कोरोना की भयावहता के बीच बेइंतहा मुनाफा बटोरतीं दवा कंपनियां
दवा निर्माता कंपनियां KOVID-19 को अपने धंधे के लिए सुनहरा मौका मान रही हैं, कहना है जेराल्ड पोजनर का, जिनकी पुस्तक Pharma : Greed, Lies, and Poisoning of America हुयी थी खासी चर्चित...
पीयूष पंत की टिप्पणी
जनज्वार। KOVID 19 महामारी से जहां पूरी दुनिया त्रस्त है वहीं दवा निर्माता कंपनियां इस त्रासदी में भी सुनहरा अवसर ढूंढ़ रही हैं। सच तो ये है कि कोरोनावायरस के प्रकोप के चलते दुनियाभर में उद्योग-धंधे बंद हो चुके हैं। दवा उत्पादन अकेला ऐसा उद्योग है जो न केवल चल रहा है, बल्कि मुनाफ़ा भी बटोर रहा है। कम से कम अमेरिका में तो यही हो रहा है।
दुनियाभर में 40 प्रयोगशालाओं में जहां वैज्ञानिक कोरोनावायरस की तोड़ के लिये वैक्सीन विकसित करने में लगे हैं, वहीं अमेरिका में दर्जनों कंपनियां इस होड़ में शामिल हो चुकी हैं कि कैसे मुनाफा कमाया जाये। "दवा निर्माता कंपनियां KOVID-19 को अपने धंधे के लिए सुनहरा मौका मान रही हैं ' ये कहना है जेराल्ड पोजनर का जिनकी पुस्तक Pharma : Greed, Lies, and Poisoning of America खासी चर्चित हुयी थी।
पोजनर का यह भी कहना है कि बिक्री और मुनाफ़े के स्तर पर यह वैश्विक संकट दवा उद्योग के लिये धमाकेदार रहेगा। महामारी जितनी फैलती जाएगी, इनका मुनाफ़ा उतना बढ़ता जाएगा। इसका कारण ये है कि अमेरिका में दवा निर्माता कंपनियों द्वारा दवाएं बनाने और उनका वितरण करने को लेकर सरकारी दिशा-निर्देश नहीं के बराबर होते हैं।
लिहाजा ये कंपनियां उपभोक्ताओं से मनमाना दाम वसूलती हैं, जबकि जो दवाएं ये बनाती और बेचती हैं उनके लिए किया गया शोध और परीक्षण सरकारी पैसे संचालित होता है, यानी कि करदाताओं के पैसे से।
वर्तमान में आये भयावह कोरोना संकट के दौर में इन दवा कंपनियों द्वारा और अधिक मुनाफा कमाने का मौक़ा इन्हें भाषा सम्बन्धी सेवाएं प्रदान करने वाले उद्योग द्वारा अधिक सरकारी फंड के लिए लॉबिंग करने के चलते मिल गया है। गौरतलब है कि हाल ही में अमेरिकी संसद द्वारा कोरोना से लड़ने के लिए 8.3 बिलियन डॉलर का पैकेज पास किया गया है।
खबरों के मुताबिक शुरुआत में ज़रूर सांसदों ने अमेरिकी सरकार पर दबाव डाला था कि सरकारी पैसे से विकसित किये गए कोरोनावायरस के इलाज और वैक्सीन से निजी कंपनियों को सीमित मुनाफा ही कमाने दिया जाये। फरवरी माह में अमेरिकी निचले सदन के सदस्य रिपब्लिकन पार्टी के सांसद शाकोवस्की और कुछ दूसरे सदस्यों ने भी राष्ट्रपति ट्रम्प को पत्र लिख कर मांग की थी कि अमेरिकी कर दाताओं के पैसे से खोजी गयी कोई भी दवा और वैक्सीन लोगों को आसानी से उपलब्ध हो और सस्ती हो।
उनका कहना था कि अगर दवा निर्माता कंपनियों को इन दवाओं के दाम तय करने, उनका वितरण करने और लोगों की सेहत से ज़्यादा खुद के मुनाफे को ध्यान में रखने का अधिकार दे दिया गया तो ये लक्ष्य पूरे नहीं हो पाएंगे।
लेकिन अंत में दवा कंपनियों के लिए जो पैकेज घोषित किया गया, उसमें उस भाषा का इस्तेमाल हटा दिया गया था जिसने दवा निर्माता कंपनियों के बौद्धिक सम्पदा अधिकार पर अंकुश लगा दिया था। इसमें से उन वाक्यों को भी हटा लिया गया था, जो अमेरिका की केंद्र सरकार को दवाओं के दाम नियंत्रित करने का अधिकार दे रही थी। पोजनर कहते हैं-"एक महामारी के दौरान इन कंपनियों को इस तरह की ताक़त मिल जाना बहुत खतरनाक है।"
सच तो ये है कि जनता की गाढ़ी कमाई से मुनाफ़ा कमाना अमेरिकी कंपनियों के लिये आम बात है। पोजनर कहते हैं कि 1930 के दशक से ही National Institutes of Health नई दवाओं के शोध पर 900 बिलियन डॉलर खर्च कर चुका है, जिसका इस्तेमाल दवा कंपनियों ने दवा के ब्रैंड को अपने नाम पेटेंट कराने में किया है।
Patients for Affordable Drugs नामक संस्था के अनुसार Food and Drug Administration द्वारा 2010 से 2016 के बीच पास की गयी प्रत्येक दवा की रिसर्च में करदाता का 100 बिलियन डॉलर खर्च हुआ था।
HIV के इलाज की दवा AZT और कैंसर की दवा Kymriah उन दवाओं में हैं, जिनकी खोज तो जनता के पैसों से की गई, लेकिन बेइंतहा कमाई दवा कंपनियों ने की। गौरतलब है कि Novartis कंपनी कैंसर की दवा Kymriah 475 हज़ार डॉलर में बेचती है।
इसी तरह हेपेटाइटिस सी बीमारी का इलाज करने के लिए खोजी गयी एंटी-वायरल दवा Sofosbuvin की शोध का खर्चा National Institutes of Health ने उठाया था, लेकिन इस दवा को अब Gilead Sciences नामक कंपनी 100 डॉलर प्रति गोली के हिसाब से बेचती है, जिसे खरीद पाना हर बीमार व्यक्ति के लिये संभव नहीं है।