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आप राष्ट्रवादी, हिंदूवादी और उन्मादी हैं तो सरकार, पुलिस, न्यायालय सब आपकी जेब में!
गौहत्या और गौ-मांस के नाम पर लगातार हत्याएं हो रहीं हैं, पर किसी की मजाल है कि हत्यारे पकड़े भी जाएँ। ज्यादा जोर लगाने पर किसी भी बेगुनाह के सर पर हत्या का आरोप लगाकर पुलिस आरोपी को साफ़ बचा लेती है...
महेंद्र पाण्डेय, वरिष्ठ लेखक
कुछ दिनों पहले ही प्रतिष्ठित लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में असमानता के अध्ययन के लिए अमर्त्य सेन चेयर की स्थापना की गयी है। अमर्त्य सेन ने आर्थिक और सामाजिक असमानता पर विशेष काम किया है और पुस्तकें भी लिखीं हैं, मगर आर्थिक और सामाजिक असमानता से परे भी और तरीके की असमानता है जिस पर कोई चर्चा नहीं की जाती।
हम तो अपने आजाद देश में भी असमान हैं। न्याय व्यवस्था का उदाहरण तो सबसे सामने है। जब न्यायाधीश पर कोई आरोप लगाता है तो न्याय व्यवस्था ध्वस्त होने लगती है और अरुण जेटली न्यायपालिका के साथ खड़ा होने का समय बताते हैं। पूरी दुनिया ने देख लिया कि हमारी न्याय प्रणाली कोई व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक व्यक्ति है जिस पर कोई आरोप लगता है तो पूरी प्रणाली ध्वस्त हो जाती है। दूसरी तरफ करोड़ों लोग इसी प्रणाली में न्याय की आस में पिस रहे हैं, उनके लिए सोचने का समय भी किसी के पास नहीं है।
इस मामले की भी बात करें तो जिसने आरोप लगाया उसे तो अपनी बात कहने के लिए बुलाया भी नहीं गया, और जिस पर आरोप थे वही न्यायाधीश भी थे। मानव के पूरे विकास क्रम में ऐसा वाक्य शायद ही दूसरा हो। कुछ दिनों पहले ही यह खबर आयी थी कि भारतीय जेलों में जितने कैदी हैं उनमें से 66 प्रतिशत के मुकदमे विचाराधीन हैं। इसका सीधा सा मतलब यह है कि 66 प्रतिशत कैदी आज की तारीख में गुनाहगार नहीं हैं, फिर भी जेल में बंद हैं।
यही हमारी क़ानून प्रणाली है, जो केवल अमीरों या फिर सत्ता के करीबियों को ही न्याय दिला पाती है। इस क़ानून व्यवस्था, जिसमें लोगों को न्याय नहीं मिलता या फिर खरीदने पर मिलता है, की बातें कोई न्यायाधीश नहीं करता और न ही अरुण जेटली या कोई दूसरा नेता करता है। क्या इस तरीके की असमानता के लिए भी कहीं कोई अध्ययन किया जाएगा?
ऐसा ही अंतर रिज़र्व बैंक भी करता है। दरअसल पिछले कुछ वर्षों में जिस संवैधानिक संस्था में सबसे अधिक गिरावट आई है, वह रिज़र्व बैंक ही है। नोटबंदी के समय सभी इसकी औकात से वाकिफ हो गए थे। इतना बड़ा फैसला सरकार ने ले लिया और रिज़र्व बैंक यह तक नहीं कह पाया कि इस फैसले का अधिकार केवल उसका है, सरकार का नहीं। उस संस्थान को आप क्या कहेंगे, जहाँ का मुखिया कोई था और नए नोट पर हस्ताक्षर किसी और के छप रहे थे।
नोटबंदी के नाम पर तो मध्यम वर्ग और गरीब के साथ साथ पेशेवर लोग भी और गरीब होते चले गए, पर इसी रिज़र्व बैंक की कोई भी ऐसी नीति या घोषणा नहीं होती जिससे धनाढ्यों को कहीं से चोट पहुँचती हो। यह तो सबको मालूम है कि गरीबों का कारोबार चौपट हो गया, पर क्या किसी को मालूम है कि उसी अवधि में अडानी, अम्बानी, टाटा और इसी तरह के धनाढ्यों का कारोबार दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा था, बीजेपी के नेताओं का भी खजाना भर रहा था।
जनता की तो छोड़िये, समानता तो नेताओं में भी नहीं है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह सरीखे नेताओं की चुनावी भाषा में चुनाव आयोग को कुछ भी अजीब नहीं लगता, कभी आचार संहिता की अवहेलना नहीं होती, पर क्या यही वरदान दूसरे नेताओं को भी मिला है?
मोदी जी तो सैनिक, बालाकोट, विपक्षी नेताओं के लिए ओछी भाषा का प्रयोग, हिन्दू-मुस्लिम सभी कुछ कहते हैं और लगातार कहते जा रहे हैं, पर कभी चुनाव आयोग ने कुछ कहा? पर उनकी तुलना में शिष्ट भाषा बोलते दूसरे नेताओं के भाषण पर चुनाव आयोग की भावें तनने लगती हैं। इन नेताओं के लग्जरी चुनावी दौरों पर भी चुनाव आयोग को कोई आपत्ति नहीं होती, वहीं साधारण रोड शो का भी हिसाब पूछा जाता है।
मोदी जी तो चुनाव का दिन हो या इससे पहले का दिन, भव्य रोड शो कर लेते हैं जिसे हरेक समाचार चैनेल पर बार-बार दिखाया जाता है, पूरी दुनिया इसे देखती है पर चुनाव आयोग को यह कभी नहीं दिखता। शिकायत करने पर चुनाव आयोग इन पर कुंडली मार कर बैठ जाता है, और मोदी जी फिर से वही कारनामा दोहराते हैं। चुनाव आयोग तो राष्ट्र के नाम सन्देश भी नहीं देख पाता। पहले तो केवल सीबीआई ही पिंजरे का तोता थी, आज तो सभी संवैधानिक संस्थाएं खुद ही अपने लिए पिंजरा खरीदती हैं और फिर इसमें स्वतः चली गयी हैं।
मोदी जी तो खुद गरजकर चौकीदार बन जाते हैं, मैं भी चौकीदार की मुहिम चलाते हैं, भगोड़ों और अपराधियों को चौकीदार बनने की बधाई भी देते हैं, पर कुछ नहीं होता। दूसरी तरफ चौकीदार चोर है कहने पर जज साहब कोर्ट में पूछते हैं कि चौकीदार कौन है? इसी तरह राफेल मामले में सरकार ने न्यायालय में बहुत कुछ छुपाया और बहुत कुछ गलत बताया पर न्यायाधीश साहब मौन रहे और अंत में गलतियाँ उजागर करने वाले पर ही बरस पड़े।
अमित शाह या फिर बीजेपी के दूसरे बड़े नेता सुनवाई में हाजिर न हों तो न्यायालयों को कोई फर्क नहीं पड़ता, पर अरविन्द केजरीवाल और योगेन्द्र यादव सुनवाई में नहीं जा पायें तो नान-बेलेबल वारंट आ जाता है। साधवी प्रज्ञा कुछ भी बोलें तो चुनाव आयोग को एक श्लोक लगता है, पर सजा मायावती को होती है। समानता तो मुख्यमंत्रियों में भी नहीं है।
केंद्र-शासित प्रदेशों में राज्यपाल के बदले उप-राज्यपाल होते हैं, और फिर मुख्यमंत्री होते हैं। राज्यों में भी मुख्यमंत्री होते हैं। पर दोनों मुख्यमंत्रियों में अंतर तो समय समय पर असहाय और शक्ति-विहीन अरविन्द केजरीवाल बता देते हैं।
आज के दौर में सबसे बड़ा विभाजन राष्ट्रवादी, हिंदूवादी और उन्मादी लोगों और शेष भारत में है। यदि आप राष्ट्रवादी, हिंदूवादी और उन्मादी हैं तो सरकार, पुलिस, न्यायालय सभी आपको बचाते रहेंगे और जरूरत पड़ी तो शिकायतकर्ता को ही दोषी ठहराकर दम लेंगे। कथित तौर पर गौहत्या और गौ-मांस के नाम पर लगातार हत्याएं हो रहीं हैं, पर किसी की मजाल है कि हत्यारे पकड़े भी जाएँ। ज्यादा जोर लगाने पर किसी भी बेगुनाह के सर पर हत्या का आरोप लगाकर पुलिस आरोपी को साफ़ बचा लेती है।
यदि कभी अति-उत्साही पुलिस वाले असली मुजरिम को पकड़ते हैं, तब ऐसे पुलिस वाले ही मार दिए जाते हैं। असली मुजरिम तो सरकारी संरक्षण में फलते-फूलते रहते हैं और चुनावों में उम्मीदवार बना दिए जाते हैं या फिर मृत्यु के बाद शहीद करार दिए जाते हैं।
लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स की अमर्त्य सेन चेयर तो आर्थिक और सामाजिक असमानता का हल खोज लेगी, पर हमारे देश की असमानता पर कौन ध्यान देगा?