Rashtriya Swayamsevak Sangh | आरएसएस का खिलौना बन रहे नरेंद्र मोदी, नीतीश और मायावती जैसे शूद्र
Rashtriya Swayamsevak Sangh | आरएसएस का खिलौना बन रहे नरेंद्र मोदी, नीतीश और मायावती जैसे शूद्र
नवल किशोर कुमार का विश्लेषण
Rashtriya Swayamsevak Sangh | सत्ता महत्वपूर्ण है। इतनी महत्वपूर्ण कि सत्ता जिसके पास जबतक रहती है, उसे इस बात का अहसास होता है कि वह सर्वशक्तिमान है और वह जो चाहे सो कर सकता है। वहीं जो लोग उसकी नीतियों को पसंद नहीं करते, वे यही सोचते हैं कि अपने हितों की रक्षा कैसे करें। यह बेहद सामान्य बात है। लेकिन सत्ता सामान्य बात नहीं है। सत्ता हासिल करनेवाला शख्स हर तरीके के पैंतरे आजमाता है। डेमोक्रेसी के कारण बेशक एक उम्मीद रहती है कि सत्ता किसी एक के पास नहीं रहेगी और बदलाव होगा। लेकिन बदलावों के बीच आम जनता को जो भुगतना पड़ता है, उसकी परवाह इतिहास भी नहीं करता।
कहने का आशय यह है कि समाज में दो तरह के लोग होते ही हैं। एक तो वे जो सत्ता के साथ होते हैं और दूसरे वे जो सत्ता के खिलाफ रहते हैं। यह इसी वजह से कि मुख्य संघर्ष तो केवल दो के मध्य ही होता है। एक वे जिनके पास सबकुछ है और दूसरे वे जिनके पास कुछ भी नहीं। भारत में इसकी व्याख्या थोड़ी जटिल है। इसके जटिल होने की वजह यह कि भारतीय समाज के मामले में सारे विभाजक काम करते हैं। इन विभाजकों में धर्म, जाति, वर्ग, लिंग सभी शामिल हैं।
फिलहाल जो विभाजग भारत में सबसे अधिक सक्रिय है, वह जाति है। समाज का शासक वर्ग, जिसके पास अकूत संसाधन है, वह हर हाल में अपने संसाधनों को सुरक्षित रखना चाहता है। जबकि एक दूसरा वर्ग जिसके पास संसाधनों पर न्यूनतम अधिकार है, वह अपने अधिकार को बढ़ाना चाहता है। चूंकि यह मामला जाति से भी जुड़ा है और देश में लोकतंत्र भी है तो सब मिलाकर स्थितियां विषम से विषमतर की ओर अग्रसर हैं।
अब हालत यह है कि ब्राह्मण वर्ग जो कि भारतीय समाज में शासक वर्ग है, लोकतंत्र के औचित्य पर ही सवाल खड़े कर रहा है। मसलन यह कि लोकतंत्र के संबंध में यह कहा जाता है कि शासक अब किसी रानी के गर्भ से पैदा नहीं होता, बल्कि आम जनता के समर्थन से शासक बनता है, को गलत साबित करने के लिए ब्राह्मण वर्ग ने अब शूद्र वर्ग के लोगों का सहारा लिया है। ब्राह्मण वर्ग यह साबित कर देना चाहता है कि शूद्र वर्ग के लोग राज नहीं कर सकते। यदि उनको राज दिया गया तो वे या तो नरेंद्र मोदी जैसे शातिर हिंसा को पसंद करनेवाले और कुर्सी को बपौती माननेवाले होंगे या फिर नीतीश कुमार जैसे बेवकूफ कि उनके सामने ही बौद्ध प्रतीक के साथ ब्राह्मणों के प्रतीक को शामिल कर दिया गया, और वे खामोश रहे।
दरअसल, यह सबसे बड़ी समस्या है इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में। वैसे यदि अतीत की बात करें तो ब्राह्मण वर्ग यह बहुत पहले ही जान गया था कि उसका संघर्ष दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों से होनेवाला है। मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूं कि इसके प्रमाण 1857 के तथाकथित गदर से पहले ही मिलने लगे थे। खासकर बिहार (अब झारखंड) में संतालों के विद्रोह ने ब्राह्मण वर्ग के महाजनों, जमींदारों और उन्हें संरक्षण देनेवाले अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। एक महत्वपूर्ण बात यह भी कि भारतीय इतिहास में आदिवासियों ने इस्लाम धर्मावलंबी शासकों के खिलाफ किसी विद्रोह का उल्लेख नहीं मिलता। यह वाकई दिलचस्प है।
हालांकि इसकी एक वजह यह हो सकती है कि मुसलमान शासकों (लूटने आए लोग नहीं) ने इस मुल्क को अपना मुल्क माना। फिर चाहे वह शेरशाह सूरी रहे हों या फिर अकबर और औरंगजेब। एक वजह यह भी हो सकती है कि अंग्रेजों के आने के पहले भारत पश्चिम में चल रहे औद्योगिक बदलावों से प्रभावित नहीं था। यह देखिए कि फ्रांस की क्रांति 1789-1799 के दौरान हुई। इस क्रांति ने विश्व समुदाय को प्रभावित किया। इसके गर्भ से निकले "समता, स्वतंत्रता और बंधुता" जैसे विचार की धमक जब भारत पहुंची तब हालात बदलने लगे।
मैं तो यही मानता हूं कि किसी शासक का पतन तभी होता है जब उसका जनता में इकबाल खत्म होता है। उदाहरण के लिए इसी देश में मुगलों का राज खत्म हुआ तो इसकी वजह यही रही कि जनता में उसका इकबाल खत्म हुआ। फिर अंग्रेजों भारत को मुक्त करना पड़ा तो इसके पीछे वजह यही रही भारतीयों के बीच उसका इकबाल खत्म हुआ। आजाद भारत में कांग्रेस का पतन तब हुआ जब उसका इकबाल न्यूनतम स्तर पर पहुंचा।
तो मुख्य रूप से वह इकबाल ही है जो किसी को सत्ता में बनाए रखने का महत्वपूर्ण कारक है। अब बात रही इकबाल की तो जनता में इसे बनाए रखने के अनेक तौर-तरीके हैं। धर्म और जाति विभेद इसके महत्वपूर्ण तरीके हैं। बिल्कुल यही काम आज के संदर्भ में आरएसएस कर रहा है। वह धर्म का सबसे अधिक दुरुपयोग कर रहा है। उसने प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति को प्रचार मंत्री बनने पर मजबूर कर दिया है जो आए दिन अपनी गुलटबाजियों के कारण चर्चा में बना रहता है। जबकि भारतीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री पद का बहुत महत्व है। सामान्य तौर पर वह इस पद पर आसीन व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि भले ही वह किसी भी विचारधारा को माननेवाला क्यों न हो, प्रधानमंत्री के रूप में वह भारतीयता को अक्षुण्ण रखेगा। लेकिन आरएसएस ने तो इस पद को मजाक का पात्र बना दिया है।
हालत यह है कि आज गूगल पर लोग 'दी मोस्ट स्टूपिड पीएम' खूब खोजते हैं और जवाब के रूप में गूगल नरेंद्र मोदी का नाम दिखाता है। नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के अलावा एक अन्य मायावती के उदाहरण से इसे और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। इन दिनों मायावती आरएसएस के पक्ष में वैसे ही मौन हैं, जैसे नीतीश कुमार। ये दोनों प्रभावशाली नेता हैं, लेकिन इनदोनों की खामोशी आरएसएस को ताकतवर बना रही है।
बहरहाल, मामला संविधान का है, जिसे बचाया जाना चाहिए। आरएसएस भारतीय लोकतंत्र के सारे मिथकों की हत्या कर देना चाहता है और उसकी साजिश तो देखिए कि वह इसकी हत्या एक शूद्र के हाथों करवा रहा है, जिस शू्द्र समुदाय के लिए लोकतंत्र एकमात्र विकल्प है जिसके जरिए वह अतीत अपने साथ हो रहे जुल्म-सितम से निजात पा सकता है।