Jharkhand News: जनहितैषी होने का दावा करने वाली हेमंत सरकार में आदिवासी ही हो रहे हैं पुलिसिया दमन का शिकार
(लातेहार के आदिवासी किसान अनिल पर पुलिस की बर्बरता)
लातेहार से विशद कुमार की रिपोर्ट
Jharkhand News: झारखंड के जिला लातेहार अंतर्गत गारू थानाक्षेत्र से एक आदिवासी पर पुलिसिया उत्पीड़न का मामला सामने आया है। आरोप है कि, यहां के कुकु गांव निवासी 42 वर्षीय आदीवासी किसान अनिल कुमार (Anil Kumar) को बीती 23 फरवरी की रात गारू थाना प्रभारी रंजीत कुमार यादव ने उनपर माओवादियों को मदद करने का आरोप लगा कर बेरहमी से पिटाई कर दी। पुलिस ने अनिल पर नक्सलियों को रेलगाड़ी में बैठाकर बाहर ले जाने का आरोप लगाया है।
हालांकि अनिल को 25 फरवरी को एसपी अंजनी अंजन (SP Anjani Anjan) के सामने प्रस्तुत करने के बाद यह कह कर छोड़ दिया गया कि पिटाई की बात घर में किसी को नहीं बताना, नहीं तो अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहना। पुलिस की पिटाई से घायल अनिल 26 फरवरी को सदर अस्पताल पहुंचा। जहां डॉ. अखिलेश्वर प्रसाद ने उनका इलाज किया। अनिल ने बताया कि मेरे अलावा पुलिस (Police) ने मेरे मामा रामसेवक भगत व भगिन दमाद अजय भगत को भी उठा कर थाना ले गई थी। जहां उन लोगों की भी पिटाई की गई।
अनिल ने बताया कि 23 फरवरी की रात हमलोग पूरे परिवार खाना खाकर सो रहे थे। इसी बीच रात लगभग 1:30 बजे थाना प्रभारी रंजीत कुमार यादव (Ranjeet Kumar Yadav) दलबल के साथ मेरे घर पहुंचे और दरवाजा खटखटा कर बाहर बुलाया। उसके बाद उन्होंने मुझे, मेरे मामा, भगिन दमाद को यह कहकर तैयार होने को कहा कि तुम लोग नक्सली को ट्रेन में बिठाकर पहुंचाए हो, थाना चलो। इसके बाद हमलोगों को थाना ले जाया गया व जमकर पिटाई की गई।
अनिल का आरोप है, स्वयं थानेदार ने मेरे शरीर के निचले भाग में अन्धाधुन्ध लाठियां बरसाई। जिससे मेरा चमड़ा उखड़ गया। पिटाई के कारण मैं बेहोश हो गया। मेरा ब्लड प्रेशर लो हो गया। जिसके बाद ग्रामीण चिकित्सक को बुलाकर मेरा इलाज कराया गया। इसके बाद पुलिस हमलोगों को लेकर लातेहार पुलिस अधीक्षक के पास गई। हमलोगों से पूछताछ की गई। चूंकि हमलोग पूरी तरह निर्दोष थे। नतीजतन हमलोगों को शुक्रवार को किसी को यह बात ना बताने की धमकी देकर छोड़ दिया गया।
बताते चलें कि पुलिस द्वारा ग्रामीण जनता से संबंध प्रगाढ़ बनाने के लिए सामुदायिक पुलिसिंग के तहत सामग्रियों का वितरण किया जा रहा है। वहीं दूसरी ओर बिना कारण निर्दोष ग्रामीणों पर लाठियां बरसाई जा रही है। ग्रामीण बताते हैं कि हमलोग दुर्गम ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं। जहां उग्रवादियों और नक्सलियों की आवाजाही होती है। उनका मतलब यह नहीं कि हमलोग किसी के समर्थक हैं।
ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि नक्सलियों व पुलिस के बीच जारी जंग में ग्रामीण जनता बेवजह पीस रही है। इस संबंध में पूछे जाने पर पुलिस अधीक्षक अंजनी अंजान ने कहा कि पीड़ित द्वारा आवेदन देने पर संबंधित पुलिस पदाधिकारी पर कार्रवाई की जाएगी। अनिल सिंह ने साफ़ साफ़ बताया कि एक और व्यक्ति को बेरहमी से इतना पीटा गया कि वह की कई बार होश खो दिया।
बता दें कि 12 जून, 2021 को इसी गांव के ब्रम्हदेव सिंह (खरवार जनजाति) समेत कई आदिवासी पुरुष नेम सरहुल (आदिवासी समुदाय का एक त्योहार) मनाने की तैयारी के तहत शिकार के लिए गाँव से निकलकर गनईखाड़ जंगल में घुसे ही थे कि जंगल किनारे से उन पर सुरक्षा बलों ने गोली चलानी शुरू कर दी। हाथ उठाकर चिल्लाये कि वे आम लोग हैं, पार्टी (माओवादी) नहीं हैं, वो गोली न चलाने का अनुरोध करते रहे। लेकिन सुरक्षा बलों ने उनकी एक न सुनी और फायरिंग कर दी।
इन लोगों के पास पारंपरिक भरटुआ बंदूक थी, जिसका इस्तेमाल वे ग्रामीण छोटे जानवरों के शिकार के लिए करते हैं। सुरक्षा बलों की ओर से गोलियां चलती रहीं, नतीजतन दीनानाथ सिंह के हाथ में गोली लगी और ब्रम्हदेव सिंह की गोली से मौत हो गयी। इस घटना का सबसे दुखद और लोमहर्षक पहलू यह रहा कि ब्रम्हदेव सिंह को पहली गोली लगने के बाद उसे सुरक्षा बलों द्वारा थोड़ी दूर ले जाकर फिर से गोली मारी गई और उसकी मौत सुनिश्चित की गयी।
इस घटना के बाद इस कांड के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय पुलिस ने मृत ब्रम्हदेव सिंह समेत छः लोगों पर ही विभिन्न धाराओं के अंतर्गत प्राथमिकी (Garu P.S. Case No. 24/2021 dated 13/06/21) दर्ज कर दी। इस प्राथमिकी में पुलिस ने घटना की गलत जानकारी लिखी और पीड़ितों को ही प्रताड़ित किया गया।
झारखंड अलग राज्य गठन के 21 साल हो गए, एक रघुवर दास को छोड़कर राज्य सभी मुखिया आदिवासी हुए हैं बावजूद राज्य में आदिवासियों पर पुलिसिया उत्पीड़न की घटनाएं कम नहीं हो रही हैं। मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक गत 23 फरवरी को, जब 26 वर्षीय गिरिडीह जिला अंतर्गत खुखरा थाना क्षेत्र के चतरो गांव निवासी भगवान किस्कू को नक्सली होने का आरोप लगाकर जिले के अभियान एएसपी गुलशन तिर्की के नेतृत्व में बनी टीम ने गिरफ्तार कर पूछताछ के बाद उसे जेल भेज दिया। वहीं, भगवान दास किस्कू पर लैंड माइन, आइईडी लगाने, मधुबन क्षेत्र में मोबाइल टावर उड़ाने, डुमरी के लुरंगी के पास बराकर नदी पर बने पुल को केन बम से उड़ाने के अलावा कई मामले दर्ज किए गए।
जबकि भगवान के छोटे भाई लालचंद किस्कू के अनुसार, 20 तारीख को उनके ओरमांझी (रांची) स्थित किराये के मकान में रात के डेढ़ बजे करीब सात लोग जबरदस्ती घुसकर मारपीट करके व पिस्तोल दिखाकर लालचंद, भगवान और लालचंद के सहपाठी कान्हो मुर्मू को जबरदस्ती गाड़ी में बैठाकर अगवा कर लिया। उन लोगों ने कोई पहचान पत्र नहीं दिखाया और कहा कि वो पुलिस से हैं। अरेस्ट वारंट नहीं दिखाया गया और विरोध करने पर बेल्ट से मारा और पिस्तोल दिखाकर गाड़ी में बिठा लिया।
लालचंद के अनुसार, उन लोगों को सुबह तक गिरीडीह के किसी अज्ञात जगह पर ले आया गया। भगवान के साथ मारपीट जारी रही और बाकी दोनों छात्रों को भगवान से अलग कर दिया गया। दोनों छात्रों को अवैध तरीके से तीन दिन तक सीआरपीएफ कैंप कल्याण निकेतन में रखा गया। अंततः 23 फरवरी रात को पुलिस के जारी बयान में सिर्फ भगवान का जिक्र किया गया और 24 तारीख को सुबह आखिरकार बाकी दोनों छात्रों को रिहा किया गया। भगवान को फर्जी मुकदमा लगाते हुए जेल भेज दिया गया है, यह सूचना उनके परिवारों को अब तक अखबारों के जरिए ही मिली।
बता दें कि भगवान दास किस्कू ने क्षेत्र में हो रही पुलिसिया जुल्म के सवाल पर पिछले 5 फरवरी को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिलकर एक ज्ञापन दिया था। जिसके बाद से ही जिले की पुलिस की बक्र दृष्टि भगवान किस्कू आ गई थी। मुख्यमंत्री को इस ज्ञापन को देेेने के लिए गिरिडीह के जेएमएम विधायक सुदिव्य कुमार गये थे।
झारखंड में बढ़ती पुलिसिया जुल्म कहानी में पिछले महीने बोकारो जिला अंतर्गत गोमिया के चोरपनिया गाँव का एक आदिवासी बिरसा मांझी पिता बुधु मांझी की स्थिति पर एक नजर डाला जा सकता है। बिरसा मांझी को दिसम्बर 2021 में जिले के जोगेश्वर विहार थाना बुलाकर थाना इंचार्ज द्वारा कहा गया कि वह एक 1 लाख रु का इनामी नक्सल है और उसे सरेंडर करना होगा।
पुलिस के अनुसार बिरसा मांझी पिता बुधु मांझी तथाकथित एक लाख रुपए का इनामी नक्सल है, जबकि इस बिरसा के पिता का नाम रामेश्वर मांझी है। बिरसा ने थाना में इस बात को बताया था एवं लगातार यह भी कहा था कि उसका माओवादी पार्टी से कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी उसे सरेंडर करने को कहा गया था।
बताते चलें कि बिरसा व इसके परिवार की आजीविका मज़दूरी पर निर्भर है। परिवार के सभी व्यस्क सदस्य अशिक्षित है। बिरसा व इसका बड़ा बेटा मजदूरी करने ईटा भट्टा जाते हैं या बाहर पलायन करते हैं। इसके अलावा बिरसा व परिवार के अन्य सदस्य गाँव में ही रहते हैं, परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत कमज़ोर है। बिरसा मांझी व गाँव के कई लोगों पर 2006 में इनके एक रिश्तेदार ने डायन हिंसा सम्बंधित मामला (काण्ड से 40/2006 पेटरवार थाना) दर्ज करवा दिया था। इन पर लगे आरोप गलत थे।
उस मामले में अधिकांश लोग आरोपमुक्त हो चुके हैं। बिरसा के अनुसार पिछले कुछ सालों में इस पर माओवादी घटना से सम्बंधित आरोप लगाया गया, लेकिन मामले की जानकारी उसे नहीं थी। 3-4 साल पहले इसकी कुर्की जब्ती भी की गयी थी। लेकिन आज तक बिरसा को पता नहीं चला कि किस मामले में कुर्की जब्ती की कार्रवाई हुई थी। उसे कार्रवाई से पूर्व किसी प्रकार का नोटिस कोई भी नहीं दिया गया था। बिरसा मांझी का माओवादी पार्टी से जुड़ाव नहीं है। इस बात की पुष्टि इसके पड़ोसी भी करते हैं।
इस मामले को लेकर जब झारखंड जनाधिकार महासभा ने बोकारो एसपी को 4 जनवरी 2022 को एक पत्र देकर मामले की निष्पक्ष जांच की मांग की थी, जो अभी भी अधर में लटका है। मामले का निर्णायक निष्पादन नहीं होने के कारण बिरसा मांझी और उसके परिवार में आज भी भय का माहौल बना हुआ है कि कब पुलिस का कहर उसपर टूट पड़ेगा।
मालूम हो कि आदिवासियों के साथ यह कोई पहली घटना नहीं है, पुलिस द्वारा लगातार प्रताड़ित किया जा रहा है। कभी नक्सली बताकर हत्या कर दी जाती है तो कभी नक्सल का आरोप लगाकर जेल में बंद कर दिया जाता है।
उल्लेखनीय है कि 2017 में 9 जून को गिरिडीह जिला के पारसनाथ पर्वत पर एक डोली मजदूर मोतीलाल बास्के की सीआरपीएफ द्वारा माओवादी बताकर हत्या कर दी गई। इस घटना का सबसे घिनौना पहलू यह रहा कि राज्य के तत्कालीन डीजीपी डीके पांडेय ने इस हत्या में शामिल सुरक्षा बलों को एक लाख रुपए जश्न मनाने के लिए दिया था। वहीं इनाम के तौर पर 12 लाख रुपए देने की घोषणा की थी। इस घटना के विरोध में जोरदार आंदोलन चला था, जिसमें राज्य के पहला मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी सहित हेमंत सोरेन और शिबू सोरेन भी शामिल हुए थे।
हेमंत ने कहा था कि उनकी सरकार बनते ही मोतीलाल के परिवार को मुआवज़ और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। लेकिन हेमंत सरकार के एक साल गुजर जाने के बाद भी अभी तक मामले पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया है। दूसरी तरफ हेमंत के शासन काल में भी आदिवासियों की पुलिसिया उत्पीड़न में कोई कमी नहीं आई है।
संदर्भित है कि सबसे चर्चित घटना पश्चिम सिंहभूम जिले के चिरियाबेड़ा गांव में 20 आदिवासियों को जून 2021 में CRPF के जवानों ने सर्च अभियान के दौरान बेरहमी से पीटा था, जिनमें तीन लोग बुरी तरह से घायल हुए थे। ग्रामीणों का दोष यही था कि वे जवानों को हिंदी में जवाब नहीं दे पा रहे थे। उन्हें माओवादी कहा गया और डंडों, जूतों, कुंदों से पीटा गया। पीड़ितों ने पुलिस को अपने बयान में स्पष्ट रूप से बताया था कि सीआरपीएफ ने उन्हें पीटा था, लेकिन पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी में कई तथ्यों को नजरअंदाज किया गया और इस हिंसा में एक की भी भूमिका का कोई उल्लेख नहीं किया गया।
दूसरी तरफ राज्य में आदिवासियों, गरीबों व सामाजिक कार्यकर्ताओं पर माओवादी होने का फर्जी आरोप लगाने का सिलसिला जारी है। पिछले कई सालों से UAPA के मामलों में लगातार वृद्धि हुई है। यह दुःखद है कि पुलिस द्वारा UAPA के बेबुनियाद इस्तेमात कर लोगों को परेशान करने के विरुद्ध हेमंत सोरेन सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है, बोकारो के ललपनिया के कई मजदूरों, किसानों, जो आदिवासी-मूलवासी अधिकारों के लिए संघर्षत रहे हैं, के खिलाफ माओवादी होने का आरोप लगाकर UAPA के तहत मामला दर्ज किया गया है। वे पिछले कई सालों से बेल एवं अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
एक अन्य मामला में हजारीबाग जिले विष्णुगढ़ थाना निवासी बलदेव मुर्मू को बिना किसी मामले के 54 घंटे तब थाना हाजत में रखा गया। जिस पर क्षेत्र के मानवाधिकार कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा जमकर आलोचना की गई जिसके बाद बलदेव को छोड़ा गया। यह खबर सोशल मीडिया पर सूर्खियों में रही थी।
कहना गलत ना होगा कि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन दिन-रात आदिवासी-मूलवासी जनता के हितैषी होने का दावा करते नहीं थकते, लेकिन उनके दावे के ठीक विपरीत उनकी पुलिस आदिवासी अधिकार कार्यकर्ताओं को ही झूठे मुक़दमे दर्ज कर जेल भेज रही है।