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संस्कृति

मोदी की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जिंदगी के आखिरी दिन तक लड़ते रहे गिरीश कर्नाड

Janjwar Desk
10 Jun 2020 9:58 AM IST
मोदी की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ जिंदगी के आखिरी दिन तक लड़ते रहे गिरीश कर्नाड
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व्यवस्था के खिलाफ उनका संघर्ष मित्र और अमित्र में भेद नहीं करता था। वे तो सिर्फ बेहतर समाज बनाने और विरासत को बचाये रखने वाले अपराजित योद्धा थे....

गिरीश कर्नाड की पहली पुण्यतिथि 10 जून पर उन्हें याद कर रहे हैं इतिहासकार डॉ. मोहम्मद आरिफ

जनज्वार। बात 1990 के दशक की है जब मैं प्रोफेसर इरफान हबीब के एक आमंत्रण पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास,उच्च अध्धयन केंद्र में एक माह की विज़िटर्शिप के लिए गया हुआ था। इत्तफाक से उन्हीं दिनों गिरीश कर्नाड जी भी अपने एक नाटक को जीवंत और तथ्यपरक बनाने के लिए प्रो हबीब के पास आये हुए थे।

इरफान साहब ने मेरा परिचय बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के नौजवान इतिहासविद और कम्युनिज्म तथा कांग्रेसियत के अद्भुत समावेशी व्यक्तित्व के रूप में कराया तो कर्नाड ने मुस्कुराते हुए कहा कि ये diversity /विविधता पर तो कब की जंग लगनी शुरू हो चुकी है, तुम किस दुनिया से आये हो भाई और फिर एक लंबी सांस खींचते हुए कहा कि हां समझ में आ गया ग़ालिब भी तो आपके शहर में जाकर गंगा स्नान करके इसी समावेशी तहजीब/ diversity का शिकार हो चला था और दारा शिकोह वली अहद से इंसान बन बैठा था।

इतिहास की उनकी समझ बहुत व्यापक थी। अजीब-अजीब सवाल उनके मन में उभरते थे एक एक्टिविस्ट की तरह। वाकई उनका पूरा जीवन ही एक्टिविज्म करते बीता। व्यवस्था के खिलाफ उनका संघर्ष मित्र और अमित्र में भेद नहीं करता था। वे तो सिर्फ बेहतर समाज बनाने और विरासत को बचाये रखने वाले अपराजित योद्धा थे। मोदी की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ गिरीश कर्नाड अपनी जिंदगी के आखिरी दिन तक लड़ते रहे। माध्यम कभी कविता, संगीत, कभी नाटक कभी अभिनय कभी एक्टिंग तो कभी सामाजिक सरोकारों के विभिन्न मंच रहे, जहां वे निर्भीक खड़े होकर हम जैसे अनेक लोगों का मार्गदर्शन करते रहे।

उनका इतिहास को देखने का नज़रिया वैज्ञानिक और खोजी था। चलते चलते उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा कि एक मुलाकात आपसे शाम की तन्हाई में होनी चाहिए आपको भी कुछ जान परख लेते हैं। मैंने कहा कि सर इरफान साहब से तथ्य आधारित बातचीत के एक लंबे दौर के बाद बचता ही क्या है बताने के लिए, और मैं भी तो इरफान साहब का एक अदना सा विद्यार्थी हूँ।

गिरीश जी ने मुस्कुराते हुए कहा भाई इतिहासकार तथ्यों की मौलिकता को बचाये रखते हुए अपनी परिस्थितियों और वातावरण के अनुकूल व्याख्या करता है। आपके शहर और आपके उस्तादों के नजरिये ने आपको इतिहास देखने परखने की जो दृष्टि दी है वो दृष्टिकोण भी हमारे लिए बहुत मायने रखता है। सहमति के बाद देर रात्रि तक उस दिन एकांत चर्चा चलती रही।

कर्नाड जी मुहम्मद तुग़लक़, कबीर,अकबर, औरंगजेब और बहादुर शाह जफर के बारे में तमाम जानकारियों पर बहस करते रहे। उन्हें गांधी, नेहरू, इंदिरा गांधी, अन्नादुरई और देवराज अर्स में भी दिलचस्पी थी। उनका इतिहास ज्ञान अदभुत था और जिज्ञासा तो शांत ही नहीं होती थी। कई बार अनुत्तरित भी कर देते थे। शंकराचार्य, बनारस, कबीर और रैदास के नजरिये की अद्भुद व्याख्या गिरीश ने की और ऐसा लगा की बनारस में रहकर मैं बनारस से कितना दूर हूँ और दूर रहकर भी गिरीश कितना नजदीक।

ग‍िरीश कर्नाड की लेखनी में ज‍ितना दम था, उन्होंने उतने ही बेबाक अंदाज में अपनी आवाज को बुलंदी दी। तमाम राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भूमिका के साथ-साथ धर्म की राजनीति और भीड़ की हिंसा के प्रतिरोध में भी कर्नाड ने हिस्सा लिया। कर्नाड ने सीन‍ियर जर्नल‍िस्ट गौरी लंकेश की मर्डर पर बेबाक अंदाज में आवाज उठाई। गौरी लंकेश के मर्डर के एक साल बाद हुई श्रद्धांजलि सभा में वे गले में प्ले कार्ड पहनकर पहुंचे थे, जबकि उनके नाक में ऑक्सीजन की पाइप लगी थी।

गिरीश कर्नाड सामाजिक वैचारिकता के प्रमुख स्वर थे। उन्होंने अपनी कृतियों के सहारे उसके अंतर्विरोधों और द्वंद्वों को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है। उनकी अभिव्यक्ति हमेशा प्रतिष्ठानों से टकराती रही है। चाहे सत्ता प्रतिष्ठान हो या धर्म प्रतिष्ठान। कोई भी व्यक्ति जो गहराई से आम आदमी से जुड़ा हुआ हो उसका स्वर प्रतिरोध का ही स्वर रह जाता है, क्योंकि सच्चाई को उकेरने पर इन प्रतिष्ठानों को खतरा महसूस होता है।

गिरीश कनार्ड अब हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु उन्होंने जिन्दगी को जिस अर्थवान तरीके से बिताया वह हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है।

अलीगढ़ से वापसी के बाद हम सब अपनी अपनी दुनिया में लौट आये और खो गए, पर मजेदार बात ये रही कि गिरीश जी को ये बात याद रही। जब 1994-95 के दौरान दिल्ली में तुग़लक़ नाटक का मंचन होने वाला था तो एक दिन उनका फोन आया और मैं चौंक पड़ा, क्योंकि उन दिनों मेरे पास फोन नही था और मैं अपने पड़ोसी सज्जन के लैंडलाइन फोन पर संदेश मंगाया करता था। उन्होंने न केवल हमारा सम्पर्क सूत्र पता किया, बल्कि सम्मानजनक ढंग से हमें आमंत्रित करना न भूले। ये थी उनकी रिश्तों की समझ।

आज हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जब इतिहास के तथ्य रोज तोड़े मरोड़े जा रहे हैं और अप्रशिक्षित राजनीतिक हमें इतिहास पढ़ा रहे हैं गिरीश कर्नाड का होना नितांत आवश्यक था। तुम चले गए और हमे ये जिम्मेदारी देकर की हम इतिहास की मूल आत्मा को मरने न दें। बड़ा गुरुतर भार देकर और अपनी पारी बेहतरीन और खूबसूरत खेलकर गए हो। उनके जाने से खालीपन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि समकालीन कला जगत में उनके आसपास तो कोई है भी नहीं। इस खाली जगह को भरना आसान नहीं दिखता। गिरीश इतिहास सदैव तुम्हे याद रखेगा।

(डॉ. मोहम्मद आरिफ जानेमाने इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता है.)

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