हिमा दास के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन पर एथलेटिक्स फ़ेडरेशन ने की भाषाई बेइज्जती
कितना अजीब है कि एएफआई की नजर हिमा के खेल प्रदर्शन पर नहीं, बल्कि उनके अंग्रेजी ज्ञान पर थी। किसी के खिलाड़ी बनने से पहले उसका अंग्रेजी-भाषी होना क्यों ज़रूरी है...
सुशील मानव की रिपोर्ट
असम के एक छोटे से गाँव ढिंग की रहने वाली हिमा दास जिसे स्थानीय लोग प्यार से ‘ढिंग एक्सप्रेस’ भी बुलाते हैं, ने वो कर दिखाया जो अब से पहले किसी भारतीय ने नहीं किया था और जो अब सिर्फ इतिहास है।
हिमा दास ने गुरुवार 12 जुलाई की देर रात फ़िनलैंड में अंडर-20 वर्ल्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप की 400 मीटर दौड़ में गोल्ड मेडल जीता, इसके साथ ही हिमा विश्व एथलेटिक्स चैंपियनशिप की ट्रैक स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय बन गई हैं।
लेकिन इस ऐतिहासिक जीत को भी मेनस्ट्रीम की मीडिया ने वो जगह, वो तवज़्ज़ो नहीं दी जो बाज़ारवादी क्रिकेट को देता आया है। क्या इसके पीछे सिर्फ बाजारवादी सोच है या फिर मुख्यधारा की मीडिया एक सबअल्टर्न क्लास की लड़की की अकल्पनीय जीत को स्वीकार ही नही कर पा रहा है।
एक बेहद गरीब किसान की लड़की जिसका खेत ही उसके लिए रनिंग ट्रैक था, जिस पर गरीबी इतनी हावी है कि शायद ही कोई कंपनी उसे अपने उत्पाद के विज्ञापन का चेहरा बनाये। कारण ये कि जिसके पास अच्छी स्पाइक वाले जूते तक नहीं थे जो महँगे उत्पाद की उपभोक्ता नहीं है वो उनकी ब्रांड अंबेसडर कैसे हो सकती है। जाहिर है हिमा की शक्ल-ओ-सूरत व रंग-रूप भी बाज़ारवादी विज्ञापन व एलीट मीडिया की मानकों के अनुरूप नहीं है।
प्रधानसेवक ने तो हिमा दास की जीत में भी तिरंगा ढूँढ़ लिया, ख़ैर। लगे हाथ भारतीय एथलेटिक्स फ़ेडरेशन (एएफ़आई) ने हिमा दास के अंग्रेजी ज्ञान को चिन्हित करके अपनी औपनिवेशिक मानसिकता का परिचय दे दिया है। एएफ़आई ने 12 जुलाई को हिमा का एक वीडियो पोस्ट किया, जिसमें वे सेमीफ़ाइनल की अपनी जीत के बाद पत्रकारों के सवालों के जवाब दे रही थीं, क्योंकि यह चैंपियनशिप फ़िनलैंड में आयोजित थी तो सवाल भी अंग्रेजी में पूछे जा रहे थे हिमा उन सवालों के जवाब भी अंग्रेजी में दे रही थीं।
एएफ़आई ने इस वीडियो के साथ लिखा, 'हिमा अपनी सेमीफ़ाइनल में जीत के बाद जब मीडिया से मुख़ातिब हुई तो बहुत अच्छी अंग्रेजी न जानने के बावजूद उन्होंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की। हिमा हमें आप पर बहुत गर्व है, यूं ही बेहतर करती रहिए।'
कितना अजीब है कि एएफआई की नजर हिमा के खेल प्रदर्शन पर नहीं, बल्कि उनके अंग्रेजी ज्ञान पर थी। किसी के खिलाड़ी बनने से पहले उसका अंग्रेजी-भाषी होना क्यों ज़रूरी है। दरअसल भाषाई आतंक भी प्रतिभाओं को हतोत्साहित करने का एक जरिया होता है। भाषाई वर्चस्व के चलते ही कई बार दूरदराज पिछड़े इलाकों के खिलाड़ी अपने पाँव पीछे खींच लेते हैं।
एक खिलाड़ी जिसने खेल के मैदान में दुनिया फतह कर ली हो उसे आप अपनी भाषा के मैदान पर घेरकर उसकी हत्या करने की साजिश करते हो। आखिर क्यों ज़रूरी है कि पूंजीवादी बाज़ार और कार्पोरेट और राजनीतिक सत्ता की भाषा की तमीज एक खिलाड़ी को आनी ही चाहिए।
हिमा का जन्म असम के नौगांव जिले के एक छोटे से गांव कांदुलिमारी के बहुजन किसान परिवार में हुआ। पिता रंजीत दास के पास महज दो बीघा जमीन है और वो उसी में खेती-बाड़ी करते हैं। जबकि मां जुनाली घरेलू महिला हैं। जमीन का यह छोटा-सा टुकड़ा ही दास परिवार के छह सदस्यों की रोजी-रोटी का जरिया है।
हिमा एक संयुक्त परिवार से हैं और घर की आर्थिक स्थिति ऐसी है कि बस अपने खाने-पीने की व्यवस्था हो जाती है। हिमा जिस जगह से आती हैं, वहां अक्सर बाढ़ भी आती रहती है, इस वजह से भी परिवार को कई बार आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।
नौगांव में अक्सर बाढ़ के हालात बन जाते हैं, वह जगह बहुत अधिक विकसित नहीं है, जब हिमा गांव में रहती थी तो बाढ़ की वजह से कई-कई दिन तक प्रैक्टिस नहीं कर पाती थी, क्योंकि जिस खेत या मैदान में वह दौड़ की तैयारी करती, बाढ़ में वह पानी से लबालब हो जाता।
एक ऐसे जगह से निकलकर जहाँ न सुविधा हो न संसाधन दुनिया पर अपना परचम लहराने वाली लड़की के खेल पर नहीं, बल्कि एलीट वर्ग की भाषा में सही से संवाद न कर पाने को लेकर इस तरह की टीका-टिप्पणी निंदनीय है। हिमा दास भले ही पूँजीवादी खेलों (क्रिकेट और टेनिस) के शहरी खिलाड़ियों की तरह एलीट वर्ग की भाषा और बाजारवादी नखरेबाजी में पारंगत न हों पर उनकी तरह राजनीतिक चेतना से विहीन तो कतई नहीं हैं।
असम के छोटे से गांव ढिंग में रहने वाले हिमा के पड़ोसी बताते हैं कि वह गलत चीजों के खिलाफ बोलने से कभी नहीं डरती। रिकॉर्ड तोड़ने से पहले वह बुराई के खिलाफ आवाज उठाकर अपने गांव में मौजूद शराब की दुकानों को भी तोड़ चुकी हैं।
लड़की होने के चलते हिमा को उसके पिता गाँव से बाहर अकेले ट्रेन में भेजने से डरते थे। लेकिन उन्होंने तो अपनी विश्व चैंपियन बेटी के लिए ये कल्पना भी नहीं की होगी कि एलीट वर्ग की खेल संस्था एक हाशिए के समाज से आई लड़की को इस तरह घेरकर अपनी भाषा की सत्ता से आतंकित करेगा, उसका मजाक उड़ाएगा।