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हाशिये का समाज

दर्दनाक : परिवार को जब पता चला मैं 'किन्नर' हूं तो वह छोड़ गए मुझे हिजड़ों की टोली में

Janjwar Desk
14 Aug 2021 3:34 PM IST
दर्दनाक : परिवार को जब पता चला मैं किन्नर हूं तो वह छोड़ गए मुझे हिजड़ों की टोली में
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('एक किन्नर उस मां से कई गुना अच्छा है जो अपने तीसरा लिंग होने पर बच्चे को हमारे पास छोड़ जाती है')

पूजा बताती हैं कि मेरे लिए यहां का माहौल अलग था, पर मुझे यहां अच्छा लगा क्योंकि मुझे यहां ताने नहीं सुनने पढ़ते, कोई हिजड़ा कहकर बेईज्जत नहीं करता, सबसे जरुरी चीज खाना मिल जाता है। मेरे घर में तो मुझे पेटभर खाना तक नहीं मिलता था......

अल्मोड़ा से विमला की रिपोर्ट

जनज्वार। भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहा जाता है वहीं दूसरी ओर आज भी दलित, महिला, आदिवासी को हाशिये में रखा गया है। इसके आलावा तीसरा लिंग जिसे हमारा समाज किन्नर या हिजड़ा कहकर बुलाता है उस समुदाय को भी हाशिये में रखा गया है। इस समाज को आज भी कई अधिकारों से वंचित रखा गया है। किन्नर समुदाय को लेकर समाज में काफी भेदभाव देखा जाता है।

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के किन्नर समाज की गुरु मां फराह बताती हैं, "हम किन्नरों को लोग कभी इंसान की नजर से देखते ही नहीं, वे हमें जानवर समझतें है या पता नहीं क्या समझते हैं। लोग हमें हमारे नाम से कभी नहीं बुलाते, हिजड़ा या किन्नर कहते हैं। यह सुनने में बुरा तो लगता है लेकिन ये परम्परा तो सदियों से चली आ रही है। हमें तो बस सुनने के लिए बनाया गया है, कह तो कुछ नहीं सकते। अगर किसी परिवार में बेटी-बेटा न पैदा होकर किन्नर पैदा होता है तो लोग इस बात का मातम मनाते हैं।"

"ऐसे बच्चों को लोग खुद ही हमारे पास छोड़ जाते हैं। फिर कभी बच्चे के बारे में नहीं पूछते, जानना भी नहीं चाहते बच्चा जिन्दा भी है या नहीं। समाज हमें कहता है कि हम मां नहीं बन सकते। एक किन्नर उस मां से कई गुना अच्छी है जो अपने बच्चे को हमारे पास इसलिए छोड़ जाती हैं कि वो एक लड़का या लड़की न होकर एक किन्नर है।"

फराह आगे कहतीं हैं, "कभी किसी बच्चे का पढ़ने का मन हो तो पहले तो लिंग स्पष्ट न होने के कारण स्कूलों में एडमिशन कराने में बहुत दिक्कत आती है। हजार दिक्कतों के बाद अगर दाखिला हो भी जाए टीचर खुद बच्चे के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते। अगर स्कूल में अन्य सहपाठियों को पता चल गया फिर तो वो भी 'हिजड़ा' कहकर चिढ़ाने लगते हैं।"

फराह आगे कहती हैं, "हम लोग लगभग 30 साल से यहां रहते हैं। हमारे लिए किसी सरकार, नेता ने काम नहीं किया और न ही किसी एनजीओ ने हमारे हक में बोला। बस कभी पत्रकार आते हैं तो हमारी बातें सुनकर चले जाते हैं और फिर कभी नहीं आते। हम चाहते हैं कि कम से कम हमें हमारे पास जो बच्चे आते हैं उनको पढ़ने का अधिकार मिले। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिन्हें नाचना-गाना अच्छा नहीं लगता, वो पढ़ना चाहते हैं।"

बता दें कि 19 जुलाई 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने ट्रासजेंडर (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) बिल 2016 को मंजूरी दी थी जिससे किन्नरों को भी शिक्षा सामाजिक जीवन, आर्थिक क्षेत्र में आजादी से जीवन जीने का अधिकार मिल सके।

पूजा जो अभी लगभग 22 साल की हैं, वह कहती हैं, "मेरे पास बस बचपन की कुछ धुधली यादें हैं जब मैं अपने घर में अपने माता-पिता के साथ रहती थीं। मेरा घर हल्द्वानी के किसी गांव में है। मैं जब सात या आठ साल की थी तो मेरे माता-पिता ने मुझे किन्नर समुदाय के पास छोड़ दिया। उसके बाद वो मुझसे मिलने कभी नहीं आये। न ही कभी जानना चाहा। जब मेरे परिवार को पता चला मैं अपने और भाई-बहनों की तरह सामान्य नहीं हूं, मैं किन्नर हूं तो उन्होंने मुझे डांटना, मारपीट करना, मेरे साथ अलग व्यवहार करना शुरू कर दिया।"

"घर मे भाई बहन, मां-बाप सब मुझे हिजड़ा कहकर गाली देने लगे। मुझे घर से बाहर नहीं जाने देते थे। हम चार भाई बहन थे और मैं घर मे सबसे छोटी थी लेकिन सब मुझे परेशान करते थे। मुझे बचपन से बेटा समझ कर पाला। मेरा नाम भी लड़कों वाला था। जब मेरे शरीर में परिवर्तन होने लगा तो पता चला में किन्नर हूं। मेरे माता-पिता ने मुझे यहां छोड़ दिया तब से में यहीं हूं।"

पूजा आगे बताती हैं, "मेरे लिए यहां का माहौल अलग था, पर मुझे यहां अच्छा लगा क्योंकि मुझे यहां ताने नहीं सुनने पढ़ते, कोई हिजड़ा कहकर बेईज्जत नहीं करता। सबसे जरुरी चीज खाना मिल जाता है। मेरे घर में तो मुझे पेटभर खाना तक नहीं मिलता था।"

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