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संस्कृति

भूपेन्द्र सिंह का व्यंग्य "मेरी बीमारी"

Janjwar Team
12 May 2018 10:20 PM GMT
भूपेन्द्र सिंह का व्यंग्य मेरी बीमारी
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इतना इंतजार तो सतयुग में अनसुईया ने भी राम का नहीं किया होगा, जितना मैं उस गांधी टोपी वाले चाचा का कर रहा हूँ कि वो मेरी नौकरी लगवाएंगे...

भूपेन्द्र सिंह

मैं अभी-अभी "अपनी-अपनी बीमारी" व्यंग्य की किताब पढ़ कर हटा हूं जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार हरिशंकर परसाई ने लिखा है। वैसे तो बचपन से ही मेरे अन्दर का पढाई-लिखाई का कीड़ा अपाहिज रहा, जो बैशाखियों के सहारे मुझे यहाँ तक घसीट लाया। वो क्या यूं ही घसीट लाया, पिछवाड़े पर बहुत लठ बरसे मेरे तभी वो सुसरा आगे बढ़ने पर मजबूर हुआ। वर्ना मेरी अपनी कोशिश पर तो वो खड़ा होते ही गिर जाता था, सारे टोटके फेल हो गये थे।

वो तो माँ ही थी जो ऐन मौके पर मेरी समस्या को भांप गई थी और समझ गई थी कि छोरा आगे चलकर बहुत सारी परेशानियों से साक्षात्कार होने वाला है। बस समय रहते लाठीचार्ज कर दिया था। वर्ना वो सत्यानाशी कहां चलने का नाम ले रहा था।

कभी-कभी सोचता हूं कि इस देश में जितने भी सत्यानाशी हैं जो इस देश की लुटिया डूबो रहे हैं। उनके पास मेरे जैसी लठदार माँ क्यूँ नहीं है जो उनकी परेशानी को समझ कर उनके अन्दर के अपाहिज कीड़े को चलने पर मजबूर कर दे। ताकि देश की हालत सुधर सके। देश जातियों और धर्मों में ना बटे। गरीब, गरीब ना रह कर थोड़ा अपने से ऊपर वाले से कंधा मिला ले।

ओह ! मैं तो मुद्दे से भटक रहा हूँ। औकात से ज्यादा ही बोल गया कुछ। माफ करना इससे आगे नहीं। वैसे भी चौराहे पर खड़ा होकर इतना ज्यादा नहीं बोलना चाहिए। वर्ना दबोच लिया जाऊंगा। वैसे समझ तो गये होंगे ना आप क्या कहना चाह रहा हूँ ?

हां तो मैं कह रहा था कि परसाई जी की वो बीमारी वाली किताब पूरी पढ ली मैंने। परसाई जी गजब के लेखक हैं। वो हमारे चारों तरफ घट रही उन सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को जो मनुष्य की तरक्की में रुकावट हैं। जिन पर हमारा ध्यान आसानी से नहीं जाता या फिर हम उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं परसाई अंकल बड़ी ही चतुराई के साथ उन मुद्दों का बखिया उधेड़ देते हैं। उनकी कलम में तलवार से भी तेज धार है। उनके पास सच में ऐसा हुनर है कि वो सामने वाले को गहरी चोट भी पहुंचा दें और उसे रोने भी न दें।

जब 15 साल का था इन किताब लिखने वालों से मिलने का बड़ा मन था मेरा। पर जल्दी ही ये बात समझ में आ गयी कि पढना-लिखना तो है नहीं, फिर इसकी जड़ तक जाने का क्या मतलब। बचपन में माँ-बाप चाहते थे कि छोरा बड़ा होकर पढ़- लिखकर कुछ बन जावे तो घर को आगे बढाने में हाथ बटावेगा। पर उन्हें कहाँ पता था कि बिराणी फूंक मेरे कान में घुस गई थी।

हुआ यूं कि एक बार एक सफेद कुर्ता-पाजामा व गांधी टोपी पहने एक चाचा जी गाँव की चौपाल में आये। पूरा गाँव आकर उसके चारों तरफ ऐसे खड़ा हो गया जैसे चौपाल में मणि वाला सांप निकला हो। मैं भी सबसे अागे की पंक्ति में था।

खैर पहले तो चाचा जी ने अपने सहपोशाकधारियों को गरियाया| फिर उसने गाँव वालों को सम्बोधित करते हुए कहा कि तुम लोग हमें वोट दो, फिर मेरी तरफ उंगली करके बड़ी सह्रदयता से (चूंकि मैं सामने ही था) कहा कि जब तक ये बच्चा बड़ा होगा तब तक हम भ्रष्टाचार और बेरोजगारी का नामोंनिशान मिटा देंगे। सबको नौकरियां मिलेंगी इस बच्चे को भी मिलेगी।

बस फिर क्या था उस गांधी टोपी वाले चाचा की बात मेरे कान में जगह बना गई और तभी से घर वालों की पढाई वाली बात कान में नहीं घुस पाई। उन्हें कहाँ पता था कि इसके पास गांधी टोपी वाले चाचा की पहुंच है अब ये नहीं पढ़ेगा। इसका पढाई-लिखाई वाला कीड़ा अपाहिज हो गया है।

स्कूल के बाद तो बस्ते को कभी दरवाजे के अंदर से घर में जाना नसीब ही नहीं हुआ। बस्ता दीवार के ऊपर से ही प्रवेश होता था। और मैं बाहर से ही कबड्डी खेलने भाग जाता था। तब ऐसी कबड्डी खेला की आज तक जिंदगी की कबड्डी के मैदान में दोनों पालों में पैर रखे खड़ा हूं। समझ नहीं आता की हारा हूं या जीता हूँ? बस यही है मेरी बीमारी।

परसाई जी ने "अपनी-अपनी बीमारी" वाली किताब में सबकी बीमारी बता दी। यहां तक की चाँद पर भी चले गये वहाँ के लोगों की बीमारी ढूंढ़ने। और यहां से एक पुलिस वाला बुलवाकर चाँद के लोगों की बीमारी भी कटवा दी। हजारों मील दूर चाँद पर चले पर यहाँ हरियाणा तक ना आ पाये परसाई अंकल। मैने क्या भैंस मार दी थी उनकी? यहाँ उन्हें दुनिया भर के और तरह-तरह के बीमार लोगों से मिलवा देता।

बेचारे भोले लोग, गंभीर और वैराइटी वाली बीमारियां हैं इन्हें। कोई औरत अपने घर में झाडू-पोचा कर गंदे पानी को नाली में बहा दे और वो पानी पड़ोसी के घर के सामने से निकल जाये तो उस घर वाली औरत कुल्हाड़ी निकालकर शेर की तरह दहाड़ती है उस औरत को काटने के लिए। कहती है अपना गंदा पानी अपने घर में रखो मेरे घर के सामने से नहीं निकलना चाहिए।

चाहे उसने अपने घर के जाले सात साल से ना झाड़े हों, पर घर के सामने से गंदा पानी नहीं जाना चाहिए। जब कोई बुढा-ठेरा आदमी आकर बोलता है कि लड़ते क्यों हो गंदा पानी तो बाहर ही जावेगा। फिर वो औरत घूंघट निकाल कर बड़ी ही अदा से साथ शरमाते हुए कहती है ना दादा मैं के बावली सूं जो छोटी सी बात पर उनसे सिर फुड़वाने जाऊं? पर कुल्हाड़ी तो तुम्हारे हाथ में है? ना दादा भला किस पर इतना टैम है ? लड़ तो पड़ोसी रहे हैं हमारे साथ। मैं तो दरवाजे से मक्खियां उड़ाने आयी थी।

बेचारे ढूढे को कहां पता है कि इनके दरवाजे की मक्खियाँ कुल्हाड़ी से उडती हैं। बड़ी मजबूत मक्खियाँ हैं, खैर। गाँव से बाहर शराब का ठेका खुल गया एक आदमी ने दो बोतलें खरीदी। एक वहीं खड़ा होकर गटक गया और दूसरी पाजामे के नाड़े से आंटों में कस कर बांध ली। अब गाँव में आकर बोला नाश होगा अब तो। गाँव वाले बोले क्यों? वो बोला पता नहीं क्यों।

जब थोड़ा दबाव देकर पूछा तो बोला गाँव से बाहर शराब का ठेका खुल गया अपने बालकों को बचा लो कहीं गलत राह ना पकड़ लें। अब बेचारे की नाड़े से बंधी हुई बोतल खिसक कर नीचे आ गिरी, अपने को बचाते हुए बोला देखो मैं तो सामने से आ रहा था मेरे सुसरे की साथ में लिपट कर आ गयी। अब तो तुम बालकों को ठेके के सामने से भी मत जाने देना।

थोड़ी देर बाद सारा गांव ठेके पर लाईन लगाये खड़ा था। मिनटों में ठेका खाली कर दिया। फिर नशे में एक-दूसरे पर खाली बोतलों से निशाना साध रहे थे। जब पुलिस आई तो बोले - ना जी हम के बावले हैं जो लड़ेंगे? बहुत तगड़ा भाईचारा है हमारा तो, हम तो मजाक कर रहे हैं आपस में।

ऐसी-ऐसी बीमारी देखने को मिलती परसाई अंकल को यहां। और एक बीमारी तो सारी दुनिया जानती है आरक्षण वाली। पूरा हरियाणा फूंक दिया। जिस दिन आग लगाकर आये शाम को गाँव के कुछ लोग इकट्ठे होकर बात रहे थे। अरे के साराये फूंकोगे थोड़ा सा तो छोड़ दो, थोड़ी सी तो भलाई ले लो।

एक ने कहा - ना भाई हम के बावले हैं जो सारा फूकेंगे, थोड़ा सा तो छोड़ेंगे, इतना भला तो कर देंगे। आखिर है तो हरियाणा आपणाऐ। के बिराणा स जो सारा फूकेंगे। या किसी बात कर दी तन्ने? देखो कितनी भलमनसाहत है यहां के लोगों में, बस यूँ ही फ़ालतू में बदनाम किया जा रहा है यहां के लोगों को।

आधों को तो ये भी नहीं पता था कि हम आग क्यों लगाने आये हैं और आधों को ये नहीं पता था कि हम आरक्षण क्यों मांग रहे हैं। अगर पता चल जाता तो पूरे देश को फूंक डालते। वो तो भला हो उन दो-चार आग लगवाने वाले लोगों का जो उन्होंने ये नहीं समझाया की आग क्यों लगानी है। नहीं तो आंच परसाई अंकल की कलम तक जरूर पहुंचती।

देखा यहाँ के लोगों को कितनी अपनापन, साहस और बावला ना होने की बीमारी है। तभी तो हरियाणा में अंग्रेज भी ज्यादा दिन नहीं ठहर पाये। उन्हें पता चल गया था कि अगर यहाँ के लोगों ने तुम्हें अपना बना लिया तो दस-बारह पीढ़ियों तक बच्चे जले हुए पैदा होंगे। इतनी अपनेपन की बीमारी है यहाँ के लोगों में। एकदम ईमानदार और भरोसे के प्रतीक है। किसी पर भी भरोसा कर लेते हैं, जैसे मैंने किया गांधी टोपी वाले चाचा पर बचपन में, और आज तक इंतजार कर रहा हूँ।

वो बोलकर गये थे जब तक ये बच्चा बड़ा होगा तब तक हम भ्रष्टाचार और बेरोजगारी को मिटा देंगे और नौकरियां लगवा देंगे। मुझे बड़ा हुए काफी साल हो गए। दाढ़ी में सफेद बाल भी आ गए और उनका मातम भी मना लिया। इतना इंतजार तो सतयुग में अनसुईया ने भी राम का नहीं किया होगा। जितना मैं उस गांधी टोपी वाले चाचा का कर रहा हूँ कि वो मेरी नौकरी लगवाएंगे?

मुझे भी भरोसे की बीमारी लग गई है। तबीयत हरी हो जाती इतने सारे बीमार लोगों को एक साथ देखकर परसाई अंकल की। बस मुझे उनकी इस बात से जलन है कि मेरी बीमारी नहीं बताई। इसलिए मुझे अपनी बीमारी खुद बतानी पड़ी। अगर मेरी भी बीमारी उनकी कलम तले रगड़ी गई होती तो उसके बाद मेरी भी चार जगह पहचान होती।

लोग कहते वो गया बीमारी वाला आदमी, वो आया बीमारी वाला आदमी। राह चलते लोग हालचाल पूछते। लोगों का झुंड हालचाल पूछने के लिए मेरे चारों तरफ होता। कितना अच्छा लगता तब मुझे जब कुछ लोग मेरी बीमारी पर आश्चर्य जताते, कुछ दुःख प्रकट करते और कुछ बीमारी की काट बताते। पर अब मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। क्योंकि कोई मुझे जानता ही नहीं है। और ना ही मेरी बीमारी की कोई बात कर रहा है।

बड़ा दुःख है मेरा, और परसाई अंकल से बड़ी शिकायत है मुझे। उन्होंने इतिहास की सबसे बड़ी बीमारी को छुपाया है। अपने सपने में बुलाकर उनसे पूछूंगा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? हां ऐसे लोगों को अपने सपने में बुला लेता हूँ मैं अपनी इच्छा से। फिर खूब बुरा-भला कहता हूं उनको।

जब तक मैं उन पर हावी रहता हूँ तो ठीक है, पर जब वो मुझ पर हावी होने लगते हैं तो मैं उन्हें भगा देता हूँ। सपना तोड़ देता हूँ। एक बार मैने एक गांधी टोपी वाले चाचा को अपने सपने में बुला लिया। जब तक वो मेरे दबाव में रहे तब तक मामला जमा रहा। पर जब वो मुझ पर हावी होने लगे तो मैने उन्हें भगा दिया। सपना तोड़ दिया। मेरा सपना, मैने देखा, वो कौन होते हैं मुझ पर हावी होने वाले।

अब मैं परसाई अंकल को अपने सपने में बुलाऊंगा और उन्हें खूब भला-बूरा कहूंगा, खूब नाराजगी दिखाऊंगा। अब यहां दो बातें होंगी। अगर परसाई अंकल मुझसे नाराज़ नहीं हुए तो मैं उन पर हावी रहूंगा वो मेरे दबाव में रहेंगे। अगले दिन मैं सबको बताऊंगा की मैने परसाई अंकल को किसी मामले में दबा कर रखा, उन्हें खूब हड़काया। फिर खूब तौहीन होगी उनकी।

और अगर वो मुझ से नाराज़ हो गये तो वो मुझे भयंकर बीमार आदमी घोषित करेंगे। जितना ज्यादा बीमार उतना बड़ा नाम होगा मेरा। बड़े लेखक की कलम से बीमार होना बड़े ही सौभाग्य और गर्व की बात होती है। बस यही तो चाहता हूँ मैं।

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