ज्ञात हुआ

उसका अंतिम रूप एक डाकू था

जो इतना सच्चा था

देश और समाज में श्वेत-शफ्फाक

कपड़ों में विचरण करते हुए

अनगिनत डाकुओं के बीच भी

पुलिस ने अपनी क्राइम फाइल को करने दुरुस्त

पहचानने में नहीं उसे भूल की

और खिलौना पिस्तौल वाले तथाकथित डाकुओं के बीच

मार गिराया उसे

दिन के उजाले में

एक मुठभेड़ में

और इस दुर्दांत 'दस्यु' पर घोषित

लाखों रुपये का इनाम पाने को

अलग-अलग प्रांतों की पुलिस के विरोधी गुटों में

मची मारकाट!

इस तरह अपनी मुक्ति के साथ ही

तरह-तरह के भेस धर

गुजर-बसर करते हुए

अप्रतिम उस कलाकार को

आखिर मिल ही गया

अपनी विलक्षण कला के लिए

जीवन का

सबसे बड़ा

पुरस्कार!

इस लेख के लेखक की एक कविता, बहुरुपिया में आज के दौर की राजनीति का जिक्र है.

बहुरूपिया - महेंद्र पाण्डेय

बहुत शोर था उनके आने का

किसी ने कहा शेर आया

किसी ने कहा अवतार आया

किसी ने कहा भगवान आया

बहुत शोर था उनके आने का

वे आये,

अजान-हवन होने लगा

अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक होने लगा

कालाधन-निर्धन होने लगा

देशद्रोही-देशभक्त होने लगा

पर, शोर अभी थमा नहीं

बहुत शोर था उनके आने का

शोर आज भी है

बहरूपिया जब आता है

शोर तब भी मचता है

चायवाला सेवक बन गया

सेवक फकीर बन गया

फकीर चौकीदार बन गया

चौकीदार बेटा बन गया

पता नहीं कल

कौन सा रूप लेकर आयेगा

बहुत शोर था उनके आने का

मेरा क्या, मैं कहीं भी चला जाऊंगा

थैला उठाउंगा और चला जाउंगा

पर, मैं कहां जाऊंगा?

बहुत शोर था उनके आने का

बहुत शोर था उनके आने का

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