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संस्कृति

‘ब्लैक सॉइल’ उपन्यास में मिलती है 1960-1970 के दौरान जमींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ देशभर में हुए आंदोलनों की झलक

Janjwar Desk
15 July 2023 11:44 AM IST
‘ब्लैक सॉइल’ उपन्यास में मिलती है 1960-1970 के दौरान जमींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ देशभर में हुए आंदोलनों की झलक
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नन्हे परिंदे जो बरगद में पनाह लिए हुए थे, डर के मारे उड़ने लगे। धूल भरी हवा ने ज़मीन के मंजर को पहाड़ी कोहरे की मानिंद अपनी चादर में लपेट लिया ...वीराया मेरी बीवी, यानि तुम्हारी माईनी, तुम्हारे पास आएगी उसे कम से कम बर्तन भर बाजरा दे देना, बच्चे कल से भूखे हैं....

जगदीश चंद की रिपोर्ट

तमिल भाषा के मशहूर लेखक, साहित्य अकादेमी से सम्मानित और प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पोन्नीलन के तमिल में लिखे उपन्यास ‘करिसल’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘ब्लैक सॉइल’ का लोकार्पण और पुस्तक-चर्चा कार्यक्रम नयी दिल्ली स्थित साहित्य अकादेमी के सभागृह में प्रलेस दिल्ली राज्य इकाई के तत्वावधान में सम्पन्न हुआ। अंग्रेजी में अनूदित इस किताब का प्रकाशन पेंगुइन इंडिया ने किया है।

'बुरी तरह बहते पसीने को वो अपनी धोती के सिरे से सुखा रहा था। जब ज़िंदगी के कोई आसार उसे कहीं नज़र नहीं आये तो एक खौफ़नाक अहसास ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया। बंजर और खनकड़ मिट्टी का ऐसा खुश्क इलाका उसने पहले कभी नहीं देखा था। चिंघाड़ती हुई धूल भरी आँधियाँ इस इलाके पर हमलावर रही थीं। बरगद का एक विशाल वृक्ष छतरी की तरह थोड़ा-सा ठंडा साया फ़राहम करता नजर आया। इसकी शाखों पर कौए और मैनाएँ फुदक रहे थे। हवा से पत्ते हिल रहे थे और हवा के झोंके उसे थपकियाँ देकर आराम देने की दावत दे रहे थे। उसने सामने रास्ते पर निगाह डाली। दूर तक कोई दूसरा दरख्त नज़र नहीं आया। बाड़ की झाड़ियों पर चंद कपड़े सूख रहे थे जिनसे इन्सानी बस्ती का पता चलता था। किसी बूढ़े किसान के नंगे सीने जैसे शुष्क मिट्टी के इस नज़ारे से उसका दिल उदासी से भर गया। ...अचानक गर्द-ओ-गुबार का एक बड़ा सा बगूला उठा और चिमनी के मुँह की शक्ल में आगे बढ़ने लगा – मिट्टी को चीरता हुआ, धूल भारी हवा को हर तरफ दायरों में गर्दिश देता हुआ... तेज हवा के एक औरझोंके ने, जो पहले से ज्यादा ग़ज़बनाक होकर उठा था, विशालकाय बरगद को उखाड़ फेंकने की कोशिश की तो उसने कनप्पन का ध्यान अपनी तरह खींच लिया। नन्हे परिंदे जो बरगद में पनाह लिए हुए थे, डर के मारे उड़ने लगे। धूल भरी हवा ने ज़मीन के मंजर को पहाड़ी कोहरे की मानिंद अपनी चादर में लपेट लिया ...वीराया मेरी बीवी, यानि तुम्हारी माईनी, तुम्हारे पास आएगी उसे कम से कम बर्तन भर बाजरा दे देना, बच्चे कल से भूखे हैं।'

अनूदित उपन्यास के पहले अध्याय के उपरोक्त शुरुआती अंश का पाठ अनुवादक जे. प्रियदर्शिनी ने अंग्रेजी में और उसका हिन्दी पाठ अर्जूमंद आरा, प्रगतिशील लेखक संघ की दिल्ली राज्य अध्यक्ष ने किया। उपरोक्त अंश तमिलनाडु के वर्षा आधारित क्षेत्र, तमीरबरनी नदी के नजदीक, करिसल गाँव में, एक स्कूली अध्यापक, कन्नपन की पोस्टिंग के इर्द-गिर्द घूमते उपन्यास के माध्यम से उस काली मिट्टी या काबर मिट्टी वाले सूखे, अभावग्रस्त, साधनहीन क्षेत्र में इन्सानों की इन्सानों के साथ और इंसानों की प्रकृति के साथ गुत्थम-गुत्था से आमना-सामना कराता है।

इस पाठ से पहले उपन्यास लोकार्पण और इस पर चर्चा की शुरुआत के लिए प्रलेस दिल्ली राज्य सचिव अर्जुमंद आरा ने कार्यक्रम संचालन की जिम्मेदारी प्रलेस के राष्ट्रीय सचिव विनीत तिवारी को सौंपी। कार्यक्रम की अध्यक्षता हिन्दी के वरिष्ठ लेखक, पत्रकार प्रलेस दिल्ली राज्य समिति के अध्यक्ष मण्डल सदस्य रामशरण जोशी ने की।

कार्यक्रम संचालन के दौरान विनीत तिवारी ने गैर-हिन्दी भाषी लेखक की कृति पर सभागृह में उपस्थित हिन्दी, उर्दू जगत के वरिष्ठ लेखकों की मौजूदगी पर अपनी खुशी जाहिर की। विनीत ने कहा कि 1960-1970 के दौरान जमींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ और भूमि सुधार व पुनर्वितरण की माँग को लेकर देश भर में उठे आंदोलनों की एक अलग झलक इस किताब में मिलती है। खासतौर से दिल्ली के बॉर्डर पर किसानों के अभूतपूर्व साल भर लंबे चले आंदोलन की पृष्ठभूमि में यह किताब और भी प्रासंगिक हो जाती है जब ये पुराने अनसुलझे सवालों को याद दिलाती है।

पोन्नीलन की साहित्यिक यात्रा का परिचय देते हुए विनीत ने बताया कि पेशे से शिक्षा विभाग में अधिकारी रहे पोन्नीलन अपनी युवावस्था में ही तमिलनाडु में वामपंथी आंदोलन के अग्रणी जीवानंदा के संपर्क में आ गए थे। अनेक उपन्यासों, कहानी संग्रहों, संस्मरणों, रेखाचित्रों, इतिहास और दर्शन सम्बन्धी आलोचनात्मक निबंधों के लिए पोन्नीलन मशहूर हैं। उनके तमिल उपन्यास ‘पुदिया दरिसानंगल’ को 1994 में साहित्य अकादेमी के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

इस उपन्यास को 2016 में एस नागराजन ने ‘न्यू दर्शन्स’ के शीर्षक से अंग्रेजी में अनूदित किया जिसे साहित्य अकादेमी ने प्रकाशित किया है। ‘ब्लैक सॉइल’, उपन्यास मूल तमिल भाषा में करिसल (काली मिट्टी) के नाम से पहली बार 1976 में प्रकाशित हुआ था जो आज भी तमिल पाठकों के बीच चाव से पढ़ा जाता है। ‘करिसल’ का हिन्दी में एक अनुवाद मीनाक्षी पुरी ने किया था लेकिन वह अभी बाजार में उपलब्ध नहीं है। इस उपन्यास को तमिल भाषा में सामाजिक यथार्थवाद का पहला उपन्यास माना जाता है।

अनुवादक जे. प्रियदर्शिनी का परिचय देते हुए विनीत ने बताया कि वे पोन्नीलन की पोती हैं, पेशे से डॉक्टर हैं। प्रियदर्शिनी का उपन्यास में खिंचाव इस तरह का रहा कि उन्होंने 12 वर्ष की उम्र में जब इसे पढ़ना शुरू किया तो वे इसे बीच में न छोड़ सकी और तीन दिन में उन्होंने इसे पढ़ डाला। बचपन से इस किताब के प्रति लगाव ने उन्हें इस किताब के अंग्रेजी अनुवाद के लिए प्रेरित किया। उन्होंने इस उपन्यास का अनुवाद फोन पर घर से अस्पताल के लिए काम पर जाते हुए या अस्पताल में थोड़ा भी खाली समय मिलने के दौरान यहाँ तक कि अपने प्रसवकाल में शिशु जन्म की प्रतीक्षा में पूरा किया।

उपन्यास के लोकार्पण से पूर्व प्रलेस के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष विभूति नारायण राय, अर्जुमंद आरा और रामशरण जोशी ने पोन्नीलन और प्रियदर्शिनी को स्वागत सम्मान के रूप में शाल ओढ़ाया, इसके बाद हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी ने पोन्नीलन के अंग्रेजी में अनूदित उपन्यास ब्लैक सॉइल का लोकार्पण किया। दिल्ली विश्वविद्यालय में तमिल साहित्य की प्रोफेसर डी. उमा देवी, अर्जुमंद आरा, विभूति नारायण राय, जे. प्रियदर्शिनी पुस्तक-चर्चा में शामिल वक्ता थे।

उपन्यास पर अपने विचार रखते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि अनूदित किताब का इतना सरल अनुवाद किया गया है कि यदि यह किताब मुझे अब से बीस बरस पहले मिली होती तो इस किताब को मूल में पढ़ने के लिए मैं तमिल सीखता, लेकिन अभी मैं तिरानवे साल की उम्र में हूँ अब इस अनूदित कृति से ही संतुष्ट हूँ। सरल अनुवाद करना सीधी लाइन खींचने जैसा टेढ़ा काम है। अभी के राजनीतिक माहौल में यह किताब ‘भारत जोड़ो’ के साहित्यिक समारोह के जैसी है।

उन्होंने प्रलेस की दिल्ली इकाई को इस काम के लिए बधाई दी और गैर-हिन्दी भाषी राज्यों से अन्य रचनाकारों और उनकी कृतियों पर आगे भी इस तरह के कार्यक्रम करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि ब्लैक सॉइल उपन्यास के संदर्भ में प्रेमचंद के साहित्य का दिक-काल याद करें तो हम पाएँगे कि उनकी रचनाओं का स्थान कानपुर से पूर्व और पूर्व से पश्चिम का रहा है और रचनाकाल औपनिवेशिक भारत का 30 के आसपास का दशक रहा है।

प्रेमचंद की रचनाओं में हमें समस्याओं से घिरे आदमियों-औरतों की जिंदगियों की कहानियाँ मिलती हैं। पोन्नीलन की किताब ब्लैक सॉइल में तमिल नाडु के दक्षिणी हिस्से के तूतुकुड़ी जिले के नगलपुरम का काली मिट्टी वाला बारिश पर आश्रित क्षेत्र है, जहाँ बरसात में नदी, पोखर में भरा पानी गर्मी में सूख जाता है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने किताब की विशेषताओ पर ध्यान दिलाते हुए कहा कि किताब में जमीन, प्रकृति और मौसम की विविधता के कई वर्णन हैं। उपन्यास में इंसानों के इतर कई अन्य छोटे पात्र हैं जैसे कुत्ते, गिलहरी, बकरी आदि।

उपन्यास की घटनाओं, पशु, पक्षियों और मनुष्यों के बीच अंतर सामंजस्य है। उपन्यास में आंदोलन का वर्णन ऐसे है जैसे जमीन से अनाज पैदा होता है, वैसे ही शोषण से जनआंदोलन पैदा हो रहा है, आंदोलन के नेता पैदा हो रहे हैं, लेखक पैदा हो रहा। उपन्यासकार मामूली इंसानी जिंदगियों को, उनके अभावग्रस्त जीवन को, इस जीवन के खिलाफ संघर्ष को करुणा के माध्यम से उसके उदात्त स्वरूप तक ले जाता है। उन्होंने कहा कि अध्यापक के चरित्र में उपन्यास के पात्र कन्नपन में उपन्यासकार पोन्नीलन के व्यक्तित्व का आभास मिलता है।

उपन्यास एक महिला किरदार पुन्नी के प्रति कन्नपन के आकर्षण को साधन उन्मुक्त प्रेम के रूप में बयान करता है। त्रिपाठी जी उस प्रसंग का जिक्र करते हैं जब कन्नपन पुन्नी से पूछता है कि क्या तुम्हारा संबंध पहले भी किसी के साथ रहा है, यहाँ पुन्नी नहीं कह सकती थी, लेकिन वहाँ एक संक्षित बयान मिलता है कि पहले था अब नहीं है। उन्होंने कहा कि उपन्यास में वर्णित संघर्षों के बीच पोन्नीलन संवेदनशीलता के साथ अगाध मानवीय संबंध के रूप में पुन्नी और कन्नपन के बीच प्रेम के उदात्त स्वरूप को चित्रित करते हैं।

इसी संदर्भ में विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि किसी व्यक्ति का करुणा के रूप में स्वत्व,‘मैं’ तभी बनता है जब वह उदात्त स्वरूप लेता है। अपनी बात का समापन करते हुए उन्होंने कहा कि “इस किताब के हिन्दी में अनुवाद की आशा करता हूँ। इस कार्यक्रम से मैं गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूँ। प्रलेस के इस काम से मुझे खुशी हो रही है।"

उपन्यास चर्चा में शामिल अगली वक्ता डी. उमा देवी ने कहा कि यह उपन्यास मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित है, उनके व्यक्तित्व विकास में ‘अरेइची’ पत्रिका का सहयोग रहा है। ब्लैक सॉइल जिसे तमिल में ‘करिसल’ कहा जाता है, की स्थानिक भौगोलिक विशिष्टता की ओर ध्यान दिलाते हुए उन्होंने बताया कि ‘करिल' काली मिट्टी वाला सूखा, बारिश पर निर्भर क्षेत्र है। उस सूखी जगह पर, मिट्टी और मौसम के सूखेपन का प्रभाव वहाँ के लोगों के व्यवहार के रूखेपन में है। उन्होंने इस इलाके के लोगों को चोरों को रूप में देखने से संबंधित किंवदंती का हवाला दिया जिसमें कहा जाता है कि “वहाँ के लोग पेट के बच्चे को भी चुरा लेते हैं।"

उमा देवी ने तमिल के कुछ आलोचकों द्वारा पोन्नीलन पर लगाए गए आरोप, कि यह उपन्यास ‘लाल चश्मे’ से लिखा गया है, का खंडन करते हुए कहा कि ‘करिसल’ उपन्यास में पोन्नीलन ने उस क्षेत्र में घट रही घटनाओं का यथार्थ चित्रण किया है। यह भूख के खिलाफ लड़ाई का चित्रण है। उपन्यास में वर्णित संघर्ष की घटनाओं के अनुसार गुलामी की एक-एक कतार गिर रही है। उपन्यास में महिला किरदार नकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद मजबूत सकारात्मक किरदार के रूप में चित्रित हैं।

उपन्यास में मौजूद वर्ग और जाति संघर्ष के संदर्भ में उन्होंने कहा कि उपन्यास में वर्ग और जाति में बँटे लोगों में से कुछ की आर्थिक स्थिति के नीचे गिरते और किसी अन्य की आर्थिक स्थिति के ऊपर उठने का वर्णन है। उपन्यास में वर्ग और जाति का द्वन्द्व साथ-साथ चलता है। पोन्नीलन ने उन द्वंद्वों का वर्णन किया है उन पर अपना विचार व्यक्त नहीं किया है। उन्होंने साहित्यिक जगत में वर्ग और जाति दोनों को अलग-अलग देखने के स्थान पर उनके अंतरसंबंधों के सवालों के साथ इस उपन्यास को पढ़ने और इस पर चिंतन और बहस करने का आग्रह किया।

अनुवादक प्रियदर्शिनी ने किताब पर चर्चा के दौरान बताया कि उन्होंने यह उपन्यास पहली बार जब पढ़ा था तब वे सातवीं कक्षा में थीं। तब से उनके मन में इस किताब का अंग्रेजी में अनुवाद कर तमिल भाषा से इतर व्यापक पाठकों के बीच ले जाने की इच्छा थी। उन्होंने अपने नाना से अपनी पढ़ाई के दौरान इस उपन्यास का अनुवाद करने की पेशकश की, लेकिन वे हर बार यह कह कर मना कर देते थे कि पहले अपनी मेडिकल डिग्री पूरी कर लो, फिर करना। जब मैंने एमबीबीएस पास कर लिया, तब उन्होंने कहा पहले अपनी एमडी की पढ़ाई पूरा कर लो फिर करना। आखिरकार यह काम त्रिवेंद्रम स्थित अस्पताल के लिए कन्याकुमारी से त्रिवेंद्रम आते-जाते हुए यात्रा के दौरान अपने एंड्रॉयड फोन पर किया। वे हमेशा उपन्यास को अपने ऐप्रन की जेब में रखती थी, जब भी थोड़ा वक्त मिलता वो अनुवाद के काम में लग जाती थी। इस काम में इनकी कई साथियों ने अनुवाद को पढ़ कर अपने सुझाव देते हुए और इस काम में उनका हौसला बढ़ाकर मदद की। प्रियदर्शनी ने उपन्यास में वर्णित एक वेश्या किरदार के बारे में बताया कि वह साइकिल पर आती थी और उस पर बैठाकर अपने ग्राहकों को अपने साथ सायकल पर बिठाकर ले जाती थी। किसी ने उस महिला को बताया कि इस करिसल उपन्यास में उसका जिक्र है। उसने उपन्यास खरीदा और चूंकि वह अनपढ़ थी तो उसने किसी और से पढ़वाया। उस वर्णन को सुनने के बाद वह पोन्नीलन से मिलने गई और उन्हें आशीर्वाद दिया। प्रियदर्शिनी ने बताया कि इसके अलावा उपन्यास की अन्य शक्तिशाली महिला पात्रों ने उन्हें काफी प्रभावित किया।

विभूति नारायण राय ने कहा कि 60-70 का दशक भूमि की राजनीति का संघर्ष, जमीन के संघर्ष के साथ आम जनता का संघर्ष है। उन्होंने इस उपन्यास के हिन्दी में अनुवाद की जरूरत बताई। पोन्नीलन ने अपनी लेखन प्रक्रिया के बारे में बताया कि जब वह शिक्षा अधिकारी के रूप में नगलपुरम में कार्यरत थे उस दौरान कई लोग अपनी समस्याओं को लेकर घर पर उनसे मिलने आते थे और देर रात तक उनसे बातचीत होती थी। उनके जाने के बाद आधी रात में वे उनके साथ हुई बातों को डायरी में लिख लिया करते थे, यही नोट बाद में उपन्यास का स्त्रोत बने।

उन्होंने बताया कि उन्होंने यह उपन्यास 26 साल की उम्र में जब लिखा तो उस समय भारत आजाद हुआ था उसके बाद तमिलनाडु में और देश में जमींदारों और सामंतों के खिलाफ संघर्ष शुरू हुए। उन संघर्षों ने उन्हें उद्वेलित किया और इस तरह समाज में चलती उथल-पुथल पर उनकी लेखन प्रक्रिया चलती रही। उन्होंने कहा कि मुझे मेरी इस किताब पर चर्चा में शामिल होते हुए, किताब के अंग्रेजी में अनुवाद किए जाने से काफी गर्व महसूस हो रहा है। मुझे खुशी हो रही है कि मेरे परिवार में मेरी माँ जो खुद एक लेखिका थीं और आत्मकथात्मक उपन्यास तमिल में अनेक सस्करणों में निकला है। मेरी बेटी ने भी दो किताबों का अनुवाद किया है और अब अगली पीढ़ी में भी अनुवाद के रूप में मेरी पोती ने इस साहित्यिक को यात्रा जारी रखा है।

उपन्यास चर्चा कार्यक्रम के अध्यक्ष रामशरण जोशी ने सभा के समापन पर किताब पर अपने विचार रखते हुए कहा कि 60- 70 के दशक में, जब भारत में जमीन को लेकर किसानों, खेत-मजदूरों और जमींदारों के बीच संघर्ष चल रहे थे वह समय भारत के समाज का संक्रांति का समय था। भारत आजाद तो हो गया था लेकिन सामंती संबंधों से मुक्त नहीं हुआ था। यह वह समय था जब भारत के किसान जमींदारों से, जमींदारी व्यवस्था के विरुद्ध लड़ रहे थे। उस समय के समाज में आदमी और औरत के रिश्तों में, समाज के जातिगत संबंधों और व्यवहारों में सामंती संबंधों की जकड़न से मुक्त होने की लड़ाई चल रही थी।

हालाँकि जाति आधारित गैर-बराबरी के संबंध अभी भी खत्म नहीं हुए हैं। ये हमारे सामाजिक और निजी परिवेश में रोजमर्रा के व्यवहारों में जैसे कि हमारे घरेलू काम में या केयर वर्क में लगे लोगों के साथ हमारे संबंधों में प्रकट होते हैं। हमें उपन्यास की कथा पर चिंतन के साथ-साथ अपने इन गैर-बराबरी वाले व्यवहारों से भी संघर्ष करना होगा। उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए अन्यत्र संदर्भ से तीन भाषा - मातृ भाषा, प्रांतीय भाषा, अंग्रेजी भाषा - सूत्र पर फिर से काम करने की याद दिलाते हुए अपनी बात समाप्त की।

कार्यक्रम में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव डी राजा, हिन्दी के मशहूर लेखक असगर वजाहत, चित्रकार सावि सावरकर, नाटककार लोकेश जैन, प्रलेस, जलेस और इप्टा से जुड़े साथी, तमिल भाषा और साहित्य अध्ययन से जुड़े छात्र एवं अनेक अन्य हिन्दी, अंग्रेजी के लेखक और रंगकर्मी मौजूद थे। कार्यक्रम की समाप्ति पर प्रलेस, दिल्ली के संयुक्त सचिव ज्ञानचंद बागरी ने कार्यक्रम में शामिल सभी व्यक्तियों का धन्यवाद किया।

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