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खामोशी और जख्मों के परे : कश्मीर जो ना भुला पाएगा और ना माफ कर पाएगा
सैनिकों द्वारा बुरी तरह लहूलुहान बेटे की हालत पर कश्मीरी मां कहती है, 'मेरा बेटा न तो उग्रवादी था और न ही ओवर ग्राउंड वर्कर, उसने सैनिकों का क्या बिगाड़ा था? उन्होंने उसे क्यों प्रताड़ित किया? कश्मीर के लोग 'ज़ुल्म' (अत्याचार) का सामना कर रहे हैं। भारत और उसकी सेनाएं कश्मीरियों से बदला ले रही हैं, क्योंकि कश्मीरी अपने मानवीय और राजनीतिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं....
खालिद हुसैन की रिपोर्ट
13 सितंबर की देर शाम एक कैंप के भारतीय सैनिक चंदगाम में गश्त पर निकले। चंदगाम भारतीय प्रशासित कश्मीर के मुख्य शहर श्रीनगर से 57 किलोमीटर दक्षिण में पुलवामा जिले में स्थित एक गाँव है।
फिरोज़ अहमद गनाई अपने दो मंजिला घर में अपने परिवार के साथ बैठा था। अचानक, घर के मुख्य द्वार पर बार-बार खटखटाने की आवाज़ ने उनके सन्नाटे को भंग कर दिया। इससे पहले कि गनाई दरवाज़ा खोलने के लिए दौड़ता, वर्दी पहने सैनिक, स्वचलित राइफल लिए, मकान की सीमा लांघकर परिसर में दाखिल हो चुके थे।
22 वर्षीय गनाई ने बताया, 'सैनिकों ने मेरा पहचान पत्र छीन लिया और मुझे अगले दिन उनके कैंप में हाज़िर होने के लिए कहा। अगले तीन दिनों तक यह विनम्र लड़का 17 अन्य स्थानीय युवाओं के साथ, उस कैंप में नियमित रूप से हाज़री लगाने लगा।'
गनाई ने कहा, 'हम सभी चंदगाम और आसपास के गाँवों से थे, हम सुबह कैंप में जाते थे और एक अधिकारी से मिलने के बहाने हमें शाम तक हिरासत में रखा जाता था। पर चौथे दिन गनाई के लिए चीजें बदत्तर हो गईं थीं।'
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गनाई ने कहा, 'मुझे एक कमरे के अंदर ले जाया गया और एक कुर्सी से बांध दिया गया। मैंने खतरे को भांपकर उनसे दया की भीख माँगी, लेकिन उन्होंने मेरी नहीं सुनी। फिर उनमें से एक ने मेरे ऊपर वाले होंठ में एक सुई चुभो दी और तब तक चुभो कर रखी जब तक कि खून ने मेरी ठुड्डी से टपक कर ज़मीन पर एक तलाब नहीं बना दिया।'
गनाई के अनुसार, 'वह मुझसे झूठा कबूलनामा चाहते थे कि मैंने पिछले रोज़ कैंप में एक ग्रेनेड फेंका था। मैं दोहराता रहा कि मैं निर्दोष हूं, लेकिन उनका सुनने का मन नहीं था। प्रताड़ना जारी रही। फिर दूसरे लोग आ गए और लगभग आधे घंटे तक उन्होंने मुझे पीटा। मुझे नहीं पता कि उसके बाद क्या हुआ।'
शाम को गनई के नाना मुहम्मद जमाल लोन ने उसे कैंप के बाहर से उठाया। लोन ने बताया, 'सैनिकों ने हमारे बेटे को बेहोशी की हालत में कैंप के बाहर फेंक दिया था। उन्होंने उसके सर के बाल भी उखाड़ लिए थे।'
लोन ने बात करते करते अपनी जेब से एक सुई निकाली जिसे कागज़ में लपेटकर संभाला हुआ था। गनाई ने सुई को घूरते हुए कहा, 'सैनिकों ने इसका इस्तेमाल मुझे प्रताड़ित करने के लिए किया था। यह मेरे कपड़ों में फंस गई थी।'
यह प्रताड़ना मध्य सितंबर में हुई थी, पर उस लड़के के होंठ अब भी सूजे हुए थे। उसने रुक-रुक कर कहा, 'मुझे बहुत दर्द होता है। आज भी मुझे बुरे सपने आते हैं और रात में मैं चिल्लाते और रोते हुए उठ जाता हूँ।'
श्रीनगर के दक्षिण में पुलवामा और शोपियां जिले के छह अलग-अलग गाँवों में एमओ ने भारतीय सेना द्वारा कथित रूप से प्रताड़ित किये गए सात युवाओं के साथ साक्षात्कार लिए। इन सात युवाओं में से एक गनाई था।
5 अगस्त, जिस दिन हिंदू राष्ट्रवादी भारत सरकार ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद-370 को एकतरफा निरस्त कर दिया था, उस दिन से भारतीय सैना और अर्धसैनिक बलों के हाथों दुर्व्यवहार और प्रताड़ना के मामले कई गांवों में सामने आए हैं। इस कदम ने कश्मीर से उसका अलग झंडा और संविधान छीन लिया।
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लोगों के प्रतिरोध के डर से सरकार ने पूरे क्षेत्र में सेना को तैनात कर दिया और इंटरनेट एवं मोबाइल सेवाओं सहित संचार के सभी साधनों को रोक दिया।
अमानवीय तरीके से इस तरह प्रताड़ित किया जा रहा सेना द्वारा कश्मीरी युवाओं को
एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 5 अगस्त के नज़दीक क़रीब 80,000 अतिरिक्त सैनिकों को घाटी में भेजा गया। जबकि 7 लाख से अधिक सैनिक पहले से ही क्षेत्र में तैनात हैं। कश्मीर घाटी दुनिया को सबसे बड़ा सैन्यीकृत क्षेत्र कहा जाता है।
बुरहान वानी (21) 8 जुलाई 2016 को भारतीय सेना के साथ हुई गोलाबारी में मारा गया था। तब से पुलवामा और शोपियां स्थानीय उग्रवादियों के गढ़ बन गए हैं। बुरहान वानी की मौत से कश्मीर में पांच महीने लंबा विद्रोह चला और स्थानीय सरकार ने करीब 50 दिनों तक कर्फ्यू लगाकर इसका जवाब दिया।
100 से अधिक नागरिक मारे गए, जिनमें अधिकतर युवा थे और 2,000 से भी अधिक अर्धसैनिक बलों द्वारा निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर की गयी गोलाबारी से अंधे हो गए। इसमें छोटे बच्चे भी शामिल थे। सुरक्षाबलों द्वारा शॉट गन के माध्यम से दागे गए पैलेट यानी धातु के छर्रों के कारण लोग अंधे हुए। इसे दुनिया में बड़े पैमाने पर लोगों को अंधा करने का पहला उदाहरण बताया गया है।
हिंसा के इस चक्र ने युवाओं और शिक्षित पुरुषों को घर छोड़ने और बंदूक उठाने के लिए मजबूर किया। यही वह समय था जब पुलवामा, शोपियां और कुलगाम जैसे जिलों में भारतीय सैनिकों ने जाना छोड़ दिया था। अगले महीनों में लगभग तीन दशकों में पहली बार कश्मीर में स्थानीय विद्रोहियों की संख्या ने विदेशियों की संख्या को पछाड़ दिया। ऐसा 1990 के दशक में प्रचलित था जब घाटी में सशस्त्र विद्रोह अपने चरम पर था।
लोगों ने बंदूक-पकड़े युवाओं को मानो पूजना शुरू कर दिया। यहां तक कि स्थानीय युवा, पुरुष और महिलाएं सुरक्षा बलों के साथ गोलाबारी के दौरान विद्रोहियों को बचाने के लिए अपने जीवन को खतरे में डाल देते थे।
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विद्रोहियों को घेराबंदी से बचने और भागने में मदद करने के लिए स्थानीय लोग गोलीबारी के स्थान पर धावा बोल कर पुलिस और सेना के जवानों पर पत्थर फेंकते थे। सुरक्षा बल गोलियां चलाकर जवाब देते थे जो अक्सर घातक साबित होता था।
इसने भारतीय सेना प्रमुख बिपिन रावत को कड़ी चेतावनी जारी करने के लिए मजबूर किया कि अगर किसी भी नागरिक को सेना विरोधी अभियान में बाधा डालने वाला पाया गया, तो उन विद्रोहियों का ओवर ग्राउंड वर्कर (समर्थक) माना जाएगा और उसी हिसाब से फिर उससे निपटा जाएगा।
हालांकि यह चेतावनी लोगों को गोलाबारी के स्थानों पर धावा बोलने से नहीं रोक पायी। पहले जहां गोलीबारी होती थी लोग उन जगहों से भाग जाते थे और सेना को रिहाइशी इलाकों में छुपे हुए विद्रोहियों के साथ भिड़ंत में उतरने के लिए इलाका छोड़ देते थे। पर अब सभी आदेशों की अवेहलना करना प्रतिरोध का एक नया आयाम बन गया है और इससे सरकार के लिए एक नई चुनौती पैदा हुई है।
गनाई की माँ हजरा ने कहा, 'मेरा बेटा न तो उग्रवादी था और न ही ओवर ग्राउंड वर्कर (ओजीडब्ल्यू)। उसने सैनिकों का क्या बिगाड़ा था? उन्होंने उसे क्यों प्रताड़ित किया?' अपने बेटे के बगल में बैठी उसकी बेगुनाही की कसम खाते हुए उन्होंने कहा कि कश्मीर के लोग 'ज़ुल्म' (अत्याचार) का सामना कर रहे हैं।
26 वर्षीय आबिद खान जिनका कहना है की भारतीय सेना ने उनके साथ क्रूरतम टॉर्चर किया (क्रेडिट- एएफपी )
उन्होंने कहा, 'भारत और उसकी सेनाएं कश्मीरियों से बदला ले रही हैं क्योंकि कश्मीरी अपने मानवीय और राजनीतिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं। हमारे निर्दोष लड़कों के उत्पीड़न और प्रताड़ना को और क्या समझा जाना चाहिए?'
गाँवों में भय का माहौल
जिस कमरे में गनाई बिस्तर पर लेटा था, वह पड़ोसियों और रिश्तेदारों से भरा था। उनमें से अधिकांश लोग इस युवा लड़के की स्थिति के बारे में पूछताछ करने के लिए पहुंचे थे। उनमें से एक गुलाम हसन ने कहा कि स्थानीय युवाओं को प्रताड़ित करने का एक 'पैटर्न' है।
हसन ने कहा, '5 अगस्त के बाद, सैनिकों ने हर गाँव से कुछ लड़कों को उठाया और उन्हें इतनी बेरहमी से पीटा कि इससे पूरा गाँव डर गया। श्रीनगर के दक्षिण में स्थित जिलों के गाँवों में यह डर अन्दर तक बैठ गया है।'
चंदगाम से पांच मील दूर पंजरान गांव है। सेब के बागों के बीच बसे इस गांव में दुकानें बंद पड़ी हैं। एक जगह पर दुकान के सामने स्थानीय युवा सेना द्वारा की जा रही प्रताड़ना और रातों को छापेमारी पर चर्चा करते दिखे।
एक युवक जिसने खुद की पहचान मुजफ्फर बताई, उसने कहा, 'आप थोड़ी देर में चले जाएंगे और फिर मीडिया से बात करने के लिए हमें शाम को सैनिकों के क्रोध का सामना करना पड़ेगा।'
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इन जिलों के अन्य गांवों की तरह सैनिकों ने पंजरान के भी हर घर को काले रंग में लिखे अंकों से चिह्नित किया है। ग्रामीणों ने कहा कि सुरक्षा बलों ने कुछ महीने पहले एक सर्वेक्षण किया था और दुकानों सहित हर संरचना को संख्या देकर चिन्हित किया था।
गांव के एक बुज़ुर्ग वली मुहम्मद ने कहा, 'ये संख्या उन्हें खुफिया अभियानों के दौरान किसी भी घर का आसानी से पता लगाने में मदद करती है।'
स्थानीय लोगों के अनुसार, 5 अगस्त से गांव में भारतीय सेना द्वारा रात में की गयी। छापेमारी के दौरान 15 लड़कों को उठाया जा चुका है। उनमें से एक गांव के मुखिया अब्दुल रहमान का बेटा आसिफ अहमद इतू था।
रहमान का बेटा पेशे से शिक्षक है। वह अपने बेटे के साथ 17 सितंबर को सेना के कैंप में गए थे। रहमान ने कहा, 'वे मेरे बेटे को कैंप के अंदर एक कमरे में ले गए और मैं बाहर एक अधिकारी से विनती करता रहा। जब वह एक घंटे बाद बाहर आया, तो वह सामान्य लग रहा था लेकिन जब हम घर पहुंचे तो उसने अपने कपड़े उतारे और रोने लगा, 'उसके पूरे शरीर पर चोट के निशान थे और उसके अंडरवियर पर खून के धब्बे थे।'
चीखें और फुसफुसाहट
पंजरान से कुछ ही दूर सुगन, तुर्कु वांगम और मूलु चितरगाम नामक गांव हैं। यहां सेना न केवल दृढ़ है बल्कि प्रताड़ना के पूरे सिलसिले के सामान्यीकरण के नए-नए तरीके इजात कर रही है। गांव में सेना 'लाउडस्पीकर' पर कैंप में प्रताड़ित किए जा रहे युवाओं की दिल दहलाने वाली चीखें को प्रसारित करती है।
समीर अहमद ने बताया, 'मुझे सेना के एक कैंप में ले जाया गया। वहां उन्होंने मेरे पूरे शरीर पर एक तेज धार वाले उस्तरे से अलग-आग जगह काटा और फिर उस पर पेट्रोल और मिर्च पाउडर छिड़का। समीर अहमद के भाई जुबैर वर्तमान में मिलटेन्सी में सक्रिय हैं।
समीर अहमद ने कहा, 'जब मुझे प्रताड़ित किया जा रहा था तब उन्होंने (सेना ने) लाउडस्पीकर पर इसे प्रसारित किया था। मेरा परिवार और साथ में पूरा गाँव मेरी चीखें सुन सकता था।' समीर के परिवार ने बताया कि उसे कुछ घंटों बाद बख्श दिया गया और कैंप के बाहर ही अध-मरी हालत में छोड़ दिया गया।
उसके परिवार वालों ने कहा, 'हम उसे इलाज के लिए अस्पताल ले गए जहां उसे एक सप्ताह से अधिक समय तक भर्ती रखा गया था। उसके बाद भी सेना हमारे घर में आती है, हमें परेशान करती है, घर के सामान को तहस-नहस करती है, और हम सभी को मारती है। उन्होंने बताया कि समीर के बाद उसके चचेरे भाई, जो कि एक कॉलेज का छात्र है, उसको भी इसी तरह से प्रताड़ित किया गया।
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सेना प्रताड़ना के मामलों को 'आधारहीन' बताते हुए लगातार नकारती आई है। सेना के प्रवक्ता का कहना है, 'हम मानवाधिकारों की क़दर करते हैं।'
'प्रतिक्रिया तो होगी'
रात को छापेमारी, गिरफ्तारी और प्रताड़ना के विशिष्ट मामलों के बावजूद इस बार गांवों में लोग चुप हैं। सड़क पर कोई बड़ा विरोध प्रदर्शन और पत्थरबाजी की घटनाएं नहीं हुई हैं। यहां तक कि केंद्र सरकार के फैसले जिसने इस अशांत क्षेत्र के इतिहास का रुख बदल दिया, उस फैसले पर भी यहां लोगों की प्रतिक्रिया लगभग वैसी ही थी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से पहले सरकार द्वारा उठाए गए कदमों से कश्मीर में उन्माद और भय पैदा हो गया।
आतंक से संबंधित घटनाओं की जांच करने वाली भारत की शीर्ष एजेंसी एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) ने अलगाववादी नेताओं को गिरफ्तार कर कश्मीर में बड़े पैमाने पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया था। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने दो राजनीतिक संगठनों आजादी समर्थक जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट और पाकिस्तान समर्थक जमात ए इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया।
जम्मू-कश्मीर सरकार के आदेश जिसके तहत पर्यटकों को तुरंत कश्मीर छोड़ने के लिए कहा गया और अमरनाथ गुफा मंदिर की वार्षिक हिंदू तीर्थयात्रा को रद्द करने के ऐलान से पूरे क्षेत्र में परेशानी का माहौल बन गया। तेजी से बढ़ाए गए सैन्य-मौजूदगी ने पाकिस्तान के साथ संभावित युद्ध की अफवाहों को और हवा दी। सरकार ने उन आशंकाओं और डर को कम करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये जिससे लोगों की चिंता और बढ़ गई।
इससे पहले कि स्थानीय लोग घटनाक्रम को समझ पाते सरकार ने एक अभूतपूर्व कदम लेते हुए अधिकारियों ने 4 अगस्त की रात को इस क्षेत्र में सभी इंटरनेट और मोबाइल सेवाओं को बंद कर दिया और लोगों के चलने फिरने और सभा करने पर सख्त प्रतिबंध लगा दिए।
कई ग्रामीणों के अनुसार, 'लोग सशस्त्र बलों के प्रतिशोध के डर से चुप हो गए हैं, लेकिन कई गांवों में एक आम सहमति यह है कि सैनिकों की उपस्थिति लोगों को लंबे समय तक रोक नहीं सकती है।
कश्मीर के सेब के कटोरे के रूप में जाना जाने वाला शोपियां के हेफ़ गांव के एक कॉलेज के छात्र शब्बीर अहमद ने कहा, 'उन्होंने हमारे अधिकारों को छीन लिया है और हमें अपमानित किया है। प्रतिक्रिया तो होगी।'
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लोगों में यह डर भी है कि नई दिल्ली मुस्लिम बहुल क्षेत्र की जनसांख्यिकी को बदलने की योजना बना रही है। यह आशंका पूरी तरह से निराधार नहीं है क्योंकि सरकार ने एक और संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 35-ए को रद्द कर दिया है, जिसके तहत पहले बाहरी लोगों को जमीन पर कब्जा करने और राज्य सरकार में नौकरी हासिल करने से रोक थी।
अहमद ने आशंका जताई कि वे अब हमारी जमीन हड़पने आएंगे और बाहरी लोगों को कश्मीर में बसाएँगे। फिर आने वाले वर्षों में हम अपनी ही भूमि में अल्पसंख्यक या शायद बिना वजूद के रह जाएंगे।
घाटी में सन्नाटा, कश्मीर को लेकर चुप्पी
शोपियां में लोगों (विशेष रूप से युवाओं) ने संयुक्त राष्ट्र सहित विभिन्न विश्व निकायों की कश्मीर के बारे में चुप्पी पर निराशा व्यक्त की। एक अन्य युवक जिसने ख़ुद की पहचान शरीज बताई उसने कहा, 'हिंसा से हिंसा ही फैलती है। चल रहे उत्पीड़न ने हिंसा के लिए मजबूर कर दिया है।'
यह देखना अभी बाकी है कि जब प्राधिकारी संचार पर लगे प्रतिबंधों को हटाएंगे तब कश्मीर कैसे जवाब देगा। पिछले महीने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जम्मू-कश्मीर सरकार के प्रवक्ता रोहित कंसल ने कहा कि ऐसी आशंकाएं थीं कि अगर संचार सुविधाएं बहाल की गईं तो पाकिस्तान कश्मीर में उपद्रव मचा सकता है।'
संचार पर लगे प्रतिबंधों का तीसरा महिना चल रहा है। संचार पर लगी रोक के बारे में जब उनसे बार-बार पूछा गया तो उन्होंने जवाब दिया, 'यह समय भी बीत जाएगा।'
परिगाम के निवासी पर छापे के दौरान सैनिक यातना के निशान
इस वक़्त कश्मीर में भारतीय समर्थक राजनेता अप्रासंगिक और बदनाम हो गए हैं। 2014 में नई दिल्ली में दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उभार के बाद से नेशनल कांफ्रेंस (एनसी) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) जैसी मुख्यधारा की पार्टियों ने अनुच्छेद 370 को अपनी राजनीति की आधारशिला बना लिया था।
वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के तीन पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला, उनके बेटे उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती- सहित उनका पूरा नेतृत्व नज़रबंद है। फारूक अब्दुल्ला को सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत बुक किया गया है। पीएसए एक विवादास्पद कानून है जिसके तहत एक व्यक्ति को दो साल तक बिना सुनवाई के जेल में रख सकते हैं।
एक बार यह राजनैतिक नेता रिहा हो जाएं, उनसे अपेक्षा है कि वे अनुच्छेद 370 पर बातचीत को पुनर्जीवित करेंगे और तब उनकी राजनीति अलगाववादियों से मिलती-झुलती नज़र आएगी। लेकिन, क्या वे ख़तरे का संकेत देने वाली लाल-रेखा को पार करेंगे जहां से लौट पाने संभव ना हो, वो भी तब जब उनका करियर दांव पर होगा? इन सवालों का तत्काल उत्तर दे पाना मुमकिन नहीं है।
प्रतिष्ठित मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील परवेज़ इमरोज़ कहते हैं कि लोगों की चीखती हुई चुप्पी का एक कारण दहशत है। वह तीन दशक से भी अधिक समय से जम्मू और कश्मीर में सुरक्षा बलों द्वारा अत्याचार और प्रताड़ना के मामलों का दस्तावेज़ीकरण कर रहे है।
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इस बार दहशत का माहौल ऐसा है जैसा पहले कभी नहीं था और इसके चलते स्थानीय लोगों को सीमित तरीके से अपना विरोध व्यक्त करना पड़ रहा है। संचार नाकाबंदी का भी बुरा प्रभाव पड़ा है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रताड़ना की दिल देहला देने वाली कहानियां अभी तक दूसरे हिस्सों में लोगों तक नहीं पहुंच पायी हैं। यहां तक कि यह जानना भी कठिन है कि खुद अपने मोहल्ले में क्या हो रहा है। इसलिए यह सवाल पूछना वाजिब नहीं होगा कि अंतर्राष्ट्रीय ध्यान या एकजुटता की कोई भी खबर लोगों तक पहुंचेगी।
इसके अलावा बेहिसाब ताकतों से लड़ने का यह डर अकेले होने की भावना से और जटिल हो जाता है। हालांकि परवेज इमरोज का कहना है कि कश्मीर में लोग सही समय पर जवाब जरूर देंगे।
परवेज इमरोज का कहना है कि कश्मीरी लोगों ने हमेशा खुद ही अपनी शर्तों और अपने समय के अनुसार अपने संघर्ष का निर्माण किया है, यहां तक कि नई दिल्ली भी यह मानता है। लोग हार नहीं मानेंगे। यही कारण है कि सेना ने ग्रामीण क्षेत्रों में नए कैंप लगाये हैं और शहरों और कस्बों में सड़कों को एक बार फिर भारी रूप से बंकरों में वर्दी पहने पुरुषों से भर दिया गया है।
उन्होंने कहा, 'कश्मीर के लोगों ने हमेशा आत्मसमर्पण के बजाए प्रतिरोध को चुना है और इस बार कुछ अलग नहीं होगा। इस चुप्पी को समझने की जरूरत है, गलत अर्थ निकालने का नहीं और निश्चित रूप से इस स्थिति को स्थाई समझने की गलती नहीं करनी चाहिए।'
(खालिद हुसैन की यह रिपोर्ट 8 नवम्बर 2019 को mo.be पर प्रकाशित हुई थी। इसका अनुवाद कश्मीर खबर ने किया है।)
मूल रिपोर्ट : Under the Silence and the Scars: a Kashmir that Will Not Forget or Forgive