Cast Census in Bihar: क्या बीजेपी के खिलाफ नीतीश का 'ब्रह्मास्त्र' बन सकती है जातिगत गणना? हिंदुत्व को मिलेगी कड़ी चुनौती
Cast Census in Bihar: क्या बीजेपी के खिलाफ नीतीश का 'ब्रह्मास्त्र' बन सकती है जातिगत गणना? हिंदुत्व को मिलेगी कड़ी चुनौती
सौमित्र रॉय की रिपोर्ट
Cast Census in Bihar: उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत दर्ज करने के बाद बीजेपी को यह लगने लगा है कि हिंदुत्व का मुद्दा जातिगत समीकरणों पर हावी होकर उन्हें जोड़ने में मदद कर रहा है। गाहे-बगाहे बीजेपी के कुछ नेताओं ने कहा भी दिया कि उनकी इस धारणा के आधार पर आगे बीजेपी को चुनाव मैदान में शिकस्त दे पाना मुमकिन नहीं होगा। लेकिन बिहार में एनडीए सरकार (NDA Govt) के मुखिया नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने जातिगत गणना (Caste Census) का ऐलान कर सहयोगी दल बीजेपी के हिंदुत्ववादी धारणा को तोड़ने की चुनौती पेश की है। अगर नीतीश का यह 'ब्रह्मास्त्र' कामयाब हो गया तो राज्य के अगले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को कड़ी चुनौती मिल सकती है।
हालांकि, इसमें भी विवाद हो सकता है। कुछ राजनीतिक जानकारों का मानना है कि उत्तरप्रदेश के नतीजों ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि बीजेपी अगड़ों की पार्टी है। बीजेपी के 43% निर्वाचित विधायक अगड़े तबके से हैं, जबकि राज्य की जनसंख्या में 50% की हिस्सेदारी रखने वाले ओबीसी (OBC) के एक-तिहाई विधायक ही चुनाव जीते हैं। इसे देखते हुए बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग (Social Engineering) को जातिगत गणना में ओबीसी की संख्या के बढ़ने से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि सत्ता में वर्चस्व तो अगड़ी जातियों का ही रहेगा
आरक्षण दें या न दें- बड़ा सवाल तो यह है
बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान जब नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल-यू (JDU) लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही थी, तब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत (RSS Chief Mohan Bhagwat) ने यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि आरक्षण पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। भागवत के इस बयान पर लालू ने कहा था कि इसका मतलब वे (बीजेपी) हार रहे हैं। आरएसएस को हमेशा से मंडलवादी आरक्षण से दिक्कत रही है। लेकिन नीतीश ने बुधवार को जब राज्य में जातिगत गणना (उन्होंने साफ कर दिया है कि यह जनगणना नहीं, गणना होगी) का ऐलान किया तो सहयोगी दल होने के नाते अनमने तरीके से ही सही, लेकिन बीजेपी को भी इसका समर्थन करना ही पड़ा। कांग्रेस और बाकी दल तो ऐसी किसी भी गणना के पक्ष में थे ही, इसलिए नीतीश के लिए अपनी योजना को सर्वदलीय सहमति का जामा पहनाने में कोई खास दिक्कत भी नहीं हुई। पिछले साल जुलाई में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में बताया था कि सरकार के पास एससी/एसटी के सिवा अन्य किसी भी जाति को जनगणना में शामिल करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। देश में जातिगत जनगणना केवल 1931 में ही हुई है। इसका मतलब सरकार खुद भी नहीं चाहती कि ऐसी कोई जातिगत जनगणना या गणना हो, जिसमें ओबीसी की संख्या बढ़ी हुई नजर आए और अगड़ी जातियां- ब्राह्मण, ठाकुर, बनिए आदि उनसे पिछड़े दिखें और वह इससे पैदा हुए कानूनी झंझट में उलझ जाए।
क्या होगा अगर जातिगत गणना हो जाए ?
बिहार विधानसभा ने दो बार जातिगत जनगणना का प्रस्ताव पारित किया है। जद-यू और राजद दोनों इसके पक्ष में हैं। खुद नीतीश कुमार एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ इसी मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल चुके हैं। एससी/एसटी के आंकड़े तो जनगणना में शामिल होते ही हैं, लेकिन ओबीसी के नहीं। ऐसे में केंद्र सरकार के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि ओबीसी के बढ़े हुए आंकड़े सामने आने के बाद आरक्षण को लागू कैसे किया जाएगा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की 50% की लक्ष्मण रेखा इसमें आड़े आ सकती है। बीजेपी ने उत्तर भारत में सवर्णों और अगड़ी जातियों को तो साध लिया है। लेकिन जहां तक ओबीसी का सवाल है तो कभी लाभार्थी कार्ड से या कभी योजनाओं, वादों का झुनझुना थमाकर उनसे चुनाव में वोट लिया जाता रहा है। अब अगर जातिगत गणना में ओबीसी का वर्चस्व बढ़ता है तो उनकी ओर से आरक्षण का लाभ भी मांगा जाएगा, जिसे पूरा करना बीजेपी के लिए इसलिए मुश्किल होगा, क्योंकि अगड़ों का उसका कोर वोट बैंक नाराज हो सकता है, जो आरक्षण को पूरी तरह से खत्म करने के पक्ष में है।
कहीं बगावत के मूड में तो नहीं हैं नीतीश ?
बीजेपी के लिए अभी सबसे असमंजस वाली स्थिति यह है कि आरसीपी सिंह की राज्यसभा से उम्मीदवारी खत्म करने के बाद नीतीश की नजदीकियां राजद से बढ़ी है। राजनीतिक सूत्रों के अनुसार, बीजेपी को यह लग रहा है कि कहीं नीतीश ऐन मौके पर बगावत कर राजद के साथ गठबंधन न कर लें और वह जातिगत गणना के 'ब्रह्मास्त्र' को उसी दिशा में फेंका हुआ हथियार मान रही है। नीतीश खुद भी ओबीसी से आते हैं और पिछले चुनाव से पहले जब उन्होंने न लड़ने की घोषणा की थी, लेकिन थोड़ी ना-नुकुर के बाद मान भी गए थे। सूत्रों के मुताबिक, नीतीश अब बिहार की राजनीति में विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह की छाप छोड़ना चाहते हैं। उन्होंने इससे पहले महादलित और आर्थिक पिछड़ा वर्ग (EBC) जैसी दो श्रेणियां भी लागू की हैं। इन परिस्थितियों में जातिगत आरक्षण बिहार जैसे पिछड़े, बीमारू राज्य में, जहां नौकरियों की भारी मारामारी है, सोशल इंजीनियरिंग का पूरा परिदृश्य ही बदल सकता है। बीजेपी के लिए इसका तोड़ निकाल पाना मुश्किल होगा।