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संस्कृति

डरता है प्रेम अपने ही होने से

Janjwar Team
29 Sep 2017 10:14 AM GMT
डरता है प्रेम अपने ही होने से
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'सप्ताह की कविता' में आज पढ़िए चर्चित कवियत्री लीना मल्होत्रा की कविताएं

‘आह! मुझे तुमसे नहीं/ उन दिनों से प्रेम था / बहने से प्रेम था, उड़ने से प्रेम था, डूब जाने से प्रेम था’ या कह सकते हैं कि जीवन से प्रेम था। प्रेम को जहां से हम जीवन से काट कुछ जुदा आभासी शै के रूप में सामने रखना चाहते हैं वहीं से वह जड़ होने लगता है, रूढ़ी बनने लगता है। इस जड़ता को पहचानने के लिए अपनी चाहत और मोह पर नियंत्रण पाना होता है, तभी हम सामने वाले को उस रूप में देख पाते हैं, जो कि वह है, तभी हम उसकी वस्तुस्थिति को उसे बता उसके साथ न्याय कर पाते हैं, बजाय इसके कि अपनी आकांक्षा और खुशफहमियां उस पर थोपकर, तराशकर उसे जड़-चमकीला पत्थर या मूरत बना देने के। लीना के पास अस्वीकार का साहस और स्वीकार का विवेक है। वे जीवन को उसके तमाम संदर्भों में स्वीकार करती हैं और कह पाती हैं-
‘नहीं बन पाई सिर्फ एक भार्या, जाया और सिर्फ एक प्रेयसी/ नहीं कर पाई जीवन में बस एक बार प्यार।’

यहां हम आलोक धन्वा को याद कर सकते हैं, जो पूछते हैं कि क्या तुम ब्याह लाए एक स्त्री को और एक ही बार में खरीद लाए उसकी तमाम रातें, उसके निधन के बाद की भी रातें। आज जब मध्यवर्ग की मिट्टी पलीद हो चुकी है, उपभोक्तावाद उसकी चेतना की जड़ में मट्ठा डाल चुका है, लीना उसके अंतर्विरोध को सामने लाती हैं- ...आलमारियों में बंद सोने-चांदी और हरे नोट सिर्फ डर, चिंता और उपभोक्ता ही पैदा कर सकते हैं। लीना की खूबी यह है कि क्रांति की रौ में वे खुद को एक मीडियाकर परचम नहीं बन जाने देतीं, बल्कि धूल-मिट्टी में धंसकर उसे जानने-समझने और उसमें घुलने-मिलने का साहस दिखाती हैं। यह साहस उन्हें नया जीवन देता है। इस धूल-मिट्टी-गर्द से भरे जीवन में जब वे धंसती हैं, तो केवल अपने लिए नई अनजानी खुशियां ही नहीं तलाशतीं, वहां छुपे दर्दो-गम भी पाती हैं- ‘उनके सपनों के गर्म बाजार में/ नंगे पैर चलकर इच्छाएं घुसती हैं उनींदी आंखों में/ ईश्वर की उबकाई से लथपथ पत्थर पर लेटे हुए’’ लीना समकालीन हैं। लोकधर्मी हैं। संघर्षशील हैं। लीना की संघर्षशीलता आलोक धन्वा और विजय कुमार की परंपरा में है और यह हमें आश्वस्त करती है। आइए पढते हैं लीना मल्‍होत्रा की कविताएं -कुमार मुकुल

मेरी यात्रा का जरूरी सामान
आज मैं एक लम्बी नींद से उठी हूँ
और मुझे ये दिन ही नही ये ज़िन्दगी भी बिलकुल नई लग रही है
मै नहीं देखना चाहती
सोचना भी नहीं चाहती कि मैंने अपनी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी है
वह पुरुष कहाँ होगा
जिसे मैंने
हर चाय के प्याले के साथ चोरी-चोरी चुस्की भर पिया
और वह पुरुष जो मेरा मालिक था
उसकी परेशानियों और इच्छाओं को समझना मेरा कर्तव्य था जैसे कि मै
कोई रेलगाड़ी की सामान ढोने वाली बोगी थी जिसमें वह
जब चाहे अपनी इच्छाएँ और परेशानियाँ जमा कर सकता था
मेरी यात्रा में मैं उन्हें उसकी मर्ज़ी के स्टेशन तक ढोती
जहाँ से उतर कर वह यूँ विदा हो जाता जैसे कोई मुसाफ़िर चला जाता है.

मैं रात-रात भर गिनती रहती मेरी छत से गुजरने वाले हवाई-जहाज़ों को
और सोचती उनमे बैठे यात्रियों और उनकी पत्नियों के बारे में
जो शायद घर पर उनकी सलामती की दुआएँ माँग रही होंगी
जबकि उनकी सुखद-यात्रा के कई स्पर्श और चुपके से लिए हुए चुम्बन
उन जहाज़ों से मेरी छत पर गिरते रहते
और रेंगते हुए मेरे बिस्तर तक आ जाते
इस तरह मेरी चादरों पर कढ़े फूलों के रंग फ़ेड हो जाते
तब माचिस की डिबिया की सारी दियासलाइयाँ सीलन से भर उठतीं
यही एक मात्र प्रतिरोध था जो मैंने
किया अपने सीमित साधनों से
पर आज मै निकली हूँ घर से
अपनी मर्ज़ी के सब फूल मैंने अपने
सूटकेस में रख लिए हैं
यही मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान है।

वो जो सीता ने नहीं कहा
मैं ये जानती हूँ
मेरे राजा राम
कि
सत्ता और प्रभुता का विष
बहुत मीठा है
जहाँ
ज़िन्दगी की बिछी बिसात पर
तुमने
स्वयं अपने ही मोहरे को पीटा है

और
यह भी जानती हूँ
कि त्याग का दुख
त्यागे जाने की पीड़ा से बहुत बड़ा है
तभी तो
अपने मन के निन्यानवे हिस्सों की आहुति
तुम्हारे कर्त्तव्य के अग्निकुंड में दे दी मैंने ।

मेरे मन के सुकोमल हिस्सों पर खड़ी
इस अडिग अयोध्या में
तुम्हारी मर्यादा तो रह गई मेरे राजा राम
किन्तु
मेरे मन का सौवाँ हिस्सा आज तुमसे यह पूछता है
कि
अधिकार क्या केवल उन्हें मिलते हैं
जिन्हें
छीनना आता है।

मेरे मन के निन्यानवे हिस्सों को
तुम्हारे दुख में
सहज होकर जीना आता था
किन्तु
मेरे मन का
यह ज़िद्दी, हठी, अबोध सौवाँ हिस्सा
आज
अधिकार से,
मनुहार से,
प्यार से तुमसे यह पूछता है
कि
राजा के इस अभेद्य कवच के भीतर
तुम्हारा एक अपना
नितांत अपना मन भी तो होगा?

तुम्हारे
उसी मन के भीतर पलने वाला
अपराध-बोध
यदि
एक दिन इतना बड़ा हो जाए
कि
तुम
राज्य, धर्म, और मर्यादा की सब परिभाषाएँ
और अर्थ भूलकर एक दिन मेरे पास मेरी तपोभूमि में
लौट आना चाहो
तो
क्या तुम सिर्फ़ इसलिए नहीं आओगे
कि तुम मुझसे आँख मिलाने का साहस नहीं रखते ?

हर बार
तुम
मेरे प्रति तुम इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हो राम!!!

तुम्हार कुल!
तुम्हारी मर्यादा!! और अब
तुम्हारा ही अपराधबोध!!!

तुम्हारा यह स्वार्थ
तुम्हारे पुरुष होने का परिणाम है
या
मेरे स्त्री होने का दंड??

मैं
यह कभी जान नहीं पाई
इसलिए
आज मेरे मन का यह सौवाँ हिस्सा तुमसे यह पूछता है।

ओ मेरे हत्‍यारे
ओ मेरे हत्यारे
मेरी हत्या के बाद भी
जबकि मर जाना चाहिए था मुझे
निर्लिप्त हो जाना चाहिए था मेरी देह को
उखड़ जाना चाहिए था मेरी साँसों को
शेष हो जाना चाहिए था मेरी भावनाओं को
मेरे मन का लाक्षाग्रह धू-धू करके जलता रहा
मेरी उत्तप्त, देह संताप के अनगिनत युग जी गई

क्योंकि धड़कनों के ठीक नीचे वह पल धड़कता रहा
प्रेम का
जो जी चुकी हूँ मैं
वही एक पल
जिसने जीवन को ख़ाली कर दिया

समझ लो तुम

नैतिकता अनैतिकता से नही
विस्फोटक प्रश्नों
न ही तर्कों वितर्को से

तुमसे भी नहीं

डरता है प्रेम
अपने ही होने से...

वह बस एक ही पल का चमत्कार था
जब पृथ्वी पाग़ल होकर दौड़ पड़ी थी अपनी कक्षा में
और तारे उद्दीप्त होकर चमकने लगे थे
करोड़ो साल पहले...
और जल रहीं है उनकी आत्माएँ
उसी प्रेम के इकलौते क्षण की स्मृति में टँगी हुई आसमान में

और शून्य बजता है साँय-साँय।

(फोटो प्रतीकात्मक)

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