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राजनीति

कारवां के संपादक ने बयान किया देश का सच तो बौखला गया आरएसएस का पूरा कुनबा

Prema Negi
24 July 2019 4:26 AM GMT
कारवां के संपादक ने बयान किया देश का सच तो बौखला गया आरएसएस का पूरा कुनबा
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भारत में विस्तार से तथ्यगत पत्रकारिता के लिए चर्चित पत्रिका 'कारवां' के संपादक विनोद जोस आमतौर पर भारतीय मीडिया खासकर अंग्रेजी या हिंदी में कहीं बोलते हुए नहीं देखे जाते, बावजूद इसके कारवां इंटरनेट पर सर्वाधिक प्रसारित होने वाली न्यूज वेबसाइटों में प्रमुख है। वजह है कारवां की धार। उसी धार की वजह से इन दिनों विनोद जोस आरएसएस के निशाने पर हैं।

10 और 11 जुलाई को ब्रिटेन और कनाडा सरकार ने लंदन में मीडिया स्वतंत्रता पर विश्व सम्मेलन का आयोजन किया था. इस सम्मेलन में 100 से अधिक देशों के 1500 से अधिक मंत्रियों, राजनयिकों, नेताओं, न्यायाधीशों, शिक्षाविदों और पत्रकारों ने भाग लिया. कारवां के कार्यकारी संपादक विनोद जोस को धर्म और मीडिया पर आयोजित चर्चा में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था. उस चर्चा में जोस ने दीर्घ अ​वधि की धार्मिक असहिष्णुता के कारण भारत के अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति बढ़ती हिंसा जो मुस्लिमों और दलितों की भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्या की बढ़ती घटनाओं में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं, पर बात की. जोस ने बताया कि एक हद तक अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति घृणा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक और हिन्दुत्व विचारधारा की शिक्षाओं का नतीजा है.

जोस की प्रस्तुति के बाद प्रसार भारती के अध्यक्ष सूर्य प्रकाश ने आरोप लगाया कि जोस गलत जानकारी दे रहे हैं. दर्शक दीर्घा से सूर्य प्रकाश ने कहा कि जोस की प्रस्तुति से भारत की छवि धूमिल हुई है, लेकिन प्रस्तुति को गलत बताने के बावजूद वह कोई गलती नहीं दिखा सके. कई भारतीय मीडिया संस्थानों ने श्री प्रकाश की टिप्पणी को आधार बनाकर रिपोर्ट छापी जिसमें दावा किया गया कि सूर्य प्रकाश ने जोस की टिप्पणी की निंदा की है. परंतु किसी भी संस्थान ने रिपोर्ट पर जोस की प्रतिक्रिया के लिए संपर्क नहीं किया.

जोस ने सम्मेलन के आयोजकों, फरवरी में आयोजित विश्व मीडिया सम्मेलन के आयोजक और प्रतिनिधि तथा ब्रिटेन सरकार के विदेश मंत्री जेरेमी हंट और कनाडा सरकार के विदेश मंत्री क्रिस्टिया फ्रीलैंड को पत्र लिखकर इस घटना से अवगत कराया है और भारत में मीडिया की स्वतंत्रता और मतविरोधियों के अधिकारों के हालातों पर प्रकाश डाला है.

पेश है जोस का लिखा पत्र—

पिछले सप्ताह लंदन में आयोजित विश्व मीडिया सम्मेलन अपने आप में एक अनोखा आयोजन था और आज जिस तरह के हालात दुनिया के कई देशों के हैं उस स्थिति में यह बहुत महत्वपूर्ण था. मैं निडर, स्वतंत्र और सिद्धांतों वाली मीडिया के सामाजिक मूल्य को उससे बेहतर शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता जो मुझे सम्मेलन के वक्ता के रूप में प्राप्त आमंत्रण पत्र में लिखा था :

“स्वतंत्र मीडिया, आर्थिक समृद्धि, सामाजिक विकास और ताकतवर लोकतंत्रों के लिए महत्वपूर्ण तत्व है. यह एक ऐसा अधिकार है जो मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद 19 में उल्लेखित है और सभी सरकारों ने इसके प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त की है.”

म्मेलन के दूसरे दिन आयोजित जिस पैनल चर्चा में मैंने भाग लिया उसका शीर्षक था- “धर्म और मीडिया : अनकही को कहना”. चर्चा में भाग लेते हुए मैंने खुशी और बेबाकी से आज के भारत में विचार, अभिव्यक्ति और विश्वास की स्वतंत्रता पर दिखाई पड़ने वाली मुख्य अड़चनों पर अपनी बात रखी. उस पैनल में राष्ट्र संघ की धर्म या विश्वास की स्वतंत्रता समिति के विशेष प्रतिवेदक और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के धर्म या विश्वास के विशेष दूत, वर्ल्ड वॉच मॉनिटर और मीडिया डायवर्सिटी संस्था के प्रतिनिधियों के साथ पाकिस्तान और होली सी के पत्रकार भी शामिल थे.

से हास्यास्पद ही कहा जाना चाहिए कि खुल कर और सच्चाई से मीडिया की स्वतंत्रता पर बात रखने के कारण भारत सरकार के प्रतिनिधियों ने मुझे डराने और बदनाम करने की कोशिश की. उनका प्रयास लचर और अप्रभावकारी था और इस मामले को वहीं भुला दिया जाना चाहिए था लेकिन भारत सरकार के अधिकारियों ने देश में इस मामले को तूल दिया. इसके बावजूद मैं यह कहना चाहता हूं कि मेरे मामले में सरकारी अधिकारी का रवैया देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होने वाले हमलों में शायद ही बहुत बड़ा हमला कहा जाए. सम्मेलन में लिंचिंग और लक्षित हत्याओं की बढ़ती घटनाओं पर मेरी प्रस्तुति से यह स्पष्ट हो जाता है. क्योंकि यह मामला उस सम्मेलन से जुड़ा है जिसका आयोजन आपने किया था इसलिए मुझे लगता है कि मुझे आपको इस बारे में अवगत कराना चाहिए ताकि आपको पता चल सके कि भारत में विरोध को किस तरह देखा जाता है और कैसा व्यवहार किया जाता है.

ससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि मैं इस बात को प्रकाश में ला सकूं कि मेरे साथ जो हुआ वह भारत में जारी चिंताजनक प्रवृत्ति का एक छोटा सा नमूना है. भारत सरकार और सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी का पितृ संगठन पूरी ताकत के साथ विरोध करने वालों को जनता के शत्रु के रूप में चिन्हित करने पर तुले हैं. यह विरोधियों को सताने और उन पर होने वाली संभावित हिंसा को वैधता प्रदान करने का जरिया है.

स सम्मेलन में उपस्थित एक वक्ता ने कहा था कि भारत कमजोर हो रहे ऐसे लोकतंत्रों में से एक है जो यह बात मानने को तैयार नहीं है. इसलिए भारत की सच्ची कहानी बताना पहले से अधिक जरूरी है.

म्मेलन में भारत का अनुभव साझा करते हुए मैंने अपनी बात लिंचिंग (हत्या) करते वक्त हत्यारी भीड़ द्वारा मोबाइल फोन से बनाए गए कुछ वीडियो दिखा कर शुरू की. सबसे ताजातरीन वीडियो कुछ सप्ताह पहले झारखंड में हुई एक मुस्लिम युवा की हत्या का था. इसके बाद मैंने 1984 से 2016 तक हुईं ऐसी घटनाओं के बारे में बताया- 4 दलित पुरुषों को एक जीप के सामने बांधकर पीटना, कंधमाल में ईसाईयों को लक्षित कर हत्या करना (लगभग 100 ईसाई मारे गए), तीन दशकों तक कुष्ठरोगियों के बीच काम करने वाले ऑस्ट्रेलियन मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बेटों को जिंदा जला दिया जाना, गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा (लगभग 2000 मुसलमान मारे गए) और दिल्ली में सिख नरसंहार (लगभग 2700 सिख मारे गए). मैंने दिखाया कि हिंसा की ये घटनाएं स्वतःस्फूर्त नहीं थीं बल्कि लंबे समय से व्यवस्थित तरीके से फैलाई गई धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत और असहिष्णुता का ही परिणाम थीं.

स हिंसा की गहरी ऐतिहासिक जड़ों को समझाने के लिए मैंने वी. डी. सावरकर और एम. एस. गोलवलकर के फासीवाद और नाजीवाद विचारों को बताया. सावरकर और गोलवलकर को हिंदुत्व का संस्थापक माना जाता है जो हिंदू राष्ट्रवादी संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), के वैचारिक मार्गदर्शक हैं. यह संगठन सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी सहित तमाम संबद्ध हिंदुत्ववादी संगठनों का संरक्षक संगठन है. 30 सालों तक आरएसएस का नेतृत्व करने वाले गोलवलकर, जिन्होंने भविष्य के दो प्रधानमंत्रियों को प्रशिक्षित किया, कहते थे कि कैसे “नाजियों द्वारा सीमेटिक नस्लें- यहूदी को मिटाया जाना हिंदुस्तान के लिए अच्छा सबक है और लाभदायक भी.” आरएसएस के संस्थापकों ने अपने संगठन को मुसोलिनी के बलीला और एवनगार्डिस्टी के रूप में खड़ा किया, यह बात इस संगठन के आरंभिक संरक्षकों में से एक की डायरी में बताई गई है जो राष्ट्रीय अभिलेखागार में आज भी उपलब्ध है.

सके बाद मैंने इस बात की चर्चा की कि कैसे हिंदू दक्षिणपंथ के उदय के साथ भारत के मुख्यधारा के मीडिया ने धार्मिक अल्पसंख्यकों और उत्पीड़ित जातियों पर हमला करने वालों की वैचारिकी और संगठनिक शक्ति पर बहुत कम पड़ताल की है या गंभीरता से काम नहीं किया है. मैंने अपनी बात यह कहते हुए खत्म की थी कि भारतीय न्यूज रूम में इन समूहों का प्रतिनिधित्व बेहद कम होने के चलते ऐसे हालात हैं. (15 फीसदी अगड़ी जातियों के लोग भारतीय मीडिया के 85 प्रतिशत पदों पर काबिज हैं और बाकी की जनता को केवल 15 प्रतिशत स्थान प्राप्त है.)

लंदन में आयोजित विश्व मीडिया सम्मेलन के दौरान कारवां के कार्यकारी संपादक विनोद के जोस (एकदम बाएं)

म्मेलन में मैंने अपनी प्रस्तुति खत्म की ही थी कि आखिरी पंक्ति में राष्ट्रीय प्रसारक प्रसार भारती के अध्यक्ष (चेयरमैन) सूर्य प्रकाश खड़े हो गए. उन्होंने बताया कि उनके साथ एक सांसद और एक प्रमुख पत्रकार आए हैं. उन्होंने कहा, “हम सभी को भारत पर की गई इस प्रस्तुति को लेकर गंभीर नाराजगी है. भारत दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे जीवंत लोकतंत्र है.” श्री प्रकाश ने मुझ पर भारत की छवि धूमिल करने का आरोप लगाया और यह भी कहा कि कुछ लोग ऐसे मंचों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए कर रहे हैं. उन्होंने यह भी कहा कि मेरी प्रस्तुति में तथ्यात्मक गलतियां हैं लेकिन वह एक भी गलती नहीं बता सके.

श्री प्रकाश के गुस्से को देखते हुए सम्मेलन के आयोजकों ने लंदन के मेरे प्रवास के दौरान मुझे सुरक्षा प्रदान करने पर जोर दिया. राष्ट्र संघ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझसे कहा कि एक अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत के सार्वजनिक प्रसारक के चेयरमैन का ऐसा व्यवहार देश में बढ़ती असहिष्णुता और नफरत, जिसका उल्लेख मैंने किया था, का व्यवहारिक प्रदर्शन है. उन्होंने मुझसे कहा कि यदि मुझे शरण चाहिए तो मुझे इसकी मांग करने से नहीं हिचकिचाना चाहिए. यह सुनकर मैंने हंसते हुए उन्हें जवाब दिया था कि इसकी जरूरत नहीं है. “जो जहां पैदा होता है उसे वहीं आखिरी सांस लेनी चाहिए”.

ब श्री प्रकाश अपने बारे में बता रहे थे तब उन्होंने यह नहीं बताया कि वह आरएसएस से संबद्ध थिंकटैंक विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के वरिष्ठ सलाहकार हैं. श्री प्रकाश भारत का बचाव नहीं कर रहे थे बल्कि वे अपने पितृ संगठन का बचाव कर रहे थे. आरएसएस के संस्थापक की फासीवाद से निकटता को छुपाने का प्रयास करते हुए वह उस घृणा के प्रवक्ता की तरह व्यवहार कर रहे थे जिसे मिटाने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय कटिबद्ध है. श्री प्रकाश के साथ जो लोग आए थे उनके नाम है- कंचन गुप्ता और स्वप्न दासगुप्ता. श्री प्रकाश ने यह नहीं बताया कि गुप्ता बीजेपी के वफादार हैं जो इस सदी के शुरू में पत्रकारिता छोड़ कर बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री के भाषण लिखने लगे थे. दासगुप्ता भी बीजेपी के निकट हैं और बीजेपी के सत्ता के आने के बाद उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया गया है.

मुझे लगा था कि यह मामला शांत हो गया है. लेकिन जैसे ही मैं शनिवार को भारत वापस आया मुझे पता चला कि राष्ट्रीय मीडिया में मेरे खिलाफ गलत और विद्वेषपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की गई हैं. राष्ट्रीय मीडिया श्री प्रकाश की पीआर एजेंसी की तरह काम करती है. एक स्थानीय समाचार एजेंसी ने एक रिपोर्ट लगाई जिसका शीर्षक था “प्रसार भारती के चेयरमैन ने भारतीय मैगजीन के संपादक द्वारा वैश्विक मंच से भारत विरोधी प्रस्तुति देने की निंदा की”. यह खबर इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू, डेक्कन हेराल्ड, द ट्रिब्यून और आउटलुक में प्रकाशित हुई हैं. ये सभी प्रख्यात राष्ट्रीय प्रकाशन हैं. साथ ही, इस रिपोर्ट को कई क्षेत्रीय भाषाई समाचार पत्रों ने भी प्रकाशित किया.

स रिपोर्ट में यह गलत दावा किया गया है कि मैंने 1984 के सिख नरसंहार में आरएसएस का हाथ होने का दावा किया था. सच तो यह है कि लंदन में मैंने तथ्यों के आधार पर कहा था कि सिख जनता की हत्या में कांग्रेस पार्टी और साथ ही आरएसएस के सदस्यों की भूमिका थी. मेरे खिलाफ प्रकाशित की गई रिपोर्ट का एजेंडा मुझे कांग्रेस पार्टी के एजेंट की तरह दिखाना था. इस रिपोर्ट के लेखकों ने मुझसे बात करने की कोशिश तक नहीं की और न ही इन लोगों ने लंदन के उस आयोजन की उपलब्ध रिकॉर्डिंग को देखने की जरूरत महसूस की. सरकारी समाचार प्रसारक ने, जिसकी अध्यक्षता स्वयं श्री प्रकाश करते हैं, अपने दो एपिसोड के कार्यक्रम में लंदन में मेरी प्रस्तुति की आलोचना की.

श्री प्रकाश ने मुझ पर भारत की छवि धूमिल करने का आरोप लगाया और यह भी कहा कि कुछ लोग ऐसे मंचों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए कर रहे हैं.

मैं इन प्रयासों से बहुत चिंतित नहीं था लेकिन इन संस्थाओं द्वारा पत्रकारिता की गंभीर मान्यताओं और निष्पक्षता का प्रदर्शन न करने से मुझे निराशा हुई और इन्हें लिखे पत्रों में मैंने यह बात स्पष्ट कर दी है. मेरे लंदन प्रवास के दौरान जिस एक समाचार ने मुझे असहज किया वह था जिसमें नागरिक अधिकार कार्यकर्ता अरुणा रॉय और निखिल डे ने लिखा था कि उन्हें “शहरी नक्सल” कह कर चिन्हित किया जा रहा है. इस शब्द को हिन्दू राष्ट्रवादियों के शब्दकोश में “भारत विरोधी” और “राष्ट्र विरोधी” के अर्थ में प्रयोग किया जाता है. जिस पुस्तिका में इसका उल्लेख है उसे आरएसएस के संगठनों ने बांटा है और इस संगठन के शीर्ष नेताओं ने इसका लोकार्पण किया है. रॉय और डे प्रशासन में जवाबदेहिता और पारदर्शिता को लेकर अभियान चलाने वाले लोग हैं और रॉय को रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. दोनों ने अपने नोट में लिखा है,

पुस्तिका में कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, शिक्षाविदों और न्याय के पक्ष में आवाज उठाने वालों पर अभद्र टिप्पणियां की गई हैं ...इस पुस्तिका में सत्ता, मनमानी और भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने वालों को राष्ट्र विरोधी कहा गया है ...यह पुस्तिका जानबूझ कर गलत तथ्य पेश करती है और इसके अधिकांश संदर्भ गलत हैं. यह पुस्तिका बदनाम करने वाली छवियों के साथ ऐसी भाषा और गलत तथ्यों का इस्तेमाल करती है जिससे लोगों को गुमराह किया जा सके.

मेरी चिंता तब और बढ़ गई जब मुझे पता चला कि जिस वक्त मैं सम्मेलन में भाग ले रहा था उसी समय सरकार ने प्रख्यात नारीवादी और मानवाधिकार कार्यकता अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह के आवास और कार्यालय पर छापेमारी की. यह सब एक बड़े पैटर्न का हिस्सा है. पिछले साल भीमा कोरेगांव में जाति विरोधी कार्यकर्ता के प्रदर्शन पर हिन्दुत्ववादी समूहों की हिंसा के बाद से सरकार ने अपने ढेरों विरोधियों को “शहरी नक्सल” होने के आरोप में गिरफ्तार किया है.

जिस किसी ने भी उत्पीड़न करने वाली सरकारों का अध्ययन किया है वे सरकार की इन कार्रवाइयों के उद्देश्यों को साफ समझ सकते हैं. लक्षित करना और जनता के शत्रु की तरह प्रयोजित करना, विरोधी समूह को सताने या उन पर संभावित हिंसा को जायज ठहराने को वैचारिक जामा पहनाता है और साथ ही अपने समूह के सदस्यों को संकेत देता है कि किन लोगों को जायज तौर पर हमले के लिए लक्षित किया जा सकता है. यह फासीवादी और नाजीवादी सत्ताओं के इतिहास से साफ है जिसे आरएसएस अपना आदर्श मानता है. अक्सर व्यक्तियों को लक्षित करना संपूर्ण धर्म, राजनीति और जातीय समूहों को बदनाम करने की शुरुआत भर होता है.

लंदन में श्री प्रकाश के दावों में बस एक दावा तथ्यगत रूप से सही है- भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. हालांकि यह भी सत्य है कि भारत दुनिया का ऐसा सबसे बड़ा देश है जिसमें एक बड़ी जनसंख्या लोकतंत्रिक व्यवस्था के द्वारा प्रशासित है. लेकिन इस संख्या से इतर देश में लोकतंत्र की स्थिति चिंताजनक है. भारत विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 140वें पायदान पर फिसल गया है. थॉमस रॉयटर्स न्यास ने भारत को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश बताया है- इस सूची में भारत युद्ध से जर्जर सीरिया और अफगानिस्तान से भी पीछे है. अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्था के विश्व हंगर (भूख) सूचकांक में भारत 103वें स्थान पर है.

विश्व बैंक की मानव पूंजी सूचकांक में भारत का स्कोर दक्षिण एशिया के औसत स्कोर से कम है. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत का स्थान 81वां है और वैश्विक लैंगिक अंतर् रिपोर्ट में वह 149 देशों में 142वां है. 180 देशों के वैश्विक पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में भारत 141वें स्थान से खिसक कर 177 पर आ गया है. पिछले महीने अमेरिका के अंतर्राष्ट्रीय धर्म स्वतंत्रता आयोग की रिपोर्ट में भारत धार्मिक अल्पसंख्यकों और उत्पीड़ित जातीयों की सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. भारत सरकार ने इस मूल्यांकन को यह कह कर खारिज कर दिया कि किसी भी विदेशी संस्था को ऐसा फैसला सुनाने का अधिकार नहीं है.

स सम्मेलन में उपस्थित एक वक्ता ने कहा था कि भारत कमजोर हो रहे ऐसे लोकतंत्रों में से एक है जो यह बात मानने को तैयार नहीं है. इसलिए भारत की सच्ची कहानी बताना पहले से अधिक जरूरी है. आज का भारत बहुधर्मी, बहु जाति और बहु भाषी समाज है जहां सभी संभावित प्रकार की विविधता है. इसे ऐसा बनाए रखने के लिए और 130 करोड़ की आबादी वाले देश में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में प्राप्त अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए अभिव्यक्ति, विचार और धर्म की स्वतंत्रता पर होने वाले हमलों से सभी लोगों का बचाव जरूरी है. मैं यहां लंदन सम्मेलन के साहित्य से एक लाइन का उल्लेख करना चाहता हूं- “हम सभी को बढ़ते हमलों को साथ मिलकर रोकना चाहिए. अपना काम करने के लिए किसी भी पत्रकार को अपने जीवन पर खतरे का भय नहीं होना चाहिए.”

लेकिन दुख की बात है कि भारत में आज बहुत से लोगों को यह डर सता रहा है. सम्मेलन में अपनी प्रस्तुति के अंत में मैंने अपनी बहुत अच्छी मित्र गौरी लंकेश के बारे में बताया था. वह एक कन्नड भाषा के अखबार की संपादक थीं जो निडर होकर सामाजिक अन्याय और हिंदू राष्ट्रवादियों की अति के बारे में समाचार प्रकाशित करती थीं. 2017 में गौरी लंकेश की हत्या उनके घर के बाहर कर दी गई थी. पूर्व में गौरी लंकेश और मैंने साथ मिलकर मुस्लिमों को लक्षित कर हत्या करने की रिपोर्ट की थी.

गौरी लंकेश के हत्यारे उस संगठन के सदस्य थे जिस पर हिंदुत्व विरोधी बुद्धिजीवियों की हत्या करने का शक है. इन हत्यारों ने पूछताछ करने वालों को बताया था कि उनकी बंदूक एक ऐसा जंतर है जो हिंदुत्व विरोधी ताकतों को मिटा देने में मददगार है. इन लोगों ने इसे हिंदू भगवान का अस्त्र बताया था. हालांकि मैं ऐसा सोचना नहीं चाहता लेकिन मुझे डर है कि अन्य पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का हश्र भी गौरी लंकेश की तरह हो सकता है.

मीडिया स्वतंत्रता पर वैश्विक सम्मेलन के मूल्यों के अनुसार मुझे आशा है कि आप और आपका कार्यालय इन गंभीर मामलों को सभी उपयुक्त मंचों पर उठाएगा और भारत सरकार को अवगत कराएगा कि आपकी नजर सरकार पर है. संभव है कि सरकार पत्र में अभिव्यक्त चिंताओं को खारिज कर दे लेकिन जो लोग स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में निहित मूल्यों को मानते हैं, वे जैसा की सम्मेलन का घोषित उद्देश्य है, हर जगह मीडिया स्वतंत्रता पर प्रकाश डालेंगे ताकि “इसके उल्लंघनकर्ता को भारी कीमत चुकानी पड़े.” भारत में दुनिया की 1/6 आबादी रहती है और एक दशक से भी कम समय में यह दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा. दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को लोकतंत्र बनाए रखने के लिए सभी प्रकार के प्रयास करना भारत की जनता का हक है.

(विनोद के जोस 'द कैरवैन' के कार्यकारी संपादक हैं.)

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