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Moonlighting Controversy: क्या है मूनलाइट विवाद, जिसके कारण विप्रो कंपनी ने अपने 300 कर्मचारियों को नौकरी से निकाला

Janjwar Desk
7 Oct 2022 3:16 PM IST
Moonlighting Controversy: क्या है मूनलाइट विवाद, जिसके कारण विप्रो कंपनी ने अपने 300 कर्मचारियों को नौकरी से निकाला
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Moonlighting Controversy: पिछले दिनों व्यवसायिक जगत में मूनलाइटिंग एक बहुत बड़ा मुद्दा बनकर समाचारपत्रों की सुर्खियों में तब आया जब विप्रो कंपनी के एक्जीक्यूटिव चेयरमैन रिशद प्रेम जी ने अपनी कंपनी के 300 से भी ज्यादा कामगारों को मूनलाइटिंग किए जाने के आरोप में सेवा से बेदखल कर दिया।

राजेश पाठक की टिप्पणी

Moonlighting Controversy: पिछले दिनों व्यवसायिक जगत में मूनलाइटिंग एक बहुत बड़ा मुद्दा बनकर समाचारपत्रों की सुर्खियों में तब आया जब विप्रो कंपनी के एक्जीक्यूटिव चेयरमैन रिशद प्रेम जी ने अपनी कंपनी के 300 से भी ज्यादा कामगारों को मूनलाइटिंग किए जाने के आरोप में सेवा से बेदखल कर दिया। कोई भी रोजगार देने वाली कंपनी इस मूनलाइटिंग कार्य व्यवहार की अनुमति सामान्यतः नहीं देती है।

मूनलाइटिंग का अर्थ होता है

आमतौर पर गुप्त और रात में एक नियमित रोजगार के अलावा एक अन्य नौकरी में संलग्न होना। प्रायः यह देखा जाता है कि नियमित नौकरी में निर्धारित काम के घंटे के बाद अतिरिक्त बचे समय में लोग किसी अन्य व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में पार्ट टाइम जॉब पकड़ लेते हैं एवं उससे अतिरिक्त आमदनी करते हैं।

नियमित रोजगार देने वाला प्रतिष्ठान अपने नियमित कामगारों में बढ़ती इस मूनलाइटिंग प्रवृत्ति के विरोध में उतर आए हैं।उनका मानना है कि इससे उनके कामगारों की कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है।वे नियमित नौकरी से जुड़े प्रतिष्ठानों में अपना बहुमूल्य व क्षमता आधारित कार्य-निष्पादन में पिछड़ जाते हैं। परिणामस्वरूप प्रतिष्ठान का आउट पुट कुप्रभावित होता है एवं कामगारों की उस प्रतिष्ठान के प्रति विश्वसनीयता व इंटीग्रीटी पर भी बुरा असर पड़ता है। रोजगार की सेवा शर्तों में स्पष्ट जिक्र होने (एक समय में एक प्रतिष्ठान में नौकरी) पर भी समय की बदलती परिस्थितियों में खासकर जब कोविड-19 पैंडेमिक की स्थिति में कामगारों को वर्क फ्रॉम होम जैसी व्यवस्थाओं के साथ जुड़ना पड़ा तो कामगारों द्वारा भविष्य में अपनी नौकरी की सुरक्षा हेतु अन्य कंपनियों में अवसर तलाशने की प्रवृत्ति बढ़ी और वे एक से अधिक कंपनियों में घर बैठे कार्य निष्पादन की ओर उन्मुख होने लगे।

मूनलाइटिंग में संलग्न कामगारों द्वारा तर्क दिया जाता है कि नियमित रोजगार से प्राप्त आमदनी से आवश्यक बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाने के कारण वे अपने अतिरिक्त समय में अन्य प्रतिष्ठानों में अंशत: सेवा न कि पूर्णकालिक सेवा देते हैं। ऐसी अंशत: सेवा से सेवा शर्तों का उल्लंघन नहीं होता है।

दोनों पक्षों की परस्पर दलीलों ने औद्योगिक संबंधों की पुनर्व्याख्या को अवश्यंभावी बना दिया है।आई.टी. कंपनी विप्रो, इन्फोसिस,टेक महिंद्रा आदि ने मूनलाइटिंग के कानूनी पक्ष के लिए सरकार से विमर्श व न्यायालय तक जाने को सोचने लगे हैं जबकि स्विगी जैसी कंपनियां इसे बहुत ज्यादा तूल नहीं दे रही है। नियमित कामगारों को मूनलाइटिंग की अनुमति मिलने न मिलने पर छिड़ी बहस से मूनलाइटिंग कार्य व्यवहार के नये-नये क्षेत्रों का उद्भेदन होता नजर आ रहा है जिसमें एक क्षेत्र शिक्षा जगत से जुड़ा है जिसका विश्लेषण यहां अपरिहार्य हो जाता है।

स्कूलों खासकर प्राईवेट स्कूलों में दिन-प्रतिदिन के शिक्षण कार्य समापन के बाद स्कूल के शिक्षक निजी ट्यूशन/कोचिंग संस्थान खोल रखे हैं जिनमें सैकड़ों बच्चे स्कूल अवधि से पहले या बाद में फीस देकर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। शिक्षकों का यह कार्य भी मूनलाइटिंग की परिभाषा के अंतर्गत ही आता है। कोई भी विद्यालय प्रबंधन अपने नियमित रोजगार प्राप्त शिक्षकों को अन्य निजी संस्थानों में शिक्षण या अध्यापन कार्य की औपचारिक अनुमति नहीं देता है। फिर भी सर्वेक्षण किया जाय तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि अधिकांश शिक्षक खासकर तकनीकी व जटिल माने जाने वाले विषयों के शिक्षक अपने नियमित रोजगार प्रदाई स्कूल में अध्यापन कार्य के अलावा ट्यूशन/कोचिंग संस्थान में अतिरिक्त आय हेतु योगदान देते हैं।उनका यह योगदान भले ही उनके अतिरिक्त आय का जरिया बनता है परंतु उनका ऐसा कृत्य निश्चित रूप से नियमित रूप से जुड़े संस्थान में उनके अध्यापन कार्य की क्षमता पर प्रतिकूल असर डालता है। प्रत्येक मानव मस्तिष्क एक निश्चित समयावधि के बाद आराम चाहता है ताकि उर्जा पुनः जाग्रत हो और नये सिरे से उसे उपयोग में लाया जा सके।

इसका स्याह पक्ष इस रूप में भी सामने आता है कि अध्यापक विद्यालय में अपनी विशेष कार्यक्षमता का समुचित प्रदर्शन न कर काम चलने भर ही करते हैं एवं अपनी उर्जा बचाकर रखते हैं ताकि निजी संस्थानों में उसका उपयोग किया जा सके। विद्यालय प्रबंधन के पास भी औपचारिक रूप से ऐसा कोई मेकेनिज़्म विकसित नहीं होता है जिससे वह मूनलाइटिंग की इस प्रवृत्ति पर प्रभावशाली अंकुश लगा सके और अगर कुछ स्कूलों में शिक्षकों के लिए विद्यालय परिसर में ही फूडिंग व लॉजिंग की सुविधा प्रदान कर मूनलाइटिंग की संभावना को शून्य करने का प्रयास किया भी जाता है तो यह प्रबंधन के लिए एक बड़े खर्च का कारण बनता है। इस प्रकार अब देखें तो मूनलाइटिंग से उपजी बहुआयामी समस्याओं को दूर करने के लिए कुछ आवश्यक उपाय किए जाने की अनिवार्यता सहज रूप से स्वीकार की जाने लगी है।

वर्तमान में प्रचलित औद्योगिक कानूनों की बात करें तो फैक्ट्री एक्ट,1948 की धारा 60 में स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि कोई भी कामगार एक समय में एक से अधिक प्रतिष्ठानों में नियोजित नहीं हो सकता। बावजूद इसके कानूनों की और भी स्पष्ट व्याख्या की जरूरत महसूस की जाने लगी है क्योंकि कानून की धाराओं में नियोजन की बात तो की गई है परंतु यह भी समझा जाना चाहिए कि अंशत: नियोजन व पूर्णतया नियोजन जैसे बारीक अंतर पर कानून को और भी अभी स्पष्ट होना है।

मूनलाइटिंग जैसे कार्य व्यवहार को हतोत्साहित करने के लिए निजी प्रतिष्ठानों को चाहिए कि नियोजित कामगारों को उतना वेतन तो निश्चित रूप से दे जितने में कि एक औसत परिवार अपने दिन-प्रतिदिन की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सके।साथ ही प्रतिष्ठानों की आयक्षमता के अनुरूप कामगारों को विशेष सांस्कृतिक व धार्मिक अवसरों पर होने वाले उपरिव्यय (ओवर हेड एक्सपेंडीचर) की यथासंभव पूर्ति हेतु बोनस आदि की एक सुनिश्चित व सुग्राह्य प्रणाली का अनुकरण किये जाने से मूनलाइटिंग जैसे कार्य को हतोत्साहित किया जा सकता है।यह भी सत्य है कि इस प्रवृत्ति ने श्रमिक -उद्योगपतियों से जुड़े औद्योगिक संबंधों में अंतर्निहित कमियों को उजागर कर दिया है और उद्योग में मानव-संबंध के एक नये उपागम को जन्म दिया है।अब वक्त है नियोजक व नियोजितों के बीच परस्पर निर्भरता के सिद्धांत को व्यावहारिक रुप दिए जाने का।

(राजेश पाठक झारखंड स्थित जिला सांख्यिकी कार्यालय गिरिडीह में सहायक सांख्यिकी पदाधिकारी हैं।)

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