Begin typing your search above and press return to search.
जनज्वार विशेष

महामारी में बेतहाशा मुनाफा कमाने वाली कंपनियां बनीं गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक और ट्वीटर

Prema Negi
16 May 2020 8:03 PM IST
महामारी में बेतहाशा मुनाफा कमाने वाली कंपनियां बनीं गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक और ट्वीटर
x

कोविड 19 और सूचना प्रौद्योगिकी के दैत्य : नए जाल के साथ नया शिकारी

वैश्विक लॉकडाउन से प्रौद्योगिकी-दैत्यों यानी गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक और ट्वीटर को सबसे अधिक आर्थिक लाभ हुआ है। अर्थव्यवस्था गोते लगा रही है, लेकिन इन कंपनियों के शेयर नित नई ऊंचाईयों को छू रहे हैं, इस महामारी के दौरान उनकी कुल संपत्ति में भी बेतहाशा इजाफा हो रहा है...

ऐसी कोई भी बात को जो लॉकडाउन और वैक्सीन की आवश्यकता को कम करके बताए, वह या तो सोशल-मीडिया से गायब हो गई, या फिर उनकी रीच खत्म कर दी गई, क्यों हो रहा है ऐसा और सूचना प्रौद्योगिकी के दैत्यों ने किस तरह जमाया है पूरे विश्व पर कब्जा, विस्तार से अपने महत्वपूर्ण लेख में बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद रंजन...

जनज्वार। “शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, जाल में फंसना नहीं।” हम सबने बचपन से ही यह लोक-चेतावनी और जाल बिछाने वाले शिकारी और इस शिक्षा का जाप करते पक्षियों के उसमें फंसने की कहानी सुनी है। हम यह भी वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि सूचना-युग आ चुका है और आने वाले विश्व-युद्ध हथियारों से नहीं सूचनाओं से लड़े जाएंगे।

मने सोचा था कि चूंकि हम शिकारी और जाल वाली कहानी सुन चुके हैं, इसलिए हम तो सूचनाओं के जाल में नहीं फंसेंगे। शायद हमने सोचा था कि युद्ध तो देश लड़ा करते हैं। सूचनाओं का युद्ध भी देशों के बीच होगा। अगर वह कभी हुआ भी तो एक नागरिक के रूप में हमारा काम तो सिर्फ अपने देश के पक्ष में नारा लगाना रहेगा।

सलिए पिछले दशक के उत्तरार्ध में जब सूचनाओं का विश्व-युद्ध शुरू हुआ तो हमें पता ही नहीं चला। हममें से अधिकांश आज भी नहीं जानते कि वे सूचनाओं के हमलों से लहूलुहान हो रहे ऐसे सिपाही हैं, जिसने अभी लड़ना शुरू भी नहीं किया है।

शिकारी बदल चुका है और जाल का रंग भी। यह युद्ध तात्कालिक रूप से उस तरह सुनियोजित नहीं है, जिस तरह दृश्य हथियारों से लड़े जाने वाले पहले के युद्ध हुआ करते थे।

से समझने के लिए हमें कोविड-19 के सहारे तेज हुए इस युद्ध को उपलब्ध तथ्यों के सहारे दृश्यमान करने की कोशिश करनी होगी।

कुछ तो गड़बड़ है

दुनियाभर में करोड़ों लोग महसूस कर रहे हैं कि कोविड 19 के बारे में कुछ ऐसा है, जो उनकी पकड़ में नहीं आ रहा है। इस बीमारी को जितना भयंकर बताया जा रहा है, शायद उतनी यह है नहीं। करोड़ों लोग महसूस कर रहे हैं कि अगर यह बीमारी भयंकर है, तब भी लॉकडाउन शायद उचित नहीं है। उन्हें अपने आसपास सिर्फ कोविड से असमय मरता हुआ व्यक्ति ही नहीं दिख रहा; जबकि लॉकडाउन के कारण मरने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, बल्कि अनेक लोगों के ऐसे परिजनों, मित्र-परिचितों की मौतें भी दिख रही हैं, जो अगर लॉकडाउन नहीं होता तो शायद बच सकते थे।

भारत में फेसबुक के हैं सर्वाधिक यूजर

दुनियाभर में करोड़ों लोग शहरों को छोड़ने के लिए मजबूर हुए हैं। हज़ारों लोग भूख और थकान से मर रहे हैं। आत्महत्या करने वालों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। करुणा और बंधुत्व का लोप हो रहा है। बिना इलाज के गैर-कोविड रोगों से मरने वाले ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है, जो आवागमन के साधन और अस्पताल बंद नहीं होते तो, आज हमारे साथ होते।

जाति-व्यवस्था से ग्रसित भारत में तो इसने पिछले कई सौ वर्षों में घटित सामाजिक क्रांति के कदमों को पीछे की ओर मोड़ दिया है। भारत में शहरों की भूमिका पिछड़े और दलितों के मुक्तिदाता के रूप में उभरी थी, जहां वे गांवों के अपमानजनक सामाजिक-आर्थिक जीवन से दूर छांव पाने आते थे। यह युद्ध करोड़ों पिछड़ों-दलितों को वापस उसी कृषि व्यवस्था में धकेल रहा है, जहां खेती-योग्य ज़मीन पर उनका नाममात्र का हक है।

लेकिन हमें सूचना देने वाले तमाम तंत्र एक सुर में संकेत कर रहे हैं कि कोविड इतिहास की सबसे भयंकर बीमारी है। हजारों लोगों को रोज इसका संक्रमण हो रहा है, सैकड़ों रोज इससे मर रहे हैं। लॉकडाउन के अलावा इससे बचने का कोई तरीका नहीं है। हमें इससे बचने के लिए मनुष्य की आजादी को सीमित करने वाले, उसके अधिकारों को छीनने वाले, उसे क्रूर बनाने वाले कानूनों को स्वीकार करना ही होगा।

न सूचनाओं और निर्देशों पर संदेह करने वाले भारत समेत, तीसरी दुनिया के ऐसे वासी भी हैं, जो अपने संस्थागत मीडिया-समूहों और सरकार को संदेह की नजर से देखते हैं। लेकिन जब वे पाते हैं कि सिर्फ उनकी देश की सरकार ने ही नहीं, बल्कि दुनिया के अधिकांश देशों की सरकारों ने भी ऐसे ही कदम उठाए हैं, ताे अपने संदेह पर से उनका विश्वास हिल जाता है। जब वे पाते हैं कि सूचनाओं और विचारों के वैकल्पिक स्रोत के लिए उनका सबसे प्रिय साथी - इंटरनेट आधारित सोशल-मीडिया भी वही बातें बोल रहा है, जो मुख्यधारा के मीडिया-संस्थान बोल रहे हैं। तो, उनके पास अपने संदेहों को परे कर देने के अलावा कोई चारा नहीं रहता।

माजरा क्या है?

सका मुख्य कारण है कि सोशल-मीडिया प्लेटफार्मों और सर्च इंजनों द्वारा मतभिन्नता की आज़ादी को सीमित कर देना। इन प्लेटफार्मों ने ऐसे नियम बनाए हैं, जिससे कोविड के भय को बेतहाशा बढ़ाने वाली सामग्री लोगों तक पहुंच रही है। भय को वास्तविक खतरे के अनुपात में रखने, अथवा भय को कम करने वाली सामग्री की पहुंच बहुत कम हो गई है।

तभिन्नता की आज़ादी, जिसे हम आज सामान्य तौर पर अभिव्यक्ति की आज़ादी कहते हैं, के खिलाफ हमारे वे ही मित्र विरोधी खेमे में हैं, जिनके आने के बाद से हम इस आज़ादी का उत्सव मना रहे थे।

कोरोना की मार सह रहा मजदूर वर्ग

व्यापार की दुनिया में हमारे इन मित्रों को गाफा (GAFA) के नाम से जाना जाता है। यह गूगल, एप्पल, फेसबुक और अमेजन के पहले अक्षरों के प्रयोग से बना संक्षिप्त नाम है, जिसका उपयोग सबसे पहले फ्रांस में, तकनीक की इन दिग्गज अमेरिकी कंपनियों की ताकत और खतरे को व्यक्त करने के लिए किया गया। बाद में इस शब्द की ज़द में आधुनिक समय के सूचना तंत्र को नियंत्रित करने वाली माइक्रोसॉफ्ट, ट्वीटर समेत कुछ और बड़ी कंपनियां भी आने लगीं। इन्हें ही टेक जायंट्स या बिग टेक- यानी “सूचना प्रौद्योगिकी का दिग्गज” भी कहा जाता है। हालांकि इनके लिए जायंट्स का ज्यादा प्रचलित हिंदी अनुवाद - “दैत्य” का प्रयोग अधिक प्रासंगिक है।

क मोटे अनुमान के अनुसार आज विश्व के सूचना-तंत्र का कम से कम 95 फीसदी हिस्सा इन दैत्य-कंपनियों (गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक और ट्वीटर) के कंधों पर टिका हुआ है।

न प्रौद्योगिकी-दैत्यों के जन्म की कहानी एलोगरिथम के विकास की कहानी से जुड़ी हुई है, जिसने मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (कृत्रिम बुद्धि) को जन्म दिया है। एलोगरिथम के इस्तेमाल से इन्होंने अपने सोशल मीडिया व सर्च-इंजन जैसे उत्पादों को इस प्रकार विकसित किया है, जिससे उसके उपभोक्ता अपने-अपने ईको-चैंबर में कैद रहें।

पनी और समान विचारों के समर्थकों की आवाज़ों की गूंज वाले ये ईको-चैंबर्स इस प्रकार बनाए गए हैं कि उपभोक्ता को सूचनाओं के खुले आसमान में होने का भ्रम होता है, जबकि वास्तव में इन ईको-चैंबरों में बाहर की आवाज़ न पहुंचने देने के लिए कई किस्म की पाबंदियां हैं।

सी प्रकार अपने ईको-चैंबर से आवाज़ बाहर भेजना भी उतना ही कठिन है। यही कारण है कि भारत जैसे देशों में इन ईको-चैंबराें ने धार्मिक व्यक्ति को तेजी से धर्मांध और जाति-मुक्ति की लड़ाई लड़ने वाले व्यक्ति को तेजी से जातिवादी बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इन ईको-चैंबरों के लिए एलोगरिथम विकसित करते हुए इन कंपनियों ने सबसे अधिक मनुष्य की आदिम आवश्यकताओं और मनोविज्ञान को ख्याल में रखा है।

सके माध्यम से एक सामान्य उपभोक्ता तक सिर्फ वही सूचनाएं पहुंचती हैं, जिन्हें उसका चेतन अथवा अवचेतन मन पाना चाहता है। भय, जुगुप्सा, काम आदि ऐसे आदिम भाव हैं, जो चाहे-अनचाहे मनुष्य का ध्यान सबसे अधिक आकर्षित करते हैं।

ही कारण था कि इस साल फरवरी-मार्च में सांख्यिकीय संभावना मॉडलों (statistical probability models) पर आधारित कोविड 19 से होने वाली ‘संभावित’ मौतों के आंकड़े सोशल-मीडिया और सर्च-इंजनों के एलोगरिथम के कंधों पर सवार होकर बहुत तेजी से दुनिया के अधिकांश मस्तिष्कों पर दस्तक देने लगे। इंटरनेट की दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता मध्यम वर्ग इन आंकड़ों से थर्रा उठा।

हालांकि यह उतना अनायास नहीं था, जितना कि पहली नज़र में लगता है।

इंटरनेट पर सर्च इंजनों के सहारे कोविड 19 के बारे में वैकल्पिक मतों तक पहुँचना बहुत कठिन काम

इस थर्राहट को सघन बनाने में इन कंपनियों द्वारा अपने एलोगरिथम में किया गया फेरबदल जिम्मेवार था। आज हालत यह हो गई है कि इंटरनेट पर सर्च इंजनों के सहारे कोविड 19 के बारे में वैकल्पिक मतों तक पहुँचना बहुत कठिन बना दिया गया है। सोशल मीडिया पर सक्रिय विशेषज्ञ, राजनेता अथवा कार्यकर्ता अगर कोविड 19 के बारे में कोई ऐसा मत प्रकट करते हैं, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मत से मेल नहीं खाता, तो या तो उसे हटा दिया जाता है, या फिर उसके स्वचालित “रीच” (पहुंच) को खत्म कर दिया जाता है।

उनकी इस कवायद को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध उन तथ्यों के आलोक में भी देखे जाने की जरूरत है, जो इन प्रौद्योगिकी-दैत्यों के दवा और वैक्सीन व्यापार से जुड़ी दैत्याकार कंपनियों से अवैध गठबंधन की ओर इशारा करते हैं। टेक जायंट्स की भांति ही इन दवा कंपनियों के समूह को बिग फार्मा के नाम से जाना जाता है।

रिपोर्टें बताती बताती हैं कि इस वैश्विक लॉकडाउन से इन प्रौद्योगिकी-दैत्यों को सबसे अधिक आर्थिक लाभ हुआ है। अर्थव्यवस्था गोते लगा रही है, लेकिन इन कंपनियों के शेयर नित नई ऊंचाईयों को छू रहे हैं, इस महामारी के दौरान उनकी कुल संपत्ति में भी बेतहाशा इजाफा हो रहा है। चूंकि नई स्थितियों में कामकाज के लिए इन प्लेटफार्मों पर निर्भरता तेजी से बढ़ेगी, इसलिए आने वाले समय में ये दुनिया की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर शिकंजा कड़ा करने की स्थिति में होंगे।

ही कारण है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के आर्थिक सलाहकार, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जेसन फुरमान ने भी इन कंपनियों पर तत्काल लगाम कसने की जरूरत बताई है। उनका भी मानना है कि कोरोना वायरस इन कंपनियों पर दबाव को और कम कर देगा और ये अर्थव्यवस्था पर हावी हो जाएंगी।

कोविड 19 के अनुपातहीन भय से सबसे अधिक लाभान्वित होने वालों में दूसरा स्थान वैक्सीन के कारोबार में लगे बिग फार्मा का है। जैसा कि पत्रकार व “फार्मा : ग्रीड, लाइज, एंड द प्वाइजनिंग ऑफ अमेरिका” के लेखक जेराल्ड पोज़नर कहते हैं कि “फार्मास्युटिकल्स कंपनियां कोविड : 19 को, जीवन में एक बार मिलने वाले व्यापारिक मौके के रूप में देख रहीं हैं। यह वैश्विक संकट बिक्री और मुनाफ़े के मामले में इस उद्योग के लिए एक ब्लॉकबस्टर होगा। महामारी जितनी घातक होती है, उन्हें उतना ही अधिक लाभ होता है।”

हालांकि इन तथ्यों के देखने के बावजूद यह सवाल बना रहेगा कि विश्व की मज़लूम जनता के खिलाफ छिड़े इस युद्ध में आक्रमणकारी खेमे में और कौन-कौन है? सूचना-प्रोद्योगिकी के ये दैत्य इस युद्ध के मुख्य खिलाड़ी हैं, या किसी और के सेनापति और सिपाही? भारत समेत विभिन्न देशों की सरकारें इस युद्ध में मौका देखकर उन खिलाड़ियों की फिफ्थ कॉलम कैसे बन गई हैं?

कोरोना-काल पर केंद्रित आगामी लेखों में इनमें से भी कुछ प्रश्नों के उत्तर विस्तार से रखने की कोशिश करूँगा। साथ ही, एक अलग लेख में मैं यह भी बताने की कोशिश करूंगा कि दवा और वैक्सीन व्यापार से गाफा (GAFA) की रुचि और हित क्यों और कैसे जुड़े हुए हैं। पिछले कुछ चार-पांच वर्षों में इस व्यापार में गाफा की दिलचस्पी पागलपन की हद तक बढ़ी है।

फिलहाल, इस लेख में हम देखेंगे कि किस प्रकार कोरोना के भय को कम करने वाली, इसकी भयावहता पर सवाल उठाने वाली खबरों को सेंसर किया जा रहा है तथा उस विश्व स्वास्थ संगठन की विश्वसनीयता कितनी है, जिसके कंधे पर बंदूक रखकर यह सब हो रहा है।

गूगल सर्च-इंजन और यूट्यूब

इंटरनेट पर किसी भी सूचना तक पहुंचने के लिए दुनिया के अधिकांश लोग आज गूगल सर्च इंजन का सहारा लेते हैं। सर्च इंजन के वैश्विक बाजार में गूगल की हिस्सेदारी 91.89 प्रतिशत है, जबकि भारत में 98.5 प्रतिशत लोग गूगल सर्च इंजन का प्रयोग करते हैं।

पने सर्च इंजन व यूट्यूब जैसे प्रोडक्टों के कारण यह फेसबुक, ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों की तुलना में कई गुणा अधिक प्रभावी है।

गूगल ने यूरोप में लॉकडाउन की शुरूआत होते ही कोरोना वायरस से संबंधित कथित भ्रामक सामग्री को अपने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और एलोगरिथम के सहारे कड़ाई से ब्लॉक करना और फाल्स न्यूज के रूप में चिह्नित करना आरंभ कर दिया। ऐसी कोई भी सामग्री जिसे गूगल ने फाल्स न्यूज के रूप में चिह्नित कर दिया हो, उसका लोगों तक पहुँचना बहुत कठिन हो जाता है, क्योंकि उसका सर्च इंजन उसे पीछे धकेल देता है।

हां तक कि गूगल ने अपने प्लेस्टोर पर भी सेंसरिशप लागू कर दी, जिसका नतीजा यह हुआ कि कई देशों व महत्वपूर्ण संस्थाओं द्वारा जारी कोविड 19 से संबंधित एप भी ब्लॉक हो गए।

गूगल की संस्था यूट्यूब ने भी यही किया। उसने उन सभी वीडियो को हटाना शुरू कर दिया, जो विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा कही गई किसी भी बात के खिलाफ हो।

यूट्यूब की सीईओ सुसान वोज्स्की ने एक साक्षात्कार में कहा कि “यूट्यूब कोरोना वायरस से संबंधित उन सभी वीडियो को अपने प्लेटफार्म से हटाएगा, जिससे किसी प्रकार की समस्या पैदा होती हो... ऐसा कुछ भी, जो मेडिकल साइंस द्वारा प्रमणित नहीं हो, जैसे विटामिन-सी या हल्दी से वायरस से बचाव होने की बातें आदि हमारी नीतियों का उल्लंघन करती हैं।..ऐसी कोई भी चीज जो विश्व स्वास्थ संगठन की अनुशंसा के खिलाफ जाती हो, वह हमारी नीतियों के भी खिलाफ होगी।”

स प्रकार यूट्यूब ने अपने दर्शकों को विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे विवादित संस्था की बातों को वेदवाक्य मानने को विवश कर दिया। चूंकि यूट्यूब आज अनेक प्रमुख समाचार चैनलों के प्रसारण का भी एक महत्वपूर्ण ज़रिया है, इसलिए सभी यूट्यूब पर ऐसी बातों का प्रसारण करने से बचने लगे, जो कोरोना वायरस के बारे में कोई भी ऐसी राय रखे जो विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय के खिलाफ हो। फॉक्स न्यूज़ समेत अनेक स्वतंत्र मीडिया संस्थानों ने यूट्यूब की इस पॉलिसी की निंदा करते हुए कहा कि उसने विश्व स्वास्थ्य संगठन को अपना गॉसपल (ईसा मसीह का सुसमाचार) बना लिया है।

अमेरिका की चर्चित राजनेता और राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार रहीं एलिजाबेथ वारेन

ट्वीटर और फेसबुक

ट्विटर ने भी कोरोना महामारी के बारे में “आधिकारिक” तथ्यों के खिलाफ जाने वाले ट्वीट को मशीन लर्निंग और ऑटोमेशन के जरिए हटाया। इनमें से एक वीडियो-ट्वीट भारतीय अभिनेता और राजनेता रजनीकांत का भी था, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री द्वारा आहूत 14 घंटे के जनता-कर्फ्यू की अपील को उचित बताते हुए कहा था कि “वायरस के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए 14 घंटे की सामाजिक दूरी आवश्यक है।” लेकिन ट्वीटर के आर्टिफिशयल इंटेलीजेंस ने उनकी इस बात को शायद इसलिए अवैज्ञानिक पाया क्योंकि डब्लूएचओ की गाइडलाइन के अनुसार 14 घंटे की सामाजिक दूरी वायरस से बचाव के लिए पर्याप्त नहीं है।

ट्वीटर ने एक ब्लॉग पोस्ट में स्वयं बताया भी है कि उसने जनवरी में विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा नए वायरस की बीमारी को कोविड : 19 नाम देने से छह दिन पहले ही अपने सिस्टम में बदलाव शुरू कर दिया था, ताकि “जब आप इसके बारे में जानकारी के लिए हमारे प्लेटफार्म पर आएं तो आपको अपनी खोज के शीर्ष पर विश्वसनीय, आधिकारिक सामग्री (डब्ल्यू.एच.ओ. द्वारा प्रदत्त!) ही मिले।”

फेसबुक दुनिया के तीन सबसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफार्मों (फेसबुक, व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम) का स्वामी है। इनमें से दो - फेसबुक और व्हाट्सएप के, दुनिया में सबसे ज्यादा उपभोक्ता भारत में हैं। भारत में लगभग 28 करोड़ लोग फेसबुक इस्तेमाल करते हैं और 40 करोड़ व्हाट्सएप।

फेसबुक ने अपने प्लेटफार्मों (फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप) से कोरोना वायरस के बारे में प्रसारित कथित गलत सूचनाओं की जांच के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और एलोगरिथम के अतिरिक्त भी सैकड़ों लोगों की व्यवस्था की तथा उन पोस्टों को कम करने, हटाने व उन अकाउँटों को स्थाई रूप से मिटा देने का फैसला किया जो इस महामारी की भयंकरता पर सवाल उठा रहे थे और इसे हर साल करोडों लोगों की जान लेने वाली अन्य संक्रामक और गैर संक्रामक बीमारियों के सापेक्ष देखने के पक्षधर थे।

नमें उन लोगों के एकाउंट शामिल थे, जो या तो वायरस को कम खतरनाक मानते थे, इसके टेस्ट के लिए बनाए गए किट को अवैज्ञानिक मानते थे, या इस महामारी से निपटने के लिए अलग तरीकों के पक्षधर थे। इनमें ऐसे भी अनेक थे, जो कोरोना वायरस के अस्तित्व पर ही सवाल उठा रहे थे, तथा इसे बिल मिलिंडा गेट्स फाऊंडेशन और बिग फार्मा के वैक्सीन-व्यापार से जोड़कर देख रहे थे। इन पोस्टों के कारण कुछ जगहों पर तोडफोड और कुछ जगहों पर लोगों की मौत की भी खबरें आईं थीं।

स आशय की करोड़ों पोस्टों को डिलीट करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और एलोगरिथम का इस्तेमाल किया गया। हालांकि इस दौरान उन्होंने नस्ली भेदभाव वाली कुछ टिप्पणियों को भी डिलीट किया, लेकिन आर्टिफिशियल इंटलीजेंस के लिए पोस्टों में व्यक्त नस्ली नफरत के भाव को पकड़ना संभव नहीं है, इसलिए अधिक बल विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा व्यक्त तथ्यों के विरोध में जाने वाली पोस्टों, ट्वीट और वीडियो को चिन्हित करने पर रहा।

1000 किलोमीटर की दूरी एक मां ने अपने दिव्यांग बेटे के साथ ऐसे की तय (file photo)

स क्रम में लंदन के पत्रकार डेविड आइक, कैलीफोर्निया के डॉ. राशिद ए. बट्टर, भारत में प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचारक डॉ. विश्वरूप चौधरी, अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के दलित डॉक्टर शिवा समेत हजारों लोगों के पोस्ट और वीडियो फेसबुक व अन्य प्लेटफार्मों से डिलीट हो गए। इनमें अनेक कोरोना सेंटरों के डाक्टर, चिकित्सा विशेषज्ञ, प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। उन्हें कांस्पिरेसी थ्योरिस्ट कह कर लांछित किया गया।

फेसबुक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी, अमेरिकी अरबपति शेरिल सैंडबर्ग ने तो यहां तक कहा कि अगर ज़रूरत पड़ी तो राजनेताओं, सेलेब्रेटीज की पोस्टों और यहां तक कि प्राइवेट ग्रुप में भी भेजे गए पोस्टों को डिलीट किया जाएगा। ये वही शेरिल हैं, जिनका नाम कैम्ब्रिज एनालिटिका डेटा स्कैंडल में सामने आया था। उन पर फेसबुक की ताकत का अनैतिक इस्तेमाल करके अमेरिकी चुनावों को प्रभावित करने के आरोप हैं।

शेरिल सामाजिक सरोकारों के लिए नहीं, बल्कि किसी भी कीमत पर व्यापारिक लाभ की वकालत के लिए जानी जाती हैं। स्वास्थ्य-व्यापार से भी उनका गहरा जुड़ाव रहा है। फेसबुक में आने से पहले वे भारत में एड्स, कोढ़ और अंधेपन के निदान के लिए विश्व बैंक द्वारा चलाई गई स्वास्थ्य-परियोजना में भी कार्यरत रही हैं।

फेसबुक, ट्वीटर और गूगल ने इस दौरान कोरोना के भय को कम करके आंकने वाले ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोल्सनारो, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जैसे लोगों की बातों को भी भ्रामक कह कर डिलीट भी किया। इससे पहले फेसबुक, ट्वीटर व अन्य प्लेटफार्मों की नीति प्रमुख राजनेताओं के वक्तव्यों को सेंसर नहीं करने की रही थी।

वोल्सनारो ने अपने एक भाषण में कहा था कि मलेरिया निरोधी दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन कोविड-19 का एक प्रभावी उपचार है, जिसे उनके सोशल मीडिया अकाउंटों पर भी डाला गया था। हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को अनेक विशेषज्ञों ने कोविड 19 के उपचार के लिए उपयोगी बताया है। पिछले दिनों अमेरिका ने भी भारत से इस दवा की मांग की थी। दरअसल, हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन ही नहीं, ऐसी कोई भी बात को जो लॉकडाउन और वैक्सीन की आवश्यकता को कम करके बताए, वह या तो सोशल-मीडिया से गायब हो गई, या फिर उनकी रीच (पहुंच) खत्म कर दी गई।

न प्लेटफार्मों ने मशीन लार्निंग तकनीक के माध्यम से कोरोना वायरस, लॉकडाउन, विश्व-स्वास्थ्य संगठन, देशी सरकारों द्वारा जारी गाइड-लाइन पर सवाल उठाने वाली पोस्टों को देखने वाले लोगों को चेतवानी भी दिखानी शुरू की। स्वयं फेसबुक द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार इस चेतावनी को देखने के बाद 95 प्रतिशत मामलों में लोगों ने उन पोस्टों को पढ़ने से परहेज किया।

सकी आलोचना होने के बाद पिछले सप्ताह फेसबुक ने एक वैश्विक निगरानी समिति समिति गठित की है। फेसबुक के पैसे से चलने वाला यह बोर्ड कथित तौर पर फेसबुक के सभी प्रकार के व्यावसायिक हितों से स्वतंत्र होगा। फेसबुक और इंस्टाग्राम से कंटेंट हटाए जाने पर अब लोग फेसबुक के इस अपने "सुप्रीम कोर्ट" में अपील कर सकेंगे। उसके इस “कोर्ट” का फैसला अंतिम होगा।

डब्ल्यू.एच.ओ., बिग फार्मा और गाफा

7 अप्रैल, 1948 को यूनाइटेड नेशन की एजेंसी के रूप में स्थापित विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) पिछले कुछ वर्षों से विवादों में है। उस पर फार्मास्युटिकल्स कंपनियों, वैक्सीन निर्माताओं और बिल मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन के दबाव में काम करने के आरोप लगातार लग रहे हैं।

ब्ल्यू.एच.ओ. के मौजूदा डायरेक्टर जनरल टेड्रोस अदनोम घेब्रेयसस इथियोपिया के स्वास्थ्य मंत्री रहे हैं, जो “डॉ. टेड्रोस” के नाम से जाने जाते हैं। डॉ. टेड्रोस की पहचान एक ऐसे कम्युनिस्ट के रूप में है, जो “किसी के भी साथ काम कर लेने की प्रतिभा से लैस” हैं। चीन को लेकर उनकी पक्षधरता और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन की फंडिंग रोके जाने से प्राय: सभी परिचित हैं।

कोविड 19 के नामकरण की घोषणा के बाद से डॉ. टेड्रोस ने जिन दो चीजों पर सबसे अधिक बल दिया है, वह था टेस्ट और सॉलिडेटरी (एकजुटता)। वे कोविड-19 को लेकर की जाने वाली नियमित प्रेस ब्रीफिंग में इन शब्दों को तीन बार दुहराते रहे हैं– “टेस्ट, टेस्ट, टेस्ट, सॉलिडेटरी, सॉलिडेटरी, सॉलिडेटरी।”

राेगी के निदान के बजाय, स्वस्थ लोगों का टेस्ट करवाने की उनकी नीति पर भविष्य में अवश्य सवाल उठेंगे। आखिर, एक ऐसी बीमारी में, जिसमें स्वयं उनके अनुसार 80 फीसदी लोगों को कोई लक्षण ही नहीं दिखेंगे, तथा जिनमें लक्षण दिखेंगे भी, उनमें से अधिकांश स्वयं 12-14 दिन में ठीक हो जाएंगे, उनके टेस्ट पर इतना अधिक बल क्यों दिया गया? यह तो स्वयं डॉ. टेड्रोस को भी पता था कि दुनिया के 7 अरब लोगों का टेस्ट नहीं किया जा सकता। तो, फिर कुछ लोगों के रैंडम टेस्ट से वे दुनिया को भय के अलावा क्या दे रहे हैं?

(प्रतीकात्मक फोटो)

न पंक्तियों के लिखे जाने तक टेस्ट का यह सिलसिला जारी है, वह भी तब जबकि अधिकांश विशेषज्ञों की राय है कि कोरोना के टेस्ट की मौजूदा पद्धति बड़ी संख्या में गलत परिणाम दे रही है।

हाल ही में तंजानिया में बकरी और पपीता के भी कोरोना संक्रमित होने की खबर आई। तंजानिया के राष्ट्रपति जॉन मैगुफुली रसायन शास्त्र में पीएच.डी. हैं, उन्होंने विश्व के अन्य देशों की ही तरह अपने देश में कड़ा लॉकडाउन करने से परहेज रखा है। लेकिन पिछले एक महीने में तंजानिया में कोरोना वायरस के मामले 20 से बढकर 480 हो गए, तो मैगुफुली चौंके। उन्होंने कुछ फलों, सब्जियों और जानवरों से लिए गए सैंपल, काल्पनिक मनुष्यों के नाम और उम्र के साथ, जांच के लिए भेज दिए। इनमें पपीता और बकरी का टेस्ट रिजल्ट कोरोना पॉजेटिव आने के बाद उन्होंने अपनी राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रयोगशाला के प्रमुख को बर्खास्त कर दिया है तथा ख़बरें आ रही हैं कि उन्होंने डब्ल्यू.एच.ओ. को देश छोड़ने के लिए कहा है।

सिर्फ अनावश्यक टेस्ट ही नहीं, कोविड 19 से होने वाली मृत्यु के आंकड़े जमा करने के लिए भी जो गाइडलाइन डब्ल्यू.एच.ओ. ने जारी की, वह भी इस संक्रमण के भय को येन-केन-प्रकारेण बढ़ाने की ही कवायद है।

पिछले 11 मई को, डब्ल्यू.एच.ओ. की उसी गाइडलाइन का पालन करते हुए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) ने भी कोविड 19 से होने वाली मौतों के आंकड़ों के संग्रह के लिए नए निर्देश जारी किए हैं।

निर्देश में कहा गया है कि cardiac injury (हृदय की चोट), clotting in the bloodstream (रक्त प्रवाह में थक्का जमना), न्यूमोनिया आदि अनेक कारणों से होने वाली मौतों को कोविड-19 से हुई मौत के रूप में दर्ज किया जाएगा। चाहे, उनकी जांच हुई हो अथवा नहीं, चाहे वे जांच में निगेटिव ही क्यों न आए हों।

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने सभी अस्पतालों, स्वास्थ्य केंद्रों, चिकित्सकों को निर्देश दिया है कि अगर किसी ऐसे व्यक्ति की मौत होती है, जिसका कोरोना टेस्ट का परिणाम दुविधा-पूर्ण हो, लेकिन उसमें कोविड 19 के लक्षण (खांसी, बुखार) आदि हों, तो उसे रिकार्ड में “कोविड 19 से संभावित मौत” के रूप में दर्ज किया जाए।

ये भी निर्देश दिया गया कि अगर कोराेना की टेस्ट रिपोर्ट नहीं आई हो, लेकिन उसी बीच बीमार की मृत्यु हो जाए, तो भी उसे कोविड 19 से “संदिग्ध मौत” के रूप में दर्ज किया जाए।

तना ही नहीं, अगर मरने वाले मरीज की कोरोना रिपोर्ट निगेटिव आई हो लेकिन उसे कोरोना जैसे लक्षण रहे हों तब भी उसे “क्लिनिकली-इपीडीमियोलॉजिकली रूप से जांच किया गया” (Clinically-epidemiologically diagnosed) कह कर कोरोना से “संभावित मौत” के रूप में दर्ज कर दिया जाए। क्लिनिकली-इपीडीमियोलॉजकली जांच अनुमान पर आधारित पद्धति है, जिसकी विशेषज्ञों ने पर्याप्त आलोचना की है।

स प्रकार, कोविड 19 से मृत्यु के जो अंतिम आंकड़े हमारे सामने आएंगे, उसमें कोरोना की मृत्यु-दर वास्तविक से बहुत ज्यादा होगी।

हालांकि ऐसा नहीं है कि, यह कहानी डॉ. टेड्रोस के डब्ल्यू.एच.ओ. के शीर्ष पद पर आने के बाद से ही शुरू हुई हो। इसकी पृष्ठभूमि 2008 की मंदी से भी जुड़ी है। उस मंदी के बाद से ही आर्थिक तंगी से जूझ रहे सदस्य देशों ने डब्ल्यू.एच.ओ. व अन्य वैश्विक संस्थाओं के मिलने वाले अनुदान में कटौती शुरू कर दी थी।

पिछले कई वर्षों से डब्ल्यू.एच.ओ. को सबसे अधिक फंडिंग बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन व उसकी सहयाेगी संस्थाओं वैक्सीन और टीकाकरण के लिए ग्लोबल एलायंस आदि से होती है। यह राशि उसे किसी भी सदस्य देश से मिलने वाली राशि की तुलना में ज्यादा है। एकल दानकर्ता के रूप में उसे सबसे अधिक राशि अमेरिका से प्राप्त होती थी, दूसरा स्थान बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन का था और तीसरा स्थान ब्रिटेन का था। अमेरिका द्वारा फंडिंग रोके जाने के बाद अब फ़ाउंडेशन ही उसका वास्तविक सर्वेसर्वा है। इस प्रकार, डब्ल्यू.एच.ओ. अब न तो यूनाइटेड नेशन के प्रति जबावदेह रह गई है, न ही सदस्य देशों के प्रति।

11 मार्च को कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित करने के दो दिन बाद ही डब्ल्यू.एच.ओ. ने अपने इतिहास में पहली बार गैर सदस्य संस्थाओं से पैसा लेने की शुरुआत कर दी, जिसे कोविड -19 सॉलिडेटरी रिस्पांस फंडनाम दिया गया। इसके माध्यम से 675 मिलियन यू.एस. डॉलर उगाहने का लक्ष्य रखा गया। अब दुनिया का कोई भी व्यक्ति, कॉरपोरेशन, फाउंडेशन, या किसी भी प्रकार की संस्था डब्ल्यू.एच.ओ. को पैसा दे सकती है। स्वास्थ्य-बाजार में शुद्ध मुनाफे के लिए बैठी कंपनियों और संस्थाओं के लिए भी अब कोई बंधन नहीं है।

फेसबुक और गूगल भी इस फंड में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं।

ब्ल्यू.एच.ओ. द्वारा तीसरी दुनिया के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कोई नया नहीं है। इस संबंध में कई पुस्तकें, रिपोर्ट व शोध उपलब्ध हैं कि किस प्रकार उसने दवा कंपनियों के दबाव में अनेक देशों का धन बर्बाद करवाया है।

ह संगठन पैनिक बटन अनावश्यक रूप से दबाने के लिए भी बदनाम रहा है। 2005 में दावा किया गया था कि एच 5 एन 1 फ्लू से दुनिया भर में 50 लाख से 1.5 करोड़ लोगों की मौत होगी, लेकिन वास्तव में उस साल दुनिया भर में 500 से भी कम लोग उस बीमारी से मरे। इसी प्रकार, 2009 में डब्ल्यू.एच.ओ. ने स्वाइन फ्लू को भी वैश्विक महामारी घोषित किया था। बाद में यह सामने आया कि यह सामान्य फ्लू से अधिक घातक नहीं था।

सके लिए डब्ल्यू.एच.ओ. की खूब आलोचना हुई तथा बाद के वर्षों में भी सोशल मीडिया और अखबारों में इसकी चर्चा होती रही कि, पैनिक बटन का दबना महज आकलन की भूल नहीं थी, बल्कि यह वैक्सीन कारोबारियों के दबाव में सोच-समझ कर किया गया था।

कोविड-19 से इसके रिश्ते को समझने के लिए इसके कुछ तारीख़ों को ध्यान में रखने की जरूरत है। डब्ल्यू.एच.ओ. को 31 दिसंबर, 2019 को चीन में अज्ञात कारण से न्यूमोनिया फैलने की सूचना मिल गई थी। उसने इसे एक महीने बाद 30 जनवरी, 2020 को “अंतर्राष्ट्रीय चिंता का सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल” घोषित किया और 11 मार्च को इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया, जिसके बाद दुनिया भर में सनसनी तेजी से फैली।

प्रतीकात्मक फोटो

वैश्विक महामारी घोषित करने के बाद एक प्रेस कांफ्रेंस में पूछे गए सवाल के जवाब में डब्ल्यू.एच.ओ. के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर माइकल जे. रयान ने बताया कि वैश्विक महामारी घोषित करने के क्रम में किसी विशेष प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। उन्होंने कहा कि इसके लिए कोई विशिष्ट प्रावधान भी नहीं है। लेकिन इससे लगभग एक महीना पहले ही 15 फरवरी को म्युनिख सिक्यूरिटी कांफ्रेंस में डॉ. टेड्रोस द्वारा दिए गए भाषण में इसके संकेत मिल गए थे डब्ल्यू.एच.ओ. कोविड 19 को वैश्विक महामारी (Pandemic) घोषित करने की योजना बना रहा है।

प्रमोद रंजन को और पढ़ें — आरोग्य एप : कोरोना के बहाने जनता पर नजर रखने की एक नई डिजिटल तकनीकी

कांफ्रेंस में डॉ. टेड्रोस ने कहा था कि “हम सिर्फ एक महामारी (epidemic) से ही नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि एक इंफोडेमिक (बीमार सूचनाओं की अधिकता) से भी लड़ रहे हैं। [नोवेल कोरोना] वायरस के तुलना में फेक न्यूज अधिक आसानी से और तेजी से फैलता है, और यह भी उतना ही खतरनाक है। इसलिए हम अनुसंधान और मीडिया-कंपनियों, जैसे फेसबुक, गूगल, पिनरेस्ट, टेनसेंट, ट्वीटर, टिक-टॉक, यूट्यूब आदि के साथ काम कर रहे हैं, ताकि अफवाहों और गलत सूचनाओं का मुकाबला किया जा सके। हम सभी सरकारों, कंपनियों और समाचार संगठनों से आह्वान करते हैं कि वे बिना हिस्टीरिया की लपटों को हवा दिए, हमारे साथ मिलकर उचित आवाज में अलार्म बजाएं।”

मतभिन्नता पर सामूहिक हमला

उपरोक्त भाषण में हम देखते हैं कि कोविड को डब्ल्यू.एच.ओ. द्वारा वैश्विक महामारी घोषित करने से पहले ही गाफा इस दिशा में काम कर रहा था। यही कारण था कि वैश्विक महामारी घोषित होते ही तकनीकी-कंपनियों (Facebook, Google, LinkedIn, Microsoft, Reddit, Twitter and YouTube) ने 17 मार्च को एक संयुक्त बयान जारी कर कहा कि वे दुनिया के स्वास्थ्य के हित में कोविड 19 से संबधित किसी भी जाली सूचना, भ्रांति, वैक्सीन के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों को जगह नहीं देंगे।

न कंपनियों में कुछ की आपसी प्रतिद्वंद्विता के इतिहास को देखते हुए यह संयुक्त बयान अप्रत्याशित था।

सके बाद गूगल, ट्वीटर और फेसबुक ने कोविड 19 से संबंधित कथित भ्रामक सूचनाओं की जांच के लिए अलग से प्रावधान किए और उन विशेषज्ञों और सामाजिक-कार्यकर्ताओं के अकाउंटों को धड़ाधड़ ब्लॉक करना शुरू कर दिया।

दुनिया के लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने और मतभिन्नता की आज़ादी का दंभ भरने वाली इन कंपनियों ने इस कार्रवाई के लिए यूरोपीय यूनियन के उस निर्देश को भी आड़ बनाया, जिसमें कहा गया था कि उन्हें अपने प्लेटफार्म पर भ्रामक सूचनाओं के प्रसार को रोकना चाहिए।

न कंपनियों ने फैक्ट चेकिंग के लिए कई संस्थाओं से अनुबंध किए हैं। इनमें से एक प्रसिद्ध संस्था है ‘पॉलिटी फैक्ट’। इस संस्था को पिछले वर्षों में फेसबुक, मिलिंडा एंड गेट्स फाऊंडेशन व अन्य संस्थाओं के अनुदान राशि प्राप्त हुई है। यह संस्था इंटरनेट पर आने वाली सामग्री के तथ्यों की जांच करती है और उनपर फाल्स (गलत), मोस्टली फाल्स (अधिकांश झूठ), पैंटस ऑन द फायर (पूरी तरह झूठ), सच, अधिकांश सच आदि का लेबल लगाती है।

बानगी के लिए इस संस्था द्वारा चुनी गई कुछ खबरों और उसके लेबल देखें, इससे आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि किस प्रकार राजनीतिक मतों को भी सच और झूठ के तकनीकी खांचों में बांटकर प्रस्तुत किया जा रहा है, इसे नीचे की दो तालिकाओं में देखा जा सकता है :

नतीजा क्या हुआ?

इस प्रकार, उन इन प्लेटफार्मों से न सिर्फ विश्व स्वास्थ्य संगठन की अवैज्ञानिक नीतियों की आलोचना बंद हो गई बल्कि दुनिया से साढ़े सात अरब लोगों के पास उपलब्ध परंपरागत सूझ-बूझ और संकट से निकलने की राह के अन्वेषण की रचनात्मकता को भी कथित विशेषज्ञता के नाम पर क़ुर्बान कर दिया गया। जैसा कि मैंने पहले भी कहा, न यह पूरी तरह सुनियोजित है, न ही पूरी तरह अनायास। यह मनुष्य पर प्रौद्योगिकी की जीत का खतरनाक संकेत है, जिसका लाभ इनसे जुड़ी लोभी और सनकी संस्थाएं उठा रही हैं।

र्टिफिशियल इंटेलीजेंस और सांख्यिकी-आधारित मॉडलिंग ने हमें ऐसे अंधकार में धकेल दिया है, जिससे निकलने में शायद वर्षों लग जाएंगे। इससे निकलने का रास्ता यह है कि हम असंवेदनशील-अविवेकी विशाल पूंजी की गुलाम कृत्रिम बुद्धि की जगह लाखों साल में विकसित हुए स्वतंत्र मानवीय विवेक को प्राथमिकता दें तथा सांख्यिकीय संभावना मॉडलों की जगह तुलनात्मक तथ्यों का प्रस्तुतीकरण आरंभ करें।

(पत्रकार व आलोचक प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और आधुनिकता के विकास में रही है। ‘साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष’, ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, ‘महिषासुर : मिथक व परंपराएं’ और ‘शिमला-डायरी’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। वे इन दिनों असम विश्वविद्यालय के रवींद्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज में प्राध्यापक हैं।)

Next Story

विविध