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आंदोलन

जिसने खुद की जिंदगी से ज्यादा दूसरों की जिंदगी को समझा उसका ही नाम है 'चितरंजन सिंह'

Janjwar Desk
27 Jun 2020 3:10 PM IST
जिसने खुद की जिंदगी से ज्यादा दूसरों की जिंदगी को समझा उसका ही नाम है चितरंजन सिंह
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​बलिया के चितरंजन सिंह : इनके आजीवन किए की विरासत है आंदोलन, पूर्वी उत्तर प्रदेश में चितरंजन सिंह ने दर्जनों आंदोलनकारी युवाओं की एक ऐसी उर्जस्वी विरासत छोड़ी, जिनके मुंह में चांदी का चम्मच तो नहीं, लेकिन वह सब जननेता हैं और अधिकार की लड़ाइयों की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं
इतने सक्रिय शख्स को इस हालत में देखना मुश्किल था, हाथ में ड्रिप लगी थी, इंसुलिन दी जा रही थी, पिछले दिनों बलिया में जब तबीयत खराब हुई तो बीएचयू ले जाए गए, पर कोरोना काल के चलते वहां इलाज मिल पाना मुश्किल था...

चितरंजन सिंह को याद कर रहे हैं उनके आंदोलनों के युवा साथी राजीव यादव

जनज्वार। महाश्वेता देवी के शब्दों में आंदोलन यानी चितरंजन सिंह आज आपातकाल की बरसी पर हम सबको छोड़कर चले गए। मानवाधिकार-लोकतांत्रिक अधिकार आंदोलन से जुड़े तो यूपी के किसी जिले में शुरुआती दौर में किसी प्रशासनिक या पत्रकारिता से जुड़े शख्श से मनवाधिकारों की बात आते ही चितरंजन सिंह का नाम आ जाता था।

कंधे पर गमछा डाले हल्की सी मुस्कराहट लिए हुए चितरंजन जी का महीने-तीन महीने में फोन आ ही जाता था। पिछली बार पिछले साल आया कि कहां हो भतीजे की शादी पटना में है आना है और कुछ बातें। बलवन्त भाई से बात हुई तो पटना के महेंद्र भाई के साथ गए, पर अफसोस कि उस दिन भी तबीयत ठीक न होने के चलते चितरंजन जी से मुलाकात न हो सकी।

पिछले दिनों बलवन्त भाई ने उनकी तबीयत के बारे में बताया तो लक्ष्मण प्रसाद भाई से बात हुई तो वे चित्रकूट से आए तो उनके साथ बलिया आना हुआ। इमरान भाई और राम प्रकाश जी के साथ जब उनके गांव सुल्तानपुर गए तो घर पर खामोशी छाई हुई थी। मनियर से रामप्रकाश जी भी साथ हो गए जो चितरंजन सिंह के साथ इलाहाबाद विश्वविद्यालय से लेकर लम्बे समय तक साथ-साथ काम कर चुके हैं।

उनके भाई मनोरंजन सिंह जी ने थोड़ी देर बाद बरामदे के बगल के रूम का दरवाजा खोला और उसमें से आ रहीं कराहने की आवाजें जानी पहचानी सी थीं, पर उसे दिल मानने को तैयार न था कि वह चितरंजन जी की हैं।

वो आवाज़ जिसे मंच से कभी सुना तो कभी अकेले में बैठे हों और उनसे मिले तो यही पूछा क्यों जी कैसे हो। एक फिक्र सी हम जैसे युवाओं के लिए। कंधे पे गमछा लिए कभी रांची, कभी वर्धा तो कभी दिल्ली तो कभी यहां तो कभी वहां।


पीयूसीएल यूपी के इलाहाबाद के सम्मेलन में हमें उनसे जुड़ने साथ काम करने का मौका मिला। सांगठनिक संबंध से कहीं हम सभी के उनसे व्यक्तिगत संबंध थे जो उनकी सरलता की वजह से थे।

आपरेशन ग्रीन हंट का जब सरकार ने ऐलान किया तो उसी वक्त पीयूसीएल का राष्ट्रीय सम्मेलन रांची में हुआ। चितरंजन जी ने कहा कि चलना है। वहां पीयूसीएल जयपुर की कविता जी से पहली बार मुलाकात हुई।

बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ का वो खौफनाक दौर जब मुस्लिम युवाओं को आतंकवाद के नाम पर मारा-पकड़ा जा रहा था, उस मुठभेड़ के चंद दिनों बाद आजमगढ़ कचहरी में एक धरना रखा गया, जिसमें चितरंजन जी, सुभाष गाताड़े आए थे। उस धरने के दौरान आज़मगढ़ के साथी गुलाम अम्बिया और तनवीर भाई संदीप पाण्डेय का पर्चा बाट रहे थे। पुलिस ने दोनों को पकड़ते हुए धरने पर हमला बोला। इस धरने में मुश्किल से सत्तर-अस्सी आदमी थे, पर जैसे ही दमन होने लगा आसपास की आवाम आ गई। जो दहशत की वजह से धरने पर नहीं थी। थोड़ी ही देर में सूचना मिली कि गांवों से भी लोग बाइक-गाड़ियों से आ रहे हैं तो पुलिस ने छोड़ दिया।

थोड़ा शांति हुई तो चितरंजन जी ने कहा खबर भेजी गई की नहीं। लीडराबाद पर राजेन्द्र चचा की दुकान पर चाय पीते हुए कहा कि अच्छा हुआ। देखा पुलिस ने दमन किया तो जनता खड़ी हो गई। यह आंदोलन बहुत कुछ बदलेगा। इसमें दमन है तो प्रतिरोध का वेग उससे बहुत अधिक। और सच हुआ आज़मगढ़ ने आतंकवाद के नाम पर अपने मासूमों के लिए जो आंदोलन किया वो दुनिया-जहान में जाना गया।

पर उन्होंने पूछा कि ये धरने के नाम किसने रखा तो हमें लगा सब कुछ अच्छा-अच्छा तो कहा हमने। तो बोले आज़मगढ़, आतंकवाद : मिथक और यथार्थ धरने नहीं गोष्ठी का नाम हो सकता है।

इतने सक्रिय शख्स को इस हालत में देखना मुश्किल था। हाथ में ड्रिप लगी थी। इंसुलिन दी जा रही थी। पिछले दिनों बलिया में जब तबीयत खराब हुई तो बीएचयू ले जाए गए, पर कोरोना काल के चलते वहां इलाज मिल पाना मुश्किल था। मालूम चला कि लॉकडाउन में वो बलिया में अपने गांव सुल्तानपुर आए तो आसपास में घूमने-फिरने में बर्फी वगैरह ज्यादा ही खा लिए, जिससे उनका शुगर काफी बढ़ गया।

जिंदगी में सबके दिल में मिठास लाने वाले कैसे मिठास से दूर रह सकते थे। बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की हर बरसी पर वे आज़मगढ़ आए। संजरपुर में गुजरात की इशरत जहां की अम्मी, भाई-बहन आए तो उस वक़्त उनकी तबीयत ठीक नहीं होने के बावजूद वो आए। हर कार्यक्रम के दूसरे दिन सुबह फोन करके पूछते की कहां-कहां खबर आई। एक चिंता सी की आंदोलन को मीडिया में आवाज़ मिल रही है कि नहीं।

आज़मगढ़ घर पर भी आए। जब भी मुलाकात होती या फिर फोन पर बात होती तो भतीजे के बारे में पापा-मम्मी का हाल-चाल लेते और हर बार पूछते की विनोद कैसा है। क्योंकि बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ के बाद उनको एक बार पुलिस ने उठा लिया था। आज़मगढ़ कचहरी में राजेंद्र जी की दुकान में कई बार हम बैठे तो वो सबका हाल-पता लेते।

अंतिम बार जब देखा तो वो बिस्तर पर लेटे हुए। बार-बार हाथ फेंकते जिन्हें उनके भतीजे संभालते थे। कल वहां से लौटने के बाद बलवन्त भाई ने कई बार कहा लिखो कुछ, पर जिंदादिल जिंदगी को इस हालत में देख सिहर सा गया था। कल से आज तक लक्ष्मण भाई, तो कभी अभिषेक भाई और जब उनकी मृत्यु की सूचना मिली तो इमरान भाई से बात हो रही थी क्या होगा। मसीहुद्दीन भाई से भी देर तक बात हुई कि क्या होम्योपैथ में कोई इलाज है क्या।

अभी हाल में वरिष्ठ मानवाधिकार नेता गौतम नवलखा के बारे में सूचना आई कि दिल्ली से ले जाकर उनको जहां रखा गया वहां कोरोना का बड़ा खतरा है। वरवर राव की उम्र जहां बहुत अधिक है तो सुधा जी की भी तबीयत बेहतर नहीं। इन हालात में चितरंजन जी जिनको हम सभी चितरंजन भाई ही कहते हैं कि हालत ने दिल-दिमाग को झकझोर दिया।

जिसने खुद की जिंदगी से ज्यादा दूसरों की जिंदगी को समझा, कहीं भी कुछ खा पी लिया, उनकी जिंदगी हर शख्स की जिंदगी है जो दूसरों के लिए जीता है। कल मसीहुद्दीन भाई से बात हुई वो उनको लेकर चिंतित थे। दुनिया में जब आतंकवाद के नाम पर आजमगढ़ को बदनाम किया गया तो वो हर वक्त खड़े रहे और हमें हौसला देते रहे।

जब उनके घर से चलने लगे तो उनके चाचा जो 96 साल के हैं, एसडीएम से रिटायर होने के बाद गांव पर रहते हैं, उनसे बात करने की कोशिश की पर वे रोने लगते। मनोरंजन भइया तो कुछ कह पाने की स्थिति में ही नहीं थे।

वहां पर पीयूसीएल के साथी रणजीत सिंह (एडवोकेट), अखिलेश सिन्हा, सूर्यप्रकाश सिंह एडवोकेट, जेपी सिंह से मुलाकात हुई। चितरंजन जी के साथ गुजरे वक़्त की चर्चा करते हम सब वहां से निकले। आज चितरंजन जी हम सबको छोड़कर निकल गए।

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