Hindu Nationalism : इटली के तानाशाह मुसोलिनी से मिलने के बाद हेडगेवार के गुरु बीएस मुंजे ने की 'हिंदू राष्ट्रवाद' की कल्पना
वरिष्ठ इतिहासकार रामचंद्र गुहा का विश्लेषण
Hindu Nationalism : पॉलिटिकल साइंस के एक शिक्षक ने अपने विद्यार्थियों से यह सवाल पूछा : 'क्या आप फासीवाद-नाजीवाद और हिंदू दक्षिणपंथ ( Hindutwa ) में किसी तरह की समानता पाते हैं? तर्कों के साथ वर्णन कीजिए।' यूनिवर्सिटी के अधिकारियों ने शिक्षक को इस आधार पर निलंबित कर दिया कि ऐसा प्रश्न करना हमारे देश की 'महान राष्ट्रीय पहचान' के पूरी तरह से प्रतिकूल है और इससे सामाजिक कलह पैदा हो सकती है।
इस आलेख में उस सवाल का जवाब देने की कोशिश की जा रही है। मैंने इतालवी इतिहासकार मारिया कासोलारी के लेखन, खासतौर से इकोनामिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में वर्ष 200 में प्रकाशित उनके लेख 'हिंदुत्व फॉरेन टाइ-अप इन द 1930' और उनके द्वारा बीस साल बाद प्रकाशित एक किताब 'शैडो आफ स्वास्तिक : द रिलेशनशिप्स बिटवीन रेडिकल नेशनलिज्म, फासिज्म ऐंड नात्सिज्म' का अपने मुख्य स्रोत की तरह इस्तेमाल किया है। डॉ. कासोलारी का काम इटली, भारत और ब्रिटेन के अभिलेखागारों में जाकर किए गए गहन शोध के साथ ही विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध सामग्री पर आधारित है।
उन्होंने दिखाया कि 1920 और 1930 के दशकों में मराठी प्रेस ने इटली में 'फासीवाद' के उभार को गहरी दिलचस्पी बल्कि प्रशंसात्मक तरीके से कवर किया। उसका यह भी विचार था कि भारत में इसी तरह विचारधारा कृषि पर निर्भर इस पिछड़े देश में बदलाव लाकर उसे उभरती हुई औद्योगिक शक्ति बना सकती है और बेलगाम समाज को एक व्यवस्था और अनुशासन से बांध सकती है।
'मुसोलिनी ( Benito Mussolini ) और फासीवाद' पर केंद्रित इन चमकते लेखों जिनमें से कई को कासीलारी ने उद्धृत किया, राष्ट्रीय स्वसंसेवक संघ के प्रमुख नेताओं केबी हेडगेवार और एमएस गोलवलकर और हिंदू महासभा के प्रमुख नेताओं में विनायक दामोदर सावरकर ( Vinayak Damodar Sawarkar ) तथा बीएस मुंजे ( BS Munje ) ने भी पढ़ा – 'इन चारों की मातृभाषा मराठी थी।'
कासोलारी ने लिखा - 1920 के दशक के अंत में महाराष्ट्र में फासीवादी सत्ता और मुसोलिनी के अनेक समर्थक मौजूद थे। 'हिंदू राष्ट्रवादियों' को, निस्संदेह 'फासीवाद' के जिस पहलू ने सबसे अधिक प्रभावित किया, वह था अराजकता से व्यवस्था की और इतालवी समाज का कथित बदलाव और उसका सैन्यीकरण। इस लोकतंत्र विरोधी प्रणाली को लोकतंत्र का एक सकारात्मक विकल्प माना जा रहा था।
दरअसल, लोकतंत्र को एक विशिष्ट ब्रिटिश संस्था के रूप में देखा देखा जाता था। कासेलारी के शोध के एक अहम किरदार हैं डॉ. बीएस मुंजे, जो कि हिंदू दक्षिणपंथ के एक बड़े विचारक हैं। मुंजे ने 1931 में इटली की यात्रा की थी और वहीं उन्होंने फासीवादी सत्ता के अनेक समर्थकों से मुलाकात की थी। वह बेनितो मुसोलिनी और उनकी विचारधारा से और युवाओं में 'सैन्यवाद' की भावना का संचार करने की उनकी कोशिश से बहुत प्रभावित थे।
आग्रह करने पर मुंजे की मुसोलिनी तक से मुलाकात हुई। जब ड्यूस यानि मुसोलिनी ने भारतीय आगंतुक से पूछा कि वह फासीवादी युवा संगठनों के बारे में क्या सोचते हैं तो मुंजे ने उत्तर दिया : 'महामहिम, मैं बहुत प्रभावित हूं। प्रत्येक महत्वाकांक्षी और बढ़ते राष्ट्र को ऐसे संगठन की जरूरत होती है। भारत को अपने सैन्य उत्थान के लिए उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है।' इटली के फासीवादी तानाशाह से हुए अपने संवाद के बारे में मुंजे ने लिखा – 'इस तरह यूरोपीय दुनिया की एक महान शख्सियत सिग्नोर मुसोलिनी से मरे यादगार साक्षात्कार का समापन हुआ। वह चौड़े चेहरे, दोरी ठुड्डी और चौड़ी छाती वाले लंबे कद के व्यक्ति हैं। उनके चेहरे से ही झलक जाता है कि वह मजबूत इच्छाशक्ति और दमदार शख्सियत के व्यक्ति हैं। मैंने गौर किया कि इटली के लोग उनसे प्रेम करते हैं।'
मुंजे मुसोलिनी के व्यक्तित्व से चकित थे। इटली की यात्रा के बाद मुंजे और हेडगेवार ने हिंदू महासभा और आरएसएस को करीबी सहयोगी बनने के लिए कड़ी मेहनत की। कासोलारी हमें बताती हैं कि जनवरी, 1934 में हेडगेवार ने फासीवाद और मुसोलिनी पर केंद्रित एक सम्मेलन की अध्यक्षता की थी और जिसमें मुंजे एक प्रमुख वक्ता थे।
उसी साल मार्च में मुंजे, हेडगेवार और उनके सहयोगियों की एक लंबी बैठक हुई, जिसमें मुंजे ने टिप्पणी की, मैंने हिंदू धर्मशास्त्र के आधार पर एक योजना पर विचार किया है जो कि पूरे भारत में हिंदुत्व का प्रमाणीकरण करेगी... लेकिन मुश्किल यह है कि इस विचार को व्यवहार में तब तक नहीं लाया जा सकता, जब तक कि हमारा अपना स्वराज न हो, जिसमें पुराने जमाने के लिए शिवाजी या आज के इटली और जर्मनी के मुसोलिनी या हिटलर जैसा कोई हिंदू तानाशाह हो।
ऐसे तानाशाह के उदय तक क्या हाथ में हाथ बांधे बैठे रहें। हमें इसके लिए कोई वैज्ञानिक योजना ईजाद करनी चाहिए और इसके लिए प्रचार करना चाहिए।
मुंजे ने इस तरह इतालवी फासीवाद और आरएसएस की विचारधारा को समानांतर ला खड़ा किया। उन्होंने लिखा, फासीवद का विचार लोगों के बीच एकता की अवधारणा को स्पष्ट रूप से सामने लाता है। भारत और विशेष रूप से हिंदू भारत को हिंदुओं के सैन्य उत्थान के लिए कुछ ऐसे संस्थान की आवश्यकता है। नागपुर के राष्ट्रीय स्वयंसेव संघ को हमारी संस्था हेडगेवार के अधीन इसी तरह की है। हालांकि, इसकी कल्पना काफी स्वतंत्र रूप से की गई थी।
कासोलारी ने 1933 में एक पुलिस अधिकारी द्वारा आरएसएस पर की गई टिप्पणी को उद्धृत किया है, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि संघ भविष्य में भारत में खुद को उसी तरह देख रहा है, जैसा कि इटली के लिए फासीवादी और जर्मनी के लिए नाजी हैं। टिप्पणी का अगला हिस्सा है, संघ अनिवार्य रूप से एक मुस्लिम विरोधी संगठन है, जिसका लक्ष्य देश में सर्वोच्चता स्थापित करना है।
कासोलारी के शोध ने विनायक दामोदर सावरकर के दृष्टिकोण को लेकर भी दिलचस्प टिप्पणी की है। उन्होंने लिखा कि 1938 तक सावरकर की अध्यक्षता में हिंदू महासभा में नाजी जर्मनी मुख्य संदर्भ बिंदु बन चुका था। नस्ल के संबंध में जर्मनी की कठोर नीतियों को भारत में मुस्लिम समस्या को हल करने के लिए अपनाये जाने वाले मॉडल के रूप में लिया गया था।
कासोलारी ने सावरकर की टिप्पणियों को उद्धृत किया है, एक राष्ट्र का निर्माण उसमें रहने वाले बहुसंख्यकों से होता है। जर्मन में यहूदियों ने क्या किया? अल्पमत में होने के कारण उन्हें जर्मनी से खदेड़ दिया गया। भारतीय मुस्लिम खुद की पहचान को और अपने हितों को पड़ोस के हिंदुओं की तुलना में भारत के बाहर मुस्लिमों के साथ जोड़ने के अधिक इच्छुक है, जैसा कि पड़ोस के हिंदुओं की तुलना में भारत के बाहर मुस्लिमों के साथ जोड़ने के अधिक इच्छुक हैं, जैसा कि जर्मन में यहूदी करते हैं।
Hindu Nationalism : सारवरकर, निश्चित रूप से, आज भारत की सत्ता पर काबिज हिंदुत्व पर चलने वाली सरकार के लिए एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। कासोलारी की किताब में हिंदुत्व के एक अन्य प्रतीक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भी संदर्भ है। मारिया कासोलारी ऐसी पहली अध्येता नहीं हैं, जिन्होंने हिंदुत्व और फासीवादी की तुलना की है। उनके शोध दिखाते हैं कि शरदा यूनिवर्सिटी के शिक्षक ने अपने बच्चों से वैध और महत्वपूर्ण सवाल किया था। इसका जवाब न देकर और खुद शिक्षक को निलंबित कर विश्वविद्यालय के प्रशंसकों ने सच्चाई के प्रति अपने डर का प्रदर्शन किया।
साभार : रामचंद्र गुहा का यह लेख अमर उजाला में पहले से प्रकाशित है।
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