चलो मुजफ्फरनगर : मोदी-योगी ने नहीं बनाया मुजफ्फरनगर को जलियांवाला, तो शरीक होंगे 5 लाख से ज्यादा किसान
3 कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुए किसान आंदोलन
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। जब धार्मिक कट्टरवादी विचारधारा पूंजीवाद और छद्म राष्ट्रीयता के रंग में रंग जाती है और हुजुमत करने लगती है तब जनता कराह उठाती है और सत्ता हिंसक हो जाती है। यह आलम केवल तथाकथित न्यू इंडिया में नहीं, बल्कि दुनिया के अधिकतर देश और लगभग 70 प्रतिशत वैश्विक आबादी ऐसे ही हुकूमत से हांकी जा रही है। जनता जब त्रस्त होती है तब उसके पास सदियों से एक ही रास्ता बचता है, वह है जन-आन्दोलन का। इस समय भारत समेत दुनिया के अधिकतर हिस्सों में जन-आन्दोलन किये जा रहे हैं।
हमारे देश में तो किसान आन्दोलनों के सन्दर्भ में एक अलग रिकॉर्ड बना रहे है। लगभग 10 महीनों से सरकार और हरेक मौसम की मार झेलते देश की राजधानी की सीमाओं पर सड़क पर डटे किसान धैर्य और दृढ-निश्चय की जिन्दा मिसाल बन गए हैं। किसान आन्दोलन ने आन्दोलनों को एक नया पड़ाव दिया है, महापंचायत का। आज, 5 सितम्बर 2021 को उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर में किसान आन्दोलन के अगले पड़ाव के तौर पर महापंचायत का आह्वान किया गया है। यदि मोदी और योगी सरकार ने मुजफ्फरनगर को जलियांवाला बाग़ नहीं बनाया तो इस महापंचायत में 5 लाख से अधिक किसानों के शरीक होने की संभावना है।
जन-आन्दोलनों पर कुछ कवितायें प्रस्तुत है। पहली कविता हिंदी फिल्मों के विख्यात गीतकार और जनकवि शैलेन्द्र की है, जिसका शीर्षक है, हर जोर जुल्म के टक्कर में। कहा जाता है कि हरेक आन्दोलन का नारा, हर जोर जुर्म के टक्कर में हड़ताल/संघर्ष हमारा नारा है, इसी कविता की देन है। इस कविता को शैलेन्द्र ने वर्ष 1949 में लिखा था, पर इसकी अनेक पंक्तियाँ, जैसे मत करो बहाने संकट है, मुद्रा-प्रसार इंफ्लेशन है, इन बनियों चोर-लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है आज के सन्दर्भ में भी बिलकुल सटीक बैठती हैं।
हर जोर जुल्म के टक्कर में...
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है
तुमने माँगे ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा
छीनी हमसे सस्ती चीज़ें, तुम छंटनी पर हो आमादा
तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है
मत करो बहाने संकट है, मुद्रा-प्रसार इंफ्लेशन है
इन बनियों चोर-लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है
बगलें मत झाँको, दो जवाब क्या यही स्वराज्य तुम्हारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है
मत समझो हमको याद नहीं हैं जून छियालिस की रातें
जब काले-गोरे बनियों में चलती थीं सौदों की बातें
रह गई ग़ुलामी बरकरार हम समझे अब छुटकारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर हड़ताल हमारा नारा है
क्या धमकी देते हो साहब, दमदांटी में क्या रक्खा है
वह वार तुम्हारे अग्रज अँग्रज़ों ने भी तो चक्खा है
दहला था सारा साम्राज्य जो तुमको इतना प्यारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है
समझौता ? कैसा समझौता ? हमला तो तुमने बोला है
महंगी ने हमें निगलने को दानव जैसा मुँह खोला है
हम मौत के जबड़े तोड़ेंगे, एका हथियार हमारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर हड़ताल हमारा नारा है
अब संभले समझौता-परस्त घुटना-टेकू ढुलमुल-यकीन
हम सब समझौतेबाज़ों को अब अलग करेंगे बीन-बीन
जो रोकेगा वह जाएगा, यह वह तूफ़ानी धारा है
हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है
कवि मधुप मोहता की एक कविता है, आन्दोलन। इसमें उन्होंने लिखा है, मेरा लहू बिखर जाएगा नारे बनकर दीवारों पर – और शायद यही हरेक आन्दोलनकारी का सपना भी होता है। हालां कि आज के दौर में दीवारों पर जनता के नारे नहीं बल्कि हुकूमत के भौंडे विज्ञापन ही बिखरे रहते हैं।
आन्दोलन
मेरी भूख उभर आई है
गड्ढे बन मेरे गालों पर
मेरी प्यास सिमट आई है
पपड़ी बन सूखे अधरों पर
मेरा दर्द ढलक आया है,
आंसू बन मेरी अलकों पर
ओ समाज के ठेकेदारों,
ज्वालामुखी फूट जाएगा
और चलो मत अंगारों पर
मेरा लहू बिखर जाएगा
नारे बनकर दीवारों पर
कवि विजेंद्र अनिल की एक कविता का शीर्षक है, कहाँ हैं तुम्हारी वो फाइलें? यह पूरी तरह से एक सामयिक कविता है। इसमें सरकारी तंत्र में फाईलों की व्यवस्था पर एक सटीक कटाक्ष है। पर, आज के दौर में सरकारें फाईलों से नहीं बल्कि साहब-बहादुर के ट्वीट से चलती है, जाहिर है ट्वीट को आसानी से डिलीट किया जा सकता है – सरकार जनता की सम्पदा और अधिकारों को आजकल डिलीट ही तो कर रही है। इस कविता के अंत में नपुंसक मीडिया की भी चर्चा है।
कहाँ हैं तुम्हारी वो फाईलें
मैं जानता था : तुम फिर यही कहोगे
यही कहोगे कि राजस्थान और बिहार में सूखा पड़ा है
ब्रह्मपुत्र में बाढ़ आई है, उड़ीसा तूफ़ान की चपेट में है
तुम्हारे सामने करोड़ों की समस्याएँ हैं
मुट्ठी भर आन्दोलनकारियों की तुम्हें परवाह नहीं,
कि आन्दोलन से किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता
तुम वर्षों से, लगातार यही तो कह रहे हो
और सूखा हर साल पड़ता है, बाढ़ हर साल आती है
तूफ़ान हर साल आता है और हर साल मरते हैं लाखों लोग
तुम्हारी फ़ाइलों में सिर्फ़ आँकडे हैं
आँकड़े हैं उन बच्चों के जो अभी-अभी माँ के गर्भ से बाहर निकले हैं
उन मर्दों के जिन्हें तुमने आपरेशन और इंजेक्शन के द्वारा नपुंसक बना दिया है
और उन खोखली योजनाओं के
जिनका एक-एक पैसा घूम-फिर कर तुम्हारी ही तिजोरियों में क़ैद हो जाता है
कहाँ हैं तुम्हारी वे फ़ाइलें
जिनमें हड़ताली खान मजदूरों पर चलाई गई
गोलियों के आँकड़े हैं?
कहाँ हैं वे फ़ाइलें जिनमें जवानों के सीनों में
घुसेड़ी गई संगीनों के दाग हैं?
कहाँ हैं वे फ़ाइलें जिनमें आंदोलनकारी छात्रों पर फेंके गए
टीयर गैस के गोलों और बन्दूक के छर्रों के निशान हैं?
कहाँ हैं? कहाँ हैं वे फ़ाइलें
जिनमें ज़िन्दा जलाए गए हरिजनों और आदिवासियों की
लावारिस लाशों की गन्ध है?
तुम चालाक हो,
जानते हो, ये फ़ाइलें आग बन सकती है
इसलिए तुमने इन्हें बर्फ़ की सिल्लियों में छिपा रखा है
मगर, लगातार पिघल रही बर्फ़ की इन सिल्लियों का
क्या करोगे?
क्या करोगे इन सिल्लियों का जो लगातार
हड़तालों और आन्दोलनों के ताप से पिघल रही हैं?
तुम काग़ज़ की दीवार खड़ी करके गंगा के बहाव को
रोकना चाहते हो
तुम 'ब्लास्ट फर्नेस' में पिघलते लोहे की गर्मी को
चम्मच भर दूध और चुल्लू भर पानी से कम करना चाहते हो
वाकई, तुम बहुत चालाक हो
हर पाँच साल पर, तुम्हारे देश की सीमा पर होती है लड़ाई
कहते हैं खदेरू, गोरख, घीसू, भिखारी, जोखू और करामात के जवान बेटे
जो रोटी की तलाश में
अपनी गर्भवती बीवी को घर पर छोड़कर
या बीमार बाप की खाट पर दवा की ख़ाली शीशी पटककर
या विधवा माँ के मुँह से गिरते बलगम में ख़ून के
थक्कों को देखकर
या रोटी के लिए चीख़ते बच्चों को पत्नी के आँचल में बाँधकर
भाग गए
तुम्हारे 'रिक्रूटिंग आॅफ़िस' की ओर
और तुमने उनके हाथों में थमाकर लोहे की पतली-पतली नलियाँ
उनके माथे पर पटक दिया था देश का बेडोल नक़्शा
और ऐलान कर दिया था कि यही 'तुम्हारी माँ है'—
...और जिस वक़्त
काग़ज़ी माँ की नकली सीमाओं की हिफ़ाज़त के लिए
वे अपने ही भाइयों के सीनों में घुसेड़ रहे थे संगीनें
अथवा दाग रहे थे तोपें और गोलियाँ
उस वक़्त, तुम अपनी बीवी के जूड़े में खोंस रहे थे
रजनीगन्धा के फूल
अथवा 'नाइट शो' से लौटने के बाद अपने एयरकण्डीशण्ड
कमरे में बैठकर तोड़ रहे थे 'रम' और ह्विस्की के कार्क
लेकिन यह सब कहना फ़िजूल है
मैं जानता हूं, तुम फिर यही कहोगे
यही कहोगे कि देश एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है
सीमा पर शत्रुओं ने गोली चलाई है
और फिर...
तुम्हारी टेबल पर नई-नई फ़ाइलें बिख़र जाएँगी
तुम्हारे प्रेस, तुम्हारे रेडियो, तुम्हारे अख़बार,
तुम्हारे टेलीविजन झूठ के बड़े-बड़े गोले उगलने लगेंगे
दुष्यंत कुमार की एक कविता है, 'आज सड़कों पर' एक आन्दोलन की हिम्मत के बारे में इससे बेहतर शायद कोई कविता हिंदी में नहीं है।
आज सड़कों पर
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख
अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख
ये धुन्धलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख
राख़ कितनी राख़ है, चारों तरफ बिख़री हुई,
राख़ में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख
वर्तमान किसान आन्दोलन के शुरू में इन पंक्तियों के लेखक ने एक कविता लिखी थी, किसान आन्दोलन 2020। इसमें उनके संघर्ष और जनता के लिए बहरी और गूंगी सरकार के लिए एक चेतावनी है।
किसान आन्दोलन 2020
खेतों से निकले वे भड़क कर
चल पड़े सड़क पर
मजबूत हो चुके हैं
चप्पल को रगड़कर
सभी बाधाओं को लांघते कड़ककर
पहुँच चुके हैं दिल्ली की सड़क पर
सुनो उनकी ललकार
वे चाहते हैं प्रतिकार
आ रही उनकी हुंकार
अब तो छोडो अपनी जिद
सुनो, उनके मन की बात
तुम्हारे मन की बात पर धिक्कार है
सुनो उनकी
जो उठ रही फुंफकार है