मोदी को SHAMELESS PM कहने पर आजतक से निकाले गये पत्रकार ने कहा 'नहीं है नौकरी जाने का दुख'
बोलने की आज़ादी हमारा मूलाधिकार : आजतक से निकाले गये पत्रकार श्याम मीरा सिंह
जनज्वार। आज से आजतक के साथ पत्रकारिता का मेरा सफर खत्म हुआ. प्रधानमंत्री मोदी पर लिखे मेरे दो ट्वीट की वजह से मुझे आजतक से निकाल दिया गया है. मुझे इस बात का दुःख नहीं है, इसलिए आप भी दुःख न करें. जिन दो ट्वीट का हवाला देते हुए मुझे निकाला गया है, वे ये दो ट्वीट हैं- 1.Who says Respect the Prime Minister. They should first ask Modi to respect the post of Prime Minister post. (हिंदी अनुवाद- जो कहते हैं कि प्रधानमंत्री का सम्मान करो, उन्हें सबसे पहले मोदी से कहना चाहिए कि वे प्रधानमंत्री पद का सम्मान करें.)
यहाँ ट्विटर पर कुछ लिखता हूँ तो कुछ लोग मेरी कंपनी को टैग करने लगते हैं. कहते हैं इसे हटाओ, इसे हटाते क्यों नहीं... मैं अगला ट्वीट और अधिक दम लगाकर लिखता हूँ. पर इसे लिखने से पीछे नहीं हटूँगा कि ''Modi is a shameless Prime Minister.''
ये दो बातें हैं जिन पर मुझे निकाला गया या निकलवाया गया. सात महीने पहले जब मैंने आजतक JOIN किया, तब भी मुझे इस बात का भान था कि मुझे क्या लिखना है, किन लोगों के लिए बोलना है. तब ही से सत्ताधारी दल के समर्थकों द्वारा कंपनी को टैग कर-कर के लिखा जाने लगा था कि 'इस आदमी (मुझे) को आजतक से निकाला जाए, क्योंकि ये मोदी विरोध में लिखता है).
बीते कुछ दिनों से भी कंपनी पर सोशल मीडिया के माध्यम से एक वर्ग के द्वारा ये दवाब बनाया जा रहा था. अंततः इन दो ट्वीट के बाद मुझे आजतक से निकाल दिया गया है. मुझे किसी से शिकायत नहीं है. जो मैंने लिखा मैं उसके लिए स्टैंड करता हूं. ये वो बातें हैं जो एक पत्रकार के रूप में ही नहीं, एक नागरिक के रूप में मुझसे अपेक्षित थीं कि मैं एक ऐसे शेमलेस प्रधानमंत्री को शेमलेस कहूं जो एक खिलाड़ी के अंगूठे की चोट पर ट्वीट कर सकता है, मगर विदेश में शहीद हुए एक ईमानदार पत्रकार पर एक शब्द भी नहीं बोलते.
I am terminated from my channel Aaj Tak (India Today Group) for writing these two tweets on Prime minister Modi. pic.twitter.com/L6JRlC3RDi
— Shyam Meera Singh (@ShyamMeeraSingh) July 19, 2021
जनज्वार।मुझसे एक नागरिक के रूप में ये अपेक्षित था कि मैं उस प्रधानमंत्री को 'शेमलेस' कहूं जिसकी लफ्फाजी और भाषणबाजी ने मेरे देश के लाखों नागरिकों को कोरोना में मरने के अकेला छोड़ दिया. मुझसे ये अपेक्षित था कि ऐसे प्रधानमंत्री और उसकी सरकार को बेशर्म कहूं जिसकी वजह से इस देश का एक बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग हर रोज भय में जीता है, जिसे हर रोज डर लगता है कि शाम को सब्जी लेने जाऊंगा तो घर लौट भी पाऊंगा या नहीं या दाढ़ी और मुसलमान होने के कारण मारा जाऊँगा.
मुझसे ये अपेक्षित था कि मैं उस प्रधानमंत्री को शेमलेस कहूँ जो लद्दाख में शहीद हुए 21 सैनिकों की शहादत की खबर को दबाए, और अपनी गद्दी बचाने के लिए ये कहकर दुश्मन देश को क्लीनचिट दे दे कि सीमा में कोई नहीं घुसा, न कोई विवाद हुआ है. देश को बाकी लोगों से पता चले कि हमारे जवानों की हत्या कर दी गई है. किसी भी पार्टी, छात्र, मजदूर, शिक्षकों, शिक्षामित्रों, दलितों के संगठन अपना विरोध करने के लिए सड़क पर आएं और पुलिस लाठियों से उनकी कमर तोड़ दे. तब मुझसे ये अपेक्षित किया जाता है कि उस पुलिसिया जुल्म के शीर्ष पर बैठे प्रधानमंत्री को मैं कहूं कि वे 'शेमलेस' हैं. हजारों किसान दिल्ली की सीमाओं पर आठ महीने तक सड़कों पर पड़े रहें, उनमें से सैंकड़ों बुजुर्ग धरनास्थल पर ही दम तोड़ दें, और प्रधानमंत्री कहें कि मैं केवल एक कॉल दूर हूं, तब एक नागरिक के रूप में मुझसे उम्मीद की जाती है कि मैं उस प्रधानमंत्री को शेमलेस कहूं.
ऐसी हजार बातें और सैंकड़ों घटनाएं हैं जिन पर इस देश के प्रधानमंत्री को शेमलेस ही नहीं, धूर्त, चोर और निर्दोष नागरिकों के अधिकारों को कुचलने वाला एक कायर तानाशाह कहा जाए. इसलिए मुझे अपने कथन का, अपने कहे का कोई दुःख नहीं है. इस बात का भान मुझे नौकरी के पहले दिन से था कि देर सबेर मुझसे इस्तीफा मांगा जाएगा या किसी भी मिनट पीएमओ आवास की एक कॉल पर निकाल दिया जाऊँगा. हर ट्वीट करते हुए जेहन में ये बात आती थी कि इसके बाद कहीं FIR न हो जाए, कहीं नोटिस न भेज दिया जाए... कैसे निपटूंगा उससे? ये जोखिम मन में सोचकर भी लिख देता था...
मैंने वही बातें कहीं जो मुझसे एक पत्रकार के रूप में ही नहीं एक सिटीजन के रूप में भी अपेक्षित थीं, जिसकी उम्मीद सिर्फ मुझसे नहीं की जाती, बल्कि एक दर्जी से भी की जाती है कि वर्षों में कमाए इस देश की स्वतंत्रता के लुटने पर तुम बोलोगे. ये अपेक्षा मुझसे ही नहीं की जाती, प्राइमरी में पढ़ाने वाले टीचर से भी की जाती है, विश्वविद्यालयों के कुलपति, मकान बनाने वाले राजमिस्त्री, सड़क पर टेंपो चलाने वाले ड्राईवर, पढ़ने वाले छात्रों, कंपनियों में काम करने वाले हर कर्मचारी से ये उम्मीद की जाती है कि हर रोज हो रही भीड़ हत्याओं पर वे बोलेंगे. मैंने अपना काम चुकाया, जहां रहा हर उस जगह कोशिश की कि आम इंसानों की बेहतरी के लिए कुछ लिख सकूं.
चूंकि उम्र और तजुर्बें में बच्चा हूं. करियर के शुरुआती मुहाने पर हूं. जहां से आगे का मुझे पता नहीं... शुरुआत में ही मेरे लिखे के बदले मेरा रोजगार छीन लिया गया तो अंदर से कभी कभी कुछ इमोशनल हो जाता हूं. ऐसे लगता है जैसे कोई छोटी सी चिड़िया किसी जंगल में आई और उड़ने से पहले ही उसके पंख कुतर दिए गए हों. पर ये भी जरूरी है. उस नन्हीं चिड़िया पर ये विकल्प था कि वो कुछ दिन बिना उड़े ही अपने घोंसले में रहे, चुप बैठे, कहीं भी उड़ने न जाए. पर उस चिड़िया ने अपने पंख कुतर जाना स्वीकार लिया, लेकिन ये नहीं कि वो उड़ना छोड़ देगी. जमीन पर पड़े उसके पंख इस बात के रूप में दर्ज किये जाएंगे कि कोई ऐसा शासन था जिसमें पंछियों के पंख कुतर लिए जाते थे.
अगर वो चिड़िया उड़ना बंद कर घोसले में ही बैठी रहती तो ये पंख कभी दर्ज नहीं होते और पंख कुतरने वाले शासन का नंगा चेहरा कभी नजर नहीं आता. ऐसी नन्हीं चिड़ियों के कुतरे हुए पंख, उस जंगल पर राज करने वाले राजा का चेहरा दर्ज करने के लिए कागजात हैं. इसलिए मुझे दुःख नहीं, अफ़सोस नहीं..... संतुष्टि जरूर है कि मैं अपना हिस्सा चुका के जा रहा हूँ. बाकी अपने हर अच्छे बुरे में इन पंक्तियों से हिम्मत मिलती रहती है कि
'हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं...'