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Bhima Koregaon Case: गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबड़े के मामले में जनवादी लेखक संघ का बयान, पढ़िए क्या कहा?

Janjwar Desk
27 Nov 2022 7:32 PM IST
Bhima Koregaon Case: गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबड़े के मामले में जनवादी लेखक संघ का बयान, पढ़िए क्या कहा?
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Bhima Koregaon Case: गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबड़े के मामले में जनवादी लेखक संघ का बयान, पढ़िए क्या कहा?

Bhima Koregaon Case: एक के बाद एक, गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबड़े के मामलों में एनआईए की दलीलों का सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ख़ारिज किया जाना एक स्वागत योग्य क़दम है।

Bhima Koregaon Case: एक के बाद एक, गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबड़े के मामलों में एनआईए की दलीलों का सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ख़ारिज किया जाना एक स्वागत योग्य क़दम है। गौतम नवलखा को जेल से हटाकर नज़रबंदी में रखने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ एनआईए की दलीलें बेहद कमज़ोर थीं जिन्हें दरकिनार करते हुए और सॉल्वन्सी सर्टिफिकेट को ग़ैर-ज़रूरी क़रार देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें हाउस अरेस्ट में रखे जाने के बॉम्बे उच्च न्यायालय के फ़ैसले को बरक़रार रखा। तदनुसार 19 नवंबर को श्री नवलखा नवी मुंबई के एक घर में स्थानांतरित कर दिए गए। आनंद तेलतुंबड़े के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें ज़मानत दिए जाने के ख़िलाफ़ जांच एजेंसी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की थी। कल 25 नवंबर को सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी अपील को ख़ारिज कर दिया जिससे अब आनंद तेलतुंबड़े की ज़मानत पर रिहाई सुनिश्चित हो गई है।

जनवादी लेखक संघ समेत अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन शुरुआत से ही यह राय रखते आए हैं कि भीमा-कोरेगाँव मामले में बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी एक क्रूर और भयावह राज्य-उत्पीड़न का उदाहरण है जिसके पीछे सीधा मक़सद उनकी सामाजिक-बौद्धिक सक्रियता पर बंदिश लगाना है। अभी भी इस मामले में गिरफ़्तार किए गए 16 में से ज्यादातर लोग ढाई-तीन साल से जेल में हैं, फादर स्टेन स्वामी की हिरासत में ही मौत हो चुकी है, जबकि भीमा-कोरेगाँव की हिंसा के असली अपराधी बाहर हैं और पक्षपातपूर्ण तरीक़े से काम करनेवाली जाँच एजेंसियों ने उन पर कोई मामला नहीं बनाया है।

यह अफ़सोसनाक है कि इस समय सरकार के कामकाज की आलोचना करनेवाले सैकड़ों कार्यकर्ता-लेखक-बुद्धिजीवी फ़र्ज़ी मामलों में अंदर हैं। बॉम्बे उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के इन हालिया फ़ैसलों का स्वागत करते हुए भी जनवादी लेखक संघ इस तथ्य को गाढ़े रंगों में रेखांकित करना चाहता है कि ये अपवाद की तरह हैं और फ़र्ज़ी मामलों में फँसाये गए लोगों के नागरिक अधिकारों की रक्षा में हमारी अदालतें लगातार विफल हो रही हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों के मामलों में तो खास तौर से जेल एक नियम और बेल अपवाद की तरह नज़र आता है। सरकार के आलोचकों पर यूएपीए लगा देने और उन्हें सालों-साल जेल में सड़ाने का जो अभियान पिछले आठ सालों से चल रहा है, उसमें अदालतें कोई सकारात्मक हस्तक्षेप नहीं कर पाई हैं।

ऐसे हालात को देखते हुए आनंद तेलतुंबड़े की ज़मानती रिहाई कुछ उम्मीद बँधाती है। जनवादी लेखक संघ का मानना है कि पीछे कुछ अभियुक्तों के कंप्यूटर में माल वेयर के ज़रिए प्लांट की गई चिट्ठियों के संबंध में जो रहस्योद्घाटन बाहर की अत्यंत विश्वसनीय जाँच एजेंसियों द्वारा किए गए थे, उनका संज्ञान लेते हुए अदालत को इस मामले में गिरफ़्तार सभी बुद्धिजीवियों-कार्यकर्ताओं की रिहाई पर विचार करना चाहिए।

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