Pasmanda Muslims: एक बार फिर राजनीतिक बिसात पर पसमांदा मुस्लिम
Pasmanda Muslims: एक बार फिर राजनीतिक बिसात पर पसमांदा मुस्लिम
राजेश पाठक का विश्लेषण
Pasmanda Muslims: पिछले दिनों हैदराबाद में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस वक्तव्य ने कि मुस्लिम समुदायों में भी दलित होते हैं जिनके कल्याण एवं राजनीति की मुख्यधारा से जुड़ाव पार्टी का एक चुनौती पूर्ण पक्ष है,एक बार फिर से पसमांदा मुस्लिम के प्रास्थिति को राष्ट्रीय फलक पर ला दिया है। सनद रहे कि पसमांदा मुस्लिम के हितों की रक्षा हेतु वर्ष 1998 में पटना के एक वरिष्ठ पत्रकार अली अनवर ने पसमांदा मुस्लिम महाज नाम से एक संगठन की शुरुआत की थी। यह संगठन पिछड़ी और दलित मुस्लिम का ऐसा संगठन है जो सर्वेक्षणोपरांत पसमांदा मुस्लिम को ओ.बी.सी या एस.सी. जैसी भी स्थिति हो उसमें शामिल करने की मांग करते रहा है। ज्ञात हो कि पसमांदा मुस्लिम में मुख्यतया बुनकर,मछुआरा,स्केवेंजर, स्वीपर जैसे निम्न श्रेणी के लोग शामिल हैं।
यूं तो इस्लाम किसी भी जातिगत विभाजन को अस्वीकार करता है परंतु यह भी सत्य है कि जब यह फारस और भारत में आया तो इन क्षेत्रों में प्रचलित जातीय विभाजन स्थानीय मुस्लिम समाजों में अपनाया जाने लगा। इसके अलावा एक नस्लीय अलगाव ने स्थानीय मुस्लिमों को विदेशी मूल के लोगों से अलग कर दिया। विजेता वर्ग से जुड़े विदेशी मुस्लिमों ने स्वयं को उच्च स्तर के होने का दावा किया और स्वयं को अशरफ (उच्च) के रूप में एवं स्थानीय धर्मांतरित मुस्लिमों को अजलाफ (निम्न) के रूप में वर्गीकृत किया। समय के साथ भारतीय मुस्लिम समाज भी वर्तमान हिंदू जाति व्यवस्था के आधार पर विभाजित हो गया।यह विभाजन कभी-कभी इतना क्रूर दिखाई दिया जिसके चलते मानवता भी शर्मशार होते दिखी जब कुछ वर्षों पूर्व बिहार एवं अन्य राज्यों में सशक्त एवं उच्च मानी जाने वाली मुस्लिम जाति के लोगों द्वारा निम्न जाति के मुस्लिमों के शवों को कब्रिस्तान में दफनाए जाने से बलपूर्वक रोका गया क्योंकि उस कब्रिस्तान में उच्च जाति के शवों को ही अब तक दफनाया गया था।
अब सवाल यह उठता है कि यदि मुस्लिम समुदाय में भी दलित हैं जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी भी स्वीकार करते हैं,तो अब तक इन्हें दलित श्रेणी या यूं कहें कि अनुसूचित जाति होने की कानूनी मान्यता क्यूं नहीं मिल पाई?अब तक की स्थिति के अनुसार मुस्लिमों में केवल पिछड़ी जाति की अवधारणा को ही क्यों कानूनी मान्यता प्रदान की गई है जबकि पसमांदा मुस्लिम में स्केवेंजर व स्वीपर जातियों की भी बहुलता देखी जा सकती है।हिंदू समाज में तो ऐसी श्रेणी के लोगों को दलित माना जाता है एवं अनुसूचित जाति के रूप में अधिसूचित भी हैं।
प्रधानमंत्री मोदी के वक्तव्य का एक और पक्ष भी है। वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव है। डॉलर के मुक़ाबले भारत का गिरता रुपया, विनिवेशीकरण, बेरोजगार युवाओं की फौज, लोक संस्थाओं का निजीकरण आदि कुछ ऐसे गंभीर व चुनौतीपूर्ण मुद्दे हैं जो उनके ही दल के बुद्धिजीवियों एवं श्रमजीवियों को दल के प्रति आंतरिक अविश्वास की स्थिति में ले आया है। कालांतर में आमचुनाव में वोटिंग के दौरान उन बुद्धिजीवियों एवं श्रमजीवियों के वोटिंग पैटर्न में बदलाव की भी आशंका बलवती हो गई है जो किसी न किसी रूप में दलगत संख्यात्मक स्थिति को कुप्रभावित कर सकती है और इसी कुप्रभाव से बचने के लिए तथा आने वाले लोकसभा चुनाव में दलीय स्थिति में संतुलन व समायोजन के लिए अन्य सामुदायिक घटक खासकर पसमांदा मुस्लिम की ओर पार्टी का ध्यान केंद्रित किया जाना कुछ आवश्यक सा हो गया है।
दलित मुस्लिम का उन्मुक्त समर्थन पाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को दो फ्रंटों पर तेजी से काम करना होगा। पहला यह कि उन्हें मुस्लिम समुदाय का सुस्पष्ट, प्रभावकारी व वैधानिक तरीके से जातीय सर्वेक्षण कराना होगा साथ ही सर्वेक्षणोंपरांत जातीय स्थिति के अनुसार उन जातियों का श्रेणीगत विभाजन ओ.बी.सी. एवं अनुसूचित जाति में करते हुए तद्नुसार नौकरियों तथा सरकारी योजनाओं में लाभ देना सुनिश्चित करना होगा।
दूसरा यह कि सामान्य तौर पर बहुसंख्यक नजर आने वाले दलित मुस्लिम बुनकरों के स्थाई रोजगार सृजन हेतु मृतप्राय हैंडलूम, गारमेंट्स, कारपेट आदि से जुड़े लघु एवं मध्यम दर्जे के उद्योग-धंधों को पुनर्जीवित करना होगा।
अब देखना यह है कि मोदी के वक्तव्य को दल की रीढ़ माने जाने वाले ग्रासरूट लेवल के कार्यकर्ताओं द्वारा कितना आत्मसात किया जाता है। समुदाय का विश्वास अर्जित करने के लिए उस समुदाय के प्रति कोरा भाषण परिणामदाई व फलदाई नहीं होगा। विश्वास करने की वजह को अब बताना ही होगा।
(राजेश पाठक झारखंड स्थित जिला सांख्यिकी कार्यालय गिरिडीह में सहायक सांख्यिकी पदाधिकारी हैं।)